होली का महत्त्व व अध्यात्म शास्त्रीय जानकारी
होली : एक तेजोत्सव !
होली एक तेजोत्सव है । तेजोत्सवसे, अर्थात् विविध तेजोमय तरंगोंके भ्रमणसे ब्रह्मांडमें अनेक रंग आवश्यकताके अनुसार साकार होते हैं । इस वर्ष होलीका दहन फाल्गुन पूर्णिमाको अर्थात् 5 मार्चको तथा धूलिवंदन 6 मार्चको है । इस निमित्त प्रस्तुत है होली संबंधीत शास्त्रीय जानकारी ।
होलीके दिन आगे दिए अनुसार प्रार्थना करें ।
वंदितासि सुरेंद्रेण, ब्रह्मणा शंकरेण च । अतस्त्वं फाहि नो देवि, भूते भूतिप्रदा भव ॥
अर्थ : इंद्र, ब्रह्मदेव, शंकरने आपको वंदन किया है । हे देवी, आप ही हमारा रक्षण कर हमें ऐश्वर्य प्रदान करें ।
गुलाल लगाना
आज्ञाचक्रपर गुलाल लगाना, शिवको शक्तितत्त्वका योग देनेका प्रतीक है । गुलालके प्रभावसे देह सात्त्विक तरंगोंको ग्रहण कर पाती है । आज्ञाचक्रसे ग्रहण की गई शक्तिरूपी चैतन्यता संपूर्ण देहमें संक्रमित होती है
होलीमें नारियल डालना
नारियल वायुमंडलके कष्टदायक स्पंदनोंको खींच लेता है । नारियलको होलीकी आग्नमें डालनेसे कष्टदायक स्पंदन नष्ट होते हैं व वायुमंडलकी शुद्धि होती है ।
धूलिवंदन
होलीके दूसरे दिन अर्थात् धूलिवंदनके दिन अनेक स्थानोंपर एक-दूसरेके शरीरपर गुलाल डालकर रंग खेला जाता है । होलीके दिन प्रदीप्त हुई आग्नसे वायुमंडलके रज-तम कणोंका विघटन होता है । इस दिन खेली जानेवाली रंगपंचमी, विजयोत्सवका अर्थात् रज-तमके विघटनके कारण अनिष्ट शक्तियोंके उच्चाटनका (मारक कार्यका) प्रतीक है ।
रंगपंचमी
चैत्र कृष्ण पंचमीको खेली जानेवाली रंगपंचमी देवताके तारक (आशीर्वादरूपी) कार्यका प्रतीक है । इस दिन वायुमंडलमें उड़ाए जानेवाले अलग-अलग रंगकणोंकी ओर विभिन्न देवताओंके तत्त्व आकर्षित होते हैं । जीवको इनका लाभ मिलता है ।
रंगपंचमी मनानेकी पद्धति व उसका आधारभूत शास्त्र
रंग उड़ाना
‘वायुमंडलमें रंगोंका गुबार उड़ाकर हम ‘देवताको इन रंगोंके माध्यमसे बुला रहे हैं’, ऐसा भाव रखकर हम देवताका स्वागत करते हैं । देवताके चरणोंमें नतमस्तक होना रंगपंचमीका उद्देश्य है ।
होलीके संदर्भमें कुछ अन्य जानकारी
पुराणोंमें कथा
- ढुण्ढा नामक राक्षसी गांव-गावमें घुसकर बालकोंको कष्ट देती थी । उन्हें रोग व व्याधिसे ग्रस्त करती थी । उसे गांवसे भगानेके लिए लोगोंने अनेक प्रयास किए; परंतु वे सफल नहीं हुए । अंतमे उसे विभत्स गालियां तथा शाफ दिए । इसपर वह प्रसन्न होकर गांवसे भाग गई । (भविष्य पुराण)
- उत्तर भारतमें ढुण्ढा राक्षसीकी अपेक्षा पूतनाको होलीकी रात जलाते हैं । होलीके पूर्व तीन दिन बाल/ अर्भक कृष्णको फालनेमें सुलाकर उसका उत्सव मनाते हैं । चैत्र फूर्णिमापर पूतनाका दहन करते हैं ।
होली अर्थात् मदनका दहन
दक्षिणके लोग कामदेवके प्रीत्यर्थ यह उत्सव मनाते हैं । भगवान शंकर तफाचरणमें मग्न थे । वे समाधिस्त थे । उस समय मदनने उनके अंतःकरणमें प्रवेश किया । उन्हें कौन चंचल कर रहा है, यह देखने हेतु शंकरने नेत्र खोले और मदनको देखते क्षण ही भस्मसात कर दिया । होली फूर्णिमापर दक्षिणमें करते हैं । होली अर्थात मदनका दहन । मदनपर विजय प्राप्त करनेकी क्षमता होलीमें है; इसलिए मनाते हैं होलीका उत्सव ।
