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पर्यावरण

उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन तथा जलवैज्ञानिकों की रिपोर्ट

लेखक:- डॉ. मोहन चंद तिवारी
उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-3
भारत के लगभग 5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में स्थित उत्तर पश्चिम से उत्तर पूर्व तक फैली हिमालय की पर्वत शृंखलाएं न केवल प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, वनस्पति‚ वन्यजीव, खनिज पदार्थ जड़ी-बूटियों का विशाल भंडार हैं, बल्कि देश में होने वाली मानसूनी वर्षा तथा तथा विभिन्न ऋतुओं के मौसम को नियंत्रित करने में भी इनकी अहम भूमिका है. हिमालय पर्वत से प्रवाहित होने वाली नदियों एवं वहां के ग्लेशियरों से पिघलने वाले जलस्रोतों के द्वारा ही उत्तराखण्ड हिमालय के निवासियों की जलापूर्ति होती आई है. जनसंख्या की वृद्धि तथा समूचे क्षेत्र में अन्धाधुंध विकास की योजनाओं के कारण भी स्वतः स्फूर्त होने वाले हिमालय के ये प्राकृतिक जलस्रोत सूखते जा रहे हैं तथा भूगर्भीय जलस्तर में भी गिरावट आ रही है. पर्यावरण सम्बन्धी इसी पारिस्थितिकी के कारण देश के अन्य प्रान्तों की भांति उत्तराखण्ड क्षेत्र भी आज एक भीषण जलसंकट के दौर से गुजर रहा है.
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले कुमाऊँ तथा गढ़वाल दोनों कमिश्नरियों में समूचे जलप्रबन्धन तथा जलसंचयन की व्यवस्था ग्राम पंचायतों की सामुदायिक भागीदारी से संचालित होती थी. पेयजल का प्रबन्धन हो या सिंचाई आदि की व्यवस्था करना अथवा कुएं तालाबों,नहरों का निर्माण करना जलप्रबन्धन के ये सभी कार्य स्थानीय जनता की भागीदारी से किए जाते थे. किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अन्य प्रान्तों की भांति उत्तराखण्ड में भी सामुदायिक जल-वितरण और प्रबन्धन का दायित्व राज्य सरकारों के द्वारा निर्वाहित किया जाने लगा. जलप्रबन्धन के केन्द्रीकरण के कारण ग्राम पंचायतों एवं सामुदायिक भागीदारी की गतिविधियों में कमी आने लगी जिसके परिणामस्वरूप उत्तराखण्ड की जलसमस्या दिन प्रतिदिन गम्भीर होती गई.

उत्तराखण्ड में जलवैज्ञानिक सर्वेक्षणों के निष्कर्ष
उत्तराखण्ड में जल समस्या के निदान तथा उसके समाधान हेतु वर्त्तमान उत्तराखण्ड के जलस्रोतों के सम्बन्ध में किए गए आधुनिक शोधपूर्ण अनुसन्धानों के निष्कर्षों की जानकारी भी आवश्यक है ताकि इस दिशा में जल संकट की समस्या का समुपचित रूप से समाधान निकाला जा सके.

1. उत्तराखण्ड से सम्बन्धित एक जलवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखण्ड हिमालय में जलवैज्ञानिक पारिस्थिकी को प्रभावित करने वाले निकायों में इस समय 8 जल-प्रस्रवण संस्थान (कैचमैंट)‚ 26 जलविभाजक संस्थान (वाटर शैड)‚ 116 उप जल- विभाजक संस्थान (सब-वाटर शैड), 1‚120 सूक्ष्मजल विभाजक संस्थान (माइक्रो-वाटरशैड) सक्रिय हैं.

हमारे उत्तराखंड की एक खासियत यह भी है कि समय समय पर जलवैज्ञानिकों के द्वारा जो सिफारिशें की जातीं हैं, उन पर सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा कभी कार्यान्वयन नहीं किया जाता है. यही सबसे बड़ी विडंबना है,उत्तराखंड के जल प्रबंधन की.

