कश्मीर और उसके इतिहास से जुड़ी अपनी कड़ियों के प्रारंभ में ही हमने यह स्पष्ट कर दिया था कि अपनी इन कड़ियों को हमने ‘द कश्मीर फाइल्स’ नामक फिल्म से प्रेरित होकर आपके समक्ष प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। जिससे यह प्रेरणा मुझे मिली कि इस फिल्म में पिछले 30 – 32 वर्ष के घटनाक्रम को दिखाया गया है, जबकि सच इससे कुछ अलग है। यदि उस सच को प्रकट करने वाली पुस्तक लिखी जाए तो अच्छा रहेगा ।
अनुपम खेर और उनके साथियों की ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने देश के करोड़ों लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है । इसके माध्यम से अनुपम खेर और उनकी टीम के लोगों ने 90 के दशक में कश्मीर छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडितों के दु:ख – दर्द को लोगों के सामने यथावत प्रस्तुत कर दिया है।
90 के दशक में जब कश्मीरी पंडितों को अपना घरबार छोड़कर अपने ही देश के भीतर इधर उधर भटकने के लिए विवश होना पड़ा था तो उस समय सरकारों की निष्क्रियता के चलते यह लगता नहीं था कि कभी वह समय भी आएगा जब उनके दु:ख-दर्द को कभी सारा देश समझ पाएगा। धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े बैठे तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने उनके दु:ख-दर्द को इस प्रकार मिट्टी में बहुत गहरे दफन कर दिया था कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। राजनीतिक संवेदनहीनता की यह घोर पराकाष्ठा थी।
वास्तविकता यह थी कि कश्मीर के आतंकवादियों और वहां के स्थानीय मुसलमानों के लिए कश्मीरी पंडित आंखों की किरकिरी बन चुके थे। वह एक पल के लिए भी कश्मीरी पंडितों को अपने साथ रखने को तैयार नहीं थे। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ( जिसे बाद में नेशनल कांफ्रेंस कहा जाने लगा) आजादी से पहले से ही हिंदुओं के विरोध में काम करने वाली राजनीतिक पार्टी रही थी। जिस पर हमने पुस्तक में यथास्थान प्रकाश डाल दिया है। दुर्भाग्यवश जब सत्ता नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के हाथों में चली गई तो इन कश्मीरी पंडितों के दुर्भाग्य का नया दौर आरंभ हुआ। इस दौर में कातिल तो कातिल था ही मुंसिफ भी कातिल हो गया था। अतः न्याय की अपेक्षा ऐसे शासन और ऐसे शासक से की जानी कितनी उचित हो सकती है ? – यह आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।
अपनी सुरक्षा के लिए कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति का गठन वहां के स्थानीय हिंदुओं ने किया। इस संघर्ष समिति ने इस काल में कश्मीरी पंडितों के साथ कैसे – कैसे अत्याचार किए गए ? – इसके संबंध में कुछ आंकड़े जारी किए। जिनसे पता चलता है कि वर्ष 1990 में घाटी के भीतर 75343 कश्मीरी पंडितों के परिवार निवास करते थे। जब वहां से कश्मीरी पंडितों को भगाया गया तो मात्र 2 वर्ष के अंतराल में ही आतंकवादियों के डर से 70,000 से अधिक परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया था।
कहने का अभिप्राय है कि इतने काल में ही हिंदुओं के लगभग 5000 परिवार ही घाटी में शेष रह गए थे। संघर्ष समिति के आंकड़ों के अनुसार 1990 से 2011 की बीच आतंकवादियों ने 399 कश्मीरी पंडितों की हत्या की। पिछले 30 वर्षों के काल में बहुत कम हिंदू परिवार ही बचे हैं। आजादी से पहले 1941 में कश्मीरी हिंदुओं का आबादी में अनुपात 15% का था। 1991 तक आते-आते अर्थात 50 वर्ष पूर्ण होने पर हिंदुओं का वहां की कुल जनसंख्या में अनुपात केवल शून्य 0.1% ही रह गया।
यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं कि इस सबके उपरांत भी देश की राजनीति गूंगी बहरी बनी रही। उसने कश्मीर की ओर से आंखें बंद कर लीं। सारे देश के लिए भी ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की गई थीं कि किसी का ध्यान उधर जा ही न सके। इस प्रकार कश्मीर में दुष्ट दानव दल के सामने मानवों को फेंक दिया गया।
आज जब अनुपम खेर और मिथुन चक्रवर्ती जैसे कलाकारों ने कश्मीर के आतंकवाद के सच को लोगों के सामने लाने का साहस किया है तो लगभग सारे देश को ही कश्मीर की वास्तविकता का पता चला है। इसके साथ – साथ वह राजनीति भी नंगी हो गई है जो कश्मीर की वास्तविकता को अब तक सारे देश से छुपाए घूम रही थी। उसकी वह नपुंसकता भी सबके सामने सार्वजनिक हो गई है जो सच को सच कहने का साहस नहीं कर पा रही थी ।उसका वह दोगलापन भी सबको पता चल गया है जिसके चलते वह कश्मीर में कुछ और भाषा बोलती थी तो देश के दूसरे भागों में जाकर कुछ दूसरी भाषा बोलती थी। उसका वह कुटिल भाव भी सबको पता चल गया है जिससे वह हिंदू द्वेष की कपटनीति करती रही और हिंदू का मूर्ख बनाती रही।
आज जिस व्यक्ति ने भी राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित होकर इस फिल्म को देखा है वही अपने आंसू नहीं रोक पाया है। लोगों को पर्दे के पीछे का सच जानकर इस बात पर हैरानी हुई कि एक स्वाधीन लोकतांत्रिक देश के भीतर भी इतने अत्याचार होते रहे और हम सब इससे अनजान बनाकर रखे गए। लोग इस बात पर भी दु:खी हैं कि देश के एक सबसे बड़े अल्पसंख्यक धर्म ने, जो अपने आपको शांति का धर्म कहता है, 20 वीं और 21वीं सदी के भीतर रहकर भी मानवता की सभी सीमाएं पार कर दीं। जब उसकी दानवता कश्मीर के भीतर हिंदुओं की बहन-बेटियों पर अपने क्रूरतापूर्ण अत्याचार ढहा रही थी तब उस शांति के धर्म के मानने वालों के मुंह से सीं न निकली। शांति का धर्म इस सारे घटनाक्रम को केवल इसलिए होते देखता रहा कि इससे कश्मीर का इस्लामीकरण करने में उसे सफलता मिलेगी। मानवता शर्मसार हो कर रह गई।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, फिल्म जब खत्म हुई, तो वहां मौजूद कई दर्शक इतने भावुक हो गए कि अपनी सीटों पर खड़े होकर रोने लगे। पूरे थियेटर में जो माहौल बना, उसे देखकर समझा जा सकता था कि फिल्म में कश्मीरी पंडितों के दर्द को किस प्रकार प्रस्तुत किया गया है ? फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री का भी कहना है कि वर्ष 1990 में हुआ कश्मीरी नरसंहार भारतीय राजनीति का एक अहम और संवेदनशील मुद्दा है, इसलिए इसे पर्दे पर उतारना कोई आसान काम नहीं था। इसके लिए हमारी टीम ने एक व्यापक रिसर्च किया है। करीब 700 कश्मीरी पंडितों के परिवारों से बातचीत की गई है, जिन्होंने सीधे तौर पर कश्मीर की इस हिंसा को झेला। उन्हें विस्थापित होना पड़ा। वो आज भी उसी टीस के साथ जी रहे हैं।
फिल्म समीक्षक सुमित कडेल लिखते हैं, ”स्वतंत्र भारत का सबसे क्रूर अध्याय। इसमें अनफ़िल्टर्ड तथ्यों के साथ प्रकट हुआ कश्मीरी पंडितों का जनसंहार। विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन में बनी इस फिल्म को कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का सच जानने के लिए अवश्य देखना चाहिए। इस सच को अतीत के पन्नों में दफन कर दिया गया था।”
कश्मीर के सच को सामने लाने के लिए वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की प्रेरणा भी बहुत महत्वपूर्ण रही है। अनुपम खेर और अग्निहोत्री की टीम को प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री और बड़े नेताओं ने जिस प्रकार अपना समर्थन दिया उससे लगा कि वर्तमान राजनीति संवेदनशील है।
आज जब हमें कश्मीर के सच का पता चला है तो सारा देश कश्मीरी पंडितों के दर्द के साथ अपनी अनुभूतियां जोड़ रहा है। बड़ी गहराई से सारे देश में उस दर्द को अनुभव किया है जो अब तक छुपाया गया था । जिस समय यह घटना घटित हो रही थी उस समय के बारे में ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि संपूर्ण राजनीति ही उस समय सम्वेदनाशून्य हो गई थी।
उस समय हिंदुत्व के एक प्रमुख चेहरे के रूप में बाल ठाकरे इस सारी घटना के प्रति अपनी पूर्ण संवेदनाएं जोड़े हुए थे। फिल्म में एक दृश्य आता है जिसे देखकर हमें पता चलता है कि उस समय बाल ठाकरे कश्मीरी पंडितों की सहायता के लिए निसंकोच आगे आ गए थे। चाहे सारी व्यवस्था मौन साधे बैठी हो पर बाल ठाकरे ने उस समय साहस के साथ अपने कश्मीरी पंडितों के साथ खड़े होने में गौरव समझा था।
यह अलग बात है कि आज उन्हीं के पुत्र उद्धव ठाकरे धर्मनिरपेक्ष दोगले राजनीतिज्ञों के साथ गठबंधन करके महाराष्ट्र में सरकार चला रहे हैं । पिता-पुत्र में कितना अंतर हो सकता है ? – यह इन दोनों को देखकर स्पष्ट हो जाता है । पिता को स्वार्थ छू भी नहीं गया था, जबकि पुत्र सत्ता के स्वार्थ में अंधा हो गया । बाल ठाकरे जी के लोगों ने उस समय कश्मीरी पंडितों की भरपूर सहायता की थी । ठाकरे जी ने उन्हें आरक्षण दिलाने की व्यवस्था भी की थी । अपने ही देश में शरणार्थी बनने के लिए अभिशप्त हो गए कश्मीरी पंडितों की अन्न, औषधि आदि से जितनी सेवा की जा सकती थी उतनी बाल ठाकरे जी और उनके सहयोगियों ने की थी।
जिस समय कश्मीरी पंडितों के सामने वहां के आतंकवादी और स्थानीय मुस्लिम समाज उन्हें कश्मीर छोड़ने के लिए कह रहे थे और उनके सामने ‘इस्लाम कबूल करो, मारे जाओ या कश्मीर छोड़कर भाग जाओ’ – के तीन विकल्प रख रहा था, उस समय देश की राजनीति अपनी धर्मनिरपेक्षता का नहीं अपितु अपनी नपुंसकता का प्रदर्शन कर रही थी। यदि उस समय की राजनीति 14 वीं शताब्दी जैसे इन अत्याचारों के विरुद्ध उठ खड़ी होती तो बीसवीं शताब्दी का यह घोर तांडव नहीं होता।
1947 में जब शेख के हाथ में कश्मीर का प्रशासन आया तो काश्मीरी भाषा में कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दुओं को स्पष्ट
कहा था “या निकल ज़ाओ,या मुसलमान बन जाओ या मर जाओ “। शेख अब्दुल्ला के शासनकाल में चला ‘हिंदू भगाओ – हिन्दू मिटाओ’ का यह अभियान उसके बेटे फ़ारूख अब्दुल्लाह ने 1990 में कश्मीर घाटी में हिंदुओं का नरसंहार आरम्भ कराकर या कश्मीर घाटी से उनको निकाल कर पूरा कर दिया। एक साधारण से निर्धन शिक्षक के इतना शक्तिशाली हो जाने की सही कहानी यह है कि कश्मीर के महाराजा हरीसिंह ने 1930 के गोलमेज़ सम्मेलन में अंग्रेजों से भारत को स्वाधीनता प्रदान करने की अपील की थी। अंग्रेज़ सरकार की तबसे महाराजा पर कोप दृष्टि हो गई। शेख़ अब्दुल्ला एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाला शिक्षक था। उसने एक छात्र के साथ अनैतिक कार्य किया। इसलिये उसे महाराजा हरि सिंह के द्वारा सरकारी नौकरी से निकाल दिया गया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के सहयोग से शेख अब्दुल्ला निरंतर शक्तिशाली होता गया । एक समय ऐसा भी आया जब शेख अब्दुल्ला के समक्ष महाराजा हरिसिंह को झुकना पड़ा। उसने संविधानिक सुधारों के लिये ग्लासी कमीशन बैठाया तथा गिलगित का क्षेत्र साठ वर्षों के लिए पट्टे पर अंग्रेजों को दे दिया। इस प्रकार अंग्रेजों तथा उनके पिट्ठुओं का उद्देश्य पूरा हुआ। अंग्रेज़ को गिलगित मिल गया तथा शेख़ अब्दुल्ला को राजनैतिक मान्यता मिल गई।
जिसका उसे पूरा लाभ मिला। ब्रिटिश सरकार का दलाल कांग्रेस का कृपापात्र बन गया। नेहरू ने देश की आत्मा के साथ छल करते हुए उसे कांग्रेस की सरकार बनने पर काश्मीर का शासन दे दिया। जब नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मामले को भेज दिया व कश्मीर में जनमत संग्रह की बात हो गई तो शेख़ अब्दुल्ला ने नेहरू से कहा – मुझे काश्मीर की मुस्लिम जनता के बीच जाने से पहले कश्मीर के लिए कुछ विशेष अधिकार चाहिएं। नेहरू ने उसे संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर के पास भेज दिया।
डॉ अम्बेडकर ने संविधान में धारा 370 लगाने से स्पष्ट मना कर दिया और यह भी कह दिया कि इस संविधान के अंतर्गत किसी भी राज्य को विशेषाधिकार नहीं दिए जा सकते । ऐसा भारत विरोधी कार्य मै नही कर सकता। तब नेहरू ने अपने एक मन्त्री गोपाल स्वामी अयंगर के माध्यम से संविधान सभा में 370 रखवाने के लिये प्रयास किया। कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाली इस असंवैधानिक धारा 370 को लगवाने के लिए नेहरू ने उस समय कहा था कि यह धारा अस्थाई रूप से लगाई जा रही है । जब काश्मीर में जनमत संग्रह का काम हो जायेगा तो इसे समाप्त कर दिया जायेगा। इसलिये अस्थायी धारा के रूप में इसे सम्मिलित कर लिया जाय। इस प्रकार लोगों का और संविधान सभा का मूर्ख बनाकर नेहरू ने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह की प्रसन्नता के लिए इस धारा को संविधान में रखवा दिया।
अब शेख़ अब्दुल्ला के हाथों को मज़बूत करने के लिए नेहरू ने चुनाव आयोग का सहारा लिया। जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार जम्मू क्षेत्र को राज्य की 75 विधान सभा सीटों में 38 सीट मिलनी चाहिये थीं। उसे घटाकर 32 कर दिया व काश्मीर घाटी को 33 सीट मिलनी चाहिये थीं उन्हें 39 कर दिया।
अब नेहरू के लिए राज्य में शेख़ अब्दुल्ला को चुनाव जिताना एक चुनौती थी। उसी के लिए कार्य किया जाना आरंभ हुआ। कश्मीर घाटी में मुस्लिम लीग शक्तिशाली है व जम्मू क्षेत्र में प्रजा परिषद। इलेक्शन कमीशन ने नैशनल कॉन्फ़्रेन्स के अलावा मुस्लिम लीग व प्रजा परिषद व निर्दलियों के नामांकन अवैध घोषित कर दिये व शेख़ अब्दुल्ला की पार्टी को बिना निर्वाचन शत प्रतिशत सीटों पर विजयी बना दिया। 1949 में जब संयुक्त राष्ट्र में भाषण देकर शेख़ अब्दुल्ला लौट रहा था, उसने लन्दन में “डेली टेलिग्राफ” नाम के प्रमुख समाचार पत्र में कश्मीर घाटी को स्वतंत्र राज्य बनाने सम्बन्धी अपना विचार सार्वजनिक रूप से पहले ही व्यक्त किया।
इससे सरदार पटेल को हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। उन्होंने लौटते ही शेख़ अब्दुल्ला को दिल्ली बुलाया तथा उसे बताया कि यदि उसे स्वतंत्रता चाहिये तो भारत कश्मीर घाटी से अपनी सेनायें बुलाने को तैयार है। इससे वह हतप्रभ रह गया। जैसे ही भारतीय सेनायें वापस लौटती, पाकिस्तान घाटी पर बलात् अधिकार कर लेता और खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान की तरह उसको भी जेलों की हवा खानी पड़ती। सरदार पटेल की 1950 में मृत्यु के बाद वह फिर से खुलकर खेलने लगा। वह अमरिकी संरक्षकों तथा पाकिस्तान के सहयोग से काश्मीर को स्वतंत्र राज्य घोषित करने की योजना को शेख अंतिम रूप दे रहा था। शेख़ अब्दुल्ला को पदच्युत कर गिरफ़्तार कर लिया गया।
1975 में मीरकासिम के षड़यंत्र से इन्दिरा गाँधी ने शेख़ अब्दुल्ला को पुनः गद्दी पर बैठा दिया। 1982 में शेख़ अब्दुल्ला की मौत के बाद उसका बेटा फ़ारूख अब्दुल्ला गद्दी पर बैठा। इसके पहले फ़ारूख अब्दुल्ला जम्मू व काश्मीर लिबरेशन फ़्रंट का संस्थापक सदस्य था और अपनी विदेशी पत्नी के साथ ब्रिटिश नगरिकता ले चुका था। 1984 में कांग्रेस ने फ़ारूख अब्दुल्ला को हटाकर कांग्रेस के सहयोग से जी.एम .शाह को मुख्य मन्त्री बनाया तथा 1987 में कांग्रेस ने नैशनल कॉन्फ़्रेन्स के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और फ़ारूख अब्दुल्ला मुख्य मन्त्री बने। इस बार फ़ारूख अब्दुल्ला कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को निकालने के काम में लग गया। 70 आतंकवादियों को छोड़ा। ग्रामीण अंचल से सुरक्षा बलों को उठा लिया । एक ओर हिंदुओं का नरसंहार आरम्भ हुआ । दूसरी ओर हिन्दुओं से कहा गया कि “ या तो कश्मीर से निकल ज़ाओ या मुसलमान हो ज़ाओ या फिर मारे ज़ाओ।” वास्तव में इस प्रकार के नारों को सुनते – सुनते कश्मीर के पंडितों को सदियां बीत गई थीं। उसके लिए इस्लाम को मानने वाले लोग जैसे 14 वीं शताब्दी के आरंभ में थे, वैसे ही आज भी निकले। शेख अब्दुल्ला ने हिंदुओं के प्रति जिस घातक नीति का आरंभ किया था उसी को उसके बेटे फारूक अब्दुल्लाह ने अपने शासनकाल में जारी रखा। काश्मीर घाटी से हिन्दुओं का पलायन आरम्भ कराकर अपने पिता शेख़ अब्दुल्लह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मुख्यमन्त्री पद से 19 जनवरी 1990 त्याग पत्र देकर फ़ारूख अब्दुल्ला विदेश भाग गया।
आजादी से पहले शेख अब्दुल्लाह ने कश्मीर में ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन चलाया था, उस समय भी उसने इसी प्रकार आग लगाकर और हिंदुओं के विरुद्ध बड़े पैमाने पर दंगे करवाये थे । फिर उन दंगों से अपने आपको अलग कर कश्मीर छोड़कर भाग गया था। अपने पिता के इसी आचरण का इतिहास फारूक अब्दुल्ला ने 1990 में दोहराया । इस प्रकार हिंदुओं को कश्मीर से भगाने का कुसंस्कार अब्दुल्ला परिवार के खून में बसा हुआ है। वास्तव में यह परिवार देशद्रोही और खूनी आचरण वाला परिवार है। जिससे किसी प्रकार की देशभक्ति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इनके खूनी आचरण की जांच करवाकर ‘दा कश्मीर फाइल्स’ को पूरा कराया जाना समय की आवश्यकता है।
अब जब प्रधानमंत्री श्री मोदी ने कश्मीर की समस्या पर बहुत अधिक विजय प्राप्त कर ली है तब वहां पर हिंदुओं को पुनः बसाए जाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही वहां पर सेना के सेवानिवृत्त अधिकारियों को भी बसाया जाए। देश के हिंदू समाज के जो युवा अपने आपको देश सेवा के लिए स्वेच्छा से समर्पित कर कश्मीर में जाकर बसने की इच्छा व्यक्त करते हैं उन्हें भी वहां भेजा जाए। कुल मिलाकर वहां पर हिंदू को बहुसंख्