होलीके त्यौहारपर गालियां देनेका अयोग्य मानसशास्त्र
होलीके त्योहारपर एवं अगले दिन गंदी गालियां देते हैं । यह कुछ आधुनिकोंको रास नहीं आता; परंतु उसके पीछे मनोवैज्ञानिक तथ्य है । शब्दोंका मनपर जो एक प्रकारका अशिष्ट तनाव होता है, उसके निकलनेसे मन स्वच्छ हो जाता है । जैसे गंदे/मैले पानीको मार्ग देकर निकाल देते हैं उसी प्रकार मनुष्यमें विद्यमान फशुप्रवृत्तिको धर्मशास्त्रने होलीके निमित्त एक दिनके लिए छूट दी है
रंगपंचमी – कारण व महत्त्व
होलीमें ‘होलिका’ नामक असुर स्त्रीका नाश हुआ । होलिका भक्त प्रह्लादकी बुआ थी । उसने तपकर अग्निसे संरक्षणकी सिद्धि प्राप्त की थी । भक्त प्रह्लादकी भक्तिके सामने होलिकाकी सिद्धि असफल हो गई और वह जल गई; परंतु भक्त प्रह्लादका बाल भी बांका नहीं हुआ । होलिका हिरण्यकश्यपकी बहन थी, इसलिए उसमें सामर्थ्य अधिक था; उसे नष्ट होनेमें 5 दिन लगे । पूर्णिमासे लेकर चतुर्थीतक, यानी 5 दिन उसका शरीर आग्नमें जलता रहा । छठे दिन प्रह्लादके बच जानेपर उसके हितचिंतकोंने आनंदोत्सव मनाया । होलिकाके जल जानेके कारण सर्वत्र राख यानी काला रंग तथा उसके कारण दुःख व उदासीनता फैल गई । उसे नष्ट करने हेतु विभिन्न रंगोंसे सजी तथा रंगोंके माध्यमसे अनुभूति प्रदान करनेवाली ‘रंगपंचमी’का त्यौहार मनाया जाता है ।
रंगोंका महत्त्व
रंगपंचमीके दिन रंगोंका विशेष महत्त्व होता है । उस दिन जहांतक संभव हो, नैसर्गिक रंगोंका उपयोग करें । अन्य दिनोंकी तुलनामें रंगपंचमीके दिन रंगोंके माध्यमसे 5 प्रतिशत अधिक सात्त्विकता प्रक्षेपित होती है । इस कारण रंगोंसे खेलते समय तथा रंग लगानेपर जीवकी सात्त्विकता भी बढ़ती है ।
हिंदुओं, अपनी संस्कृति को विकृति में परिवर्तित होने से रोको;
होली को त्योहार के रूप में मनाकर सात्त्विक आनंद पाओ !
‘नियताह्लादजनकव्यापारः – निश्चित रूप से आह्लाद उत्पन्न करने वाला उद्योग ही उत्सव कहलाता है ।’ (शब्दकल्पद्रुम) । किसी धार्मिक समारोह में, उसे आयोजित करने वाले व उसमें सहभागी होने वाले लोगों को यदि हर्ष, आनंद व मनःशांति का अनुभव होता है, उसे उत्सव कहते हैं ।’ परंतु आजकल उत्सवों का स्वरूप घिनौना होता जा रहा है । होली के बारे में ही देखें, तो आजकल – * जबरन चंदा वसूल करना, * राह चलते लोगों और वाहन चालकों को रोककर पैसे ऐंठना * ज़बरदस्ती रंग लगाना * गुलाल का अत्यधिक उपयोग * होलिका के निकट शराब अथवा भांग पीकर अश्लील नृत्य करना * एक-दूसरे पर कीचड़ फेंकना * एक-दूसरे को गंदे पदार्थ अथवा डामर लगाना * पानी के गुब्बारे मारना * लड़कियों के साथ छेड़छाड़ तथा उनसे असभ्य वर्तन करना * देवताओं के मुखौटे धारण कर पैसे मांगना * पानी का अपव्यय करना इत्यादि अनाचार खुले आम होते हैं । इससे धर्महानि तो होती ही है, साथ-साथ आम जनता त्योहारों के मूल उद्देश्य से अर्थात् धर्म से भी दूर होती जा रही है । इन अनाचारों को चुपचाप देखना या सहना भी धर्महानि के लिए ज़िम्मेदार होने समान है । ऐसे अनाचार रोकने के लिए प्रत्येक हिंदू द्वारा प्रयास होने आवश्यक हैं । इन प्रयासों का अर्थ है धर्मकर्त्तव्य निभाना । धार्मिक त्योहारों की पवित्रता कायम रहे, त्योहार मनाते समय उसमें अश्लील अथवा घिनौने व्यवहार न हों, सबको आनंद मिले, हिंदुओं के त्योहारों के प्रति गर्व लगे, इसके लिए प्रयत्न करना धर्मसेवा ही है । जो धर्म का रक्षण करता है, उसका रक्षण धर्म (ईश्वर) करता है । इसके लिए हिंदुओं को संगठित प्रयत्न करने होंगे ।