2. वनों की अंधाधुन्ध कटाई तथा पक्की सड़कों के निर्माण के कारण उत्तराखण्ड के पारम्परिक जलस्रोत आज सूखते जा रहे हैं. अल्मोडा जिले के अन्तर्गत द्वाराहाट नामक शहर में सन् 1900 में 360 नौलों के द्वारा नगरवासी जलापूर्ति करते थे परन्तु वर्त्तमान में वे अधिकांश रूप से जलविहीन हो चुके हैं.इसी प्रकर नैनीताल जिले में गौला नदी से संचालित रहने वाले 46 प्रतिशत जलस्रोत सूख चुके हैं तथा 60 प्रतिशत स्रोत वर्षा ऋतु में ही सक्रिय रह पाते हैं.
3. डॉ. के.एस.बल्दिया और एस.के.बर्तया के उत्तराखण्ड के जलस्रोतों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि परम्परागत जलस्रोतों में पानी की कमी होने का मुख्य कारण जंगलों का कटान है. इसी सन्दर्भ में 1952-53 और 1984-85 के मध्य जलागम क्षेत्र के जंगलों में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई. इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि 1956 से 1986 के मध्य जलागम क्षेत्र भीमताल में वर्षा में 33 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई परन्तु स्रोतों के पानी में 25 से 75 प्रतिशत की कमी देखी गई जिसके कारण क्षेत्र के 40 प्रतिशत गांव जलापूर्ति की दृष्टि से प्रभावित हुए. कुछ स्रोत तो पूरी तरह से सूख गए.

पढ़ें— भारत के विभिन्न क्षेत्रों में परंपरागत जल संचयन प्रणालियां

4. कुमाऊँ के 60 जल स्रोतों के अध्ययन से भी यह तथ्य सामने आया है कि 10 स्रोतों (17 प्रतिशत) में जलप्रवाह पूरी तरह से समाप्त हो गया था जबकि 18 स्रोतों (30 प्रतिशत) में जलप्रवाह मौसमी हो गया तथा शेष 32 स्रोतों (53 प्रतिशत) में जल के प्रवाह की गति मन्द पड़ गई थी.इसका मुख्य कारण यह था कि क्षेत्र के बांज के जंगल बड़े पैमाने पर नष्ट हो गए थे.

5. कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में डॉ. जे.एस.रावत केद्वारा उत्तराखण्ड में किए गए जलस्रोत सम्बन्धी अध्ययन से ज्ञात होता है कि अल्मोड़ा की कोसी नदी में पानी का बहाव 1992 में 800 मीटर लीटर प्रति सैकिन्ड से घटकर सन् 2004 में 196 लीटर प्रति सैकिन्ड रह गया. इस अध्ययन से यह भी संकेत मिला कि ऊपरी ढलानों के जंगलों में वर्षा के द्वारा भूमिगत जल में 31 प्रतिशत की वृद्धि होती है. बांज के जंगलों से भूजल संग्रहण में 23 प्रतिशत‚ चीड से 16 प्रतिशत‚ खेतों की हरियाली से 13 प्रतिशत‚ बंजर भूमि से 5 प्रतिशत और शहरी भूमि से केवल 2 प्रतिशत की मात्र में भूमिगत जल की वृद्धि हो पाती है.डॉ.रावत की सिफारिश है कि उत्तराखण्ड क्षेत्र में भूमिगत जल की वृद्धि हेतु पर्वत के शिखर से ढलान की तरफ 1000 से 1500 मीटर तक सघन रूप से मिश्रित वनों का निर्माण होना चाहिए.
पूरे राज्य में जलागम क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने के लिए ऊपरी ढलानों पर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों को लगाने के साथ बड़े पैमाने पर वनीकरण किया जाना बहुत जरूरी है.चीड़ के पेड़ों का वैज्ञानिक आधार पर कटान कर उनके स्थान पर चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाए जाने चाहिए. साथ ही जंगल में वर्षा जल के संचयन के लिए नालियां भी खोदी जानी चाहिए और रिसाव रोकने के उपाय किये जाने चाहिए. परम्परागत जल संचयन के ढांचों और उनके जलागम क्षेत्र को बहाल करने से ही भूमिगत जल को ऊपर उठाया जा सकता है. पर हमारे उत्तराखंड की एक खासियत यह भी है कि समय समय पर जलवैज्ञानिकों के द्वारा जो सिफारिशें की जातीं हैं, उन पर सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा उनपर कभी कार्यान्वयन नहीं किया जाता है.यही सबसे बड़ी विडंबना है,उत्तराखंड के जल प्रबंधन की.

पिछले वर्ष के बजट में हर घर में पानी पहुंचाने के अभियान के तहत धनराशि आवंटित करने की घोषणा भी कर दी गई थी. पर उत्तराखंड को केंद्र सरकार के इस जल शक्ति अभियान से क्या लाभ मिला? इसकी खबर न तो यहां के नेताओं को है और न यहां की जनता को. हालांकि पिछले कई वर्षों से कुमाऊं हो या गढ़वाल पानी की गम्भीर समस्या से लोग आक्रोशित रहे हैं.

पिछले वर्ष 8 जुलाई,2019 को ‘डाउन टू अर्थ’ में त्रिलोचन भट्ट ने अपने एक लेख में यह महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है कि उत्तराखंड जल संस्थान की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्त्तमान में उत्तराखंड राज्य के 500 जलस्रोत सूखने की कगार पर हैं. इसके बावजूद केंद्रीय सरकार और उत्तराखंड की राज्य सरकार अपने राज्य की जलप्रबंधन व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से बेखबर और उदासीन हैं और जलस्रोतों को नष्ट करने वाले सड़क चौड़ीकरण के प्रोजेक्टों को ज्यादा अहमियत देने में लगी है.
भारत सरकार की भी उत्तराखंड के प्रति जलनीति भी अन्य हिमालयीय राज्यों की तुलना में भेदभाव पूर्ण लगती है. केन्द्र सरकार द्वारा देशभर के 256 जिलों को सबसे ज्यादा जल संकट वाले मानते हुए पिछले सालों में 1 जुलाई से 15 सितम्बर, 2019 तक इन संकटग्रस्त जिलों में जलशक्ति अभियान शुरू किया गया. इस अभियान के तहत हर जिले के सचिव अथवा अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारी की देखरेख में एक टीम बनाकर जिले के संकटग्रस्त ब्लॉकों में जाकर पानी की स्थिति का अध्ययन करना और वहां के हालात सुधारने की दिशा में काम करना था.

पिछले वर्ष के बजट में हर घर में पानी पहुंचाने के अभियान के तहत धनराशि आवंटित करने की घोषणा भी कर दी गई थी. पर उत्तराखंड को केंद्र सरकार के इस जल शक्ति अभियान से क्या लाभ मिला? इसकी खबर न तो यहां के नेताओं को है और न यहां की जनता को. हालांकि पिछले कई वर्षों से कुमाऊं हो या गढ़वाल पानी की गम्भीर समस्या से लोग आक्रोशित रहे हैं. किन्तु राज्य प्रशासन जल संकट का आज तक कोई संतोषजनक समाधान नहीं निकाल पाया है.
दरअसल, देश के हिमालयी राज्यों में पेयजल की स्थिति लगातार खराब होती रही है. अनेक गैर सरकारी संगठनों की रिपोर्टों के साथ स्वयं भारत सरकार की नीति आयोग की रिपोर्ट भी इस तरफ संकेत करती है. पर हिमालय में गम्भीर जलसंकट की स्थिति के बावजूद भी जल शक्ति अभियान में हिमालयी राज्यों के मात्र 13 जिलों को ही शामिल किया गया है. इनमें हिमाचल प्रदेश के चार जिले शामिल किए गए हैं, जबकि उत्तराखंड की आबादी हिमालय प्रदेश के मुकाबले अधिक होने और हिमाचल प्रदेश के मुकाबले जलसंकट भी गम्भीर होने के बावजूद भी उसके एक ही जिले नैनीताल को ही भारत सरकार के इस जलशक्ति अभियान से जोड़ा गया.

पढ़ें—हिमनदियों-गिरिस्रोतों का उद्गम स्थल उत्तराखंड झेल रहा है भीषण जल संकट

राज्य के जलसंकट के समाधान के लिए कमसे कम इस अभियान में उत्तराखंड के पांच संकट ग्रस्त जिलों को शामिल किए जाने की आवश्यकता थी. जबकि स्वयं नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में पिछले 300 वर्षों में 150 जलस्रोत सूख गये हैं. पर हाल ही में एक दो महीने पहले एक संतोषजनक खबर यह मिली है कि ‘राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन’ के 50 वैज्ञानिकों के सहयोग से उत्तराखंड के चार जल स्रोतों को नया जीवन मिलने की उम्मीद जगी है. (अमर उजाला,17 नवंबर,2020)
उत्तराखंड जल संस्थान, टेरी स्कूल ऑफ एडवांस साइंसेज, टेरी इंस्टीट्यूट और डीएवी पीजी कॉलेज के 50 वैज्ञानिकों की टीम ने जिन चार क्षेत्रों के स्रोतों का जल वैज्ञानिक अध्ययन किया है,वे हैं – मसूरी के सेलूखेत, प्रतापनगर, कर्णप्रयाग और चंबा के जलस्रोत. इस प्रोजेक्ट के मुख्य अन्वेषक डॉ. प्रशांत सिंह ने बताया कि उत्तराखंड में 1150 सूखे जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया जा रहा है.इन जलस्रोतों का जल स्तर गिरने की वजह से पूरे प्रदेश में आपूर्ति बुरी तरह से प्रभावित हो रही है. अब तक वैज्ञानिकों द्वारा इनका सर्वे, जियोफिजिकल इनवेस्टिगेशन, मिट्टी का टेस्ट हो चुका है. पानी की गुणवत्ता की जांच भी की जा चुकी है. इसके साथ ही जीआईएस रिमोट सेंसिंग की मदद से पूरा विश्लेषण किया गया है.

हजारों वर्षों से चली आ रही जल संरक्षण से जुड़ी परंपरागत तकनीक और उपेक्षित पड़े पारंपरिक जल संसाधनों को सहेजने-समेटने और उन्हें पुनर्जीवित करने की चिंता न जलवैज्ञानिकों को है और न राज्य प्रशासन को.

अभी तक के उत्तराखंड राज्य के जलस्रोतों के जलप्रबंधन से जुड़े जो अधुनातन नए तथ्य सामने आए हैं, उनके अनुसार राज्य के 330 जलस्रोतों के बहाव में 50 प्रतिशत की कमी आ चुकी है. कुल 1229 स्प्रिंग स्रोतों के जल स्तर पर पर्यावरणीय व अन्य कारकों का असर पड़ रहा है.
विडम्बना यह भी है कि पहाड़ों पर पानी उपलब्ध कराने के लिए सरकार और आधुनिक जलवैज्ञानिक भारी भरकम बजट वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को ही ज्यादा तरज़ीह देने में लगे हैं,किन्तु उससे राज्य की जल समस्या को हल करने में कोई मदद मिली हो, उसका कोई ठोस परिणाम अभी तक सामने नहीं आया. दूसरी ओर हजारों वर्षों से चली आ रही जल संरक्षण से जुड़ी परंपरागत तकनीक और उपेक्षित पड़े पारंपरिक जल संसाधनों को सहेजने-समेटने और उन्हें पुनर्जीवित करने की चिंता न जलवैज्ञानिकों को है और न राज्य प्रशासन को. इन सब परेशानियों और कठिनाइयों के बावजूद भी अनेक जल पुरुष और जल नारियां तथा पर्यावरणवादी संगठन उत्तराखंड में नौलों, धारों और जलस्रोतों के संरक्षण की मुहिम युध्दस्तर पर चलाए हुए हैं, जिनकी चर्चा आगामी लेखों में की जाएगी.
✍🏻डॉ मोहन चंद तिवारी, हिमान्तर में प्रकाशित लेख।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें संस्कृत शिक्षक पुरस्कार ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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