गीता मेरे गीतों में, गीत संख्या ….17 , देव पूजा से कल्याण

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देव पूजा से कल्याण

सोते हुए बालक को जैसे माता पिलाती दूध को।
प्रतीति नहीं है स्वाद की पर पीता है बच्चा दूध को।।
रहते हैं संसार में वैसे ही योगी जान विषय गूढ़ को।
हम निर्लिप्त भाव से रहें – समझें विचार विशुद्ध को।।

आंखों से देखता है योगी पर देखता नहीं संसार को।
मगन रहता है निज स्वरूप में भजता है करतार को।।
कानों से सुनाई देता उसे, पर सुनता नहीं असार को।
नहीं फंदे में फंस पाता वह प्रेम से छोड़ता संसार को।।

कर्म संग को जो छोड़कर – जीवन बिताते हैं यहां।
आत्मा उनका बन्धता नहीं – निर्लिप्त रहते जो यहां।।
नहीं सताते संताप उनको पाप ताप की तो बात क्या ?
महात्मा लोग ही देवता रूप में सम्मान पाते हैं यहाँ।।

देव पूजन जो करें वही जन पार करते भव सिंधु को।
कल्याण करते स्वयं का – नव संदेश दे संसार को ।।
व्यक्तित्व और कृतित्व उनका – फैलाए प्रेम सार को ।।
वे प्रसन्न करते देवगण को जो चला रहे संसार को।।

देव सत्य होते सदा – अनृत मनुष्य को ही कहा गया।
सत्य से विपरीत चलता – दोषों का पुतला माना गया।।
दूर दोष करे देव पूजन मनुष्य का धर्म यही माना गया।
चलते रहो इसी मार्ग पर मिलेगा गंतव्य जो माना गया।।

धर्म मार्ग में जो भी मिले – उसे सहज में स्वीकार लो।
ईशत्व मेरे साथ है -ऐसा भाव ह्रदय में अपने धार लो।।
जो भी मिले जीवन में साथी – प्रारब्ध अपना मान लो।
सदा आनंद में जीते रहो – विषय आत्मा का जान लो।।

सर्वत्र हो आनंद वर्षा – जब आनंद के हम ध्यानी बनें।
देखें आनंद में आनंद को – आनंद के हम स्वामी बनें।।
लुटेरे हों आनंद के , सदा ही आनंद के हम ज्ञानी बनें ।
हो पवित्र मधुर वाणी हमारी – जग की कल्याणी बने।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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