विविध देशोंमें होलीके विविध नाम व उसे मनानेकी पद्धतियां
हर्ष, उल्लास व रंगोंका यह पर्व केवल भारतमेें ही नहीं बल्कि पूरे विश्वमें मनाया जाता है । चीनमें इसे ‘च्वैजे’ कहते है, जिसमें लकड़ियोंका ढेर लगाकर जलाते हैं व एक-दूसरेको रंग लगाते हैं । यूनानमें यह उत्सव ‘पोल’के नामसे मनाया जाता है जिसमें लकड़ियोंका ढेर लगाकर उसे जलाते हैं व अपने देवता टायनोसियमकी पूजा करते हैं ।
भारतमें बरसानेकी लट्ठमार, फूलोंकी व लड्डूमार होली, तो रोहतककी पत्थरमार होली व पंजाबकी होला महल्ला होली विशेष है । जब नंदगांवके गोप गोपियोंपर रंग डालते, तो नंदगांवकी गोपियां उन्हें ऐसा करनेसे रोकती थीं और न माननेपर लाठी मारना शुरू करती थीं । पंजाबमें गुरु गोबिंद सिंहने होलीको एक क्रांतिकारी स्वरूप देते हुए होलीका पुल्लिंग होला शब्दका प्रयोग किया व ऐसे होली होला महल्ला (शस्त्र प्रदर्शन)के रूपमें मनाई जाने लगी । ऐसे तो रंगोंका यह पर्व कहीं-कहीं मंदिरोंमे बसंत पंचमीसे ही शुरू हो जाता है वाराणसीमें इसकी शुरूआत रंगभरी एकादशीसे होती है । –
होली
प्रथम त्रेतायुगमें अर्थात् प्रथम राम-अवतारसे पूर्व, 78 करोड़ वर्षोंसे यज्ञ (होली) की परंपरा चली आ रही है । विष्णुतत्त्वको प्रकट करने हेतु, स्वप्नदृष्टांतमेंं मिली प्रेरणासे ऋषि-मुनियोंद्वारा प्रथम त्रेतायुगमें किया गया प्रथम महायज्ञ है ‘होली’ । ‘होलिका’ नामक असुर स्त्रीसे प्रह्लादके बच जानेपर, आनंदोत्सव मनाया गया । होलिकाके जल जानेके कारण सर्वत्र राख यानी काला रंग तथा उसके कारण दुःख व उदासीनता फैल गई । उसे नष्ट करने हेतु विभिन्न रंगोंसे सजी तथा रंगोंके माध्यमसे अनुभूति प्रदान करनेवाली ‘रंगपंचमी’का त्यौहार मनाया जाता है ।
होली कैसे मनाएं ? : एरंड, नारियलका पेड़ अथवा गन्ना खड़ा कर, उसके चहुं ओर उपलें व लकड़ीकी रचना करें । सायंकालमें व्रतकर्ता स्नानके उपरांत संकल्प करे । ‘श्री होलिकायै नमः ।’ नामजप कर होलीको प्रज्वलित करे । होलीकी परिक्रमा कर शंख बजाए । होलीके पूर्णतः जलनेपर दूध व घी छिड़ककर, उसे शांत करे । अगले दिन प्रातः होलीकी राखकी पूजा कर, वह राख शरीरपर लगाकर स्नान करे ।
रंगपंचमी : ईश्वरद्वारा मनाया जानेवाला एकमात्र उत्सव त्रेतायुगतक इस उत्सवका कोई महत्त्व नहीं था । द्वापरयुगमें श्रीकृष्णद्वारा रंगपंचमी मनाए जानेपर इसे महत्त्व प्राप्त हुआ । प्रत्यक्षमें ईश्वरद्वारा मनाया गया यह एकमात्र उत्सव है ।
रंगोंका महत्त्व : जहांतक संभव हो, नैसर्गिक रंगोंका उपयोग करें । अन्य दिनोंकी तुलनामें, रंगपंचमीके दिन रंगोंके माध्यमसे 5 प्रतिशत अधिक सात्त्विकता प्रक्षेपित होती है । इस कारण रंगोंसे खेलते समय तथा रंग लगानेपर जीवकी सात्त्विकता भी बढ़ती है ।
धर्महानि रोकें ! ः बलपूर्वक गुलाल लगाना, गंदे पानीके गुब्बारे फेंकना, महिलाओंसे छेडछाड करना, ये अनाचार हैं । होली व रंगपंचमीपर इन्हें रोकना, धर्मपालन ही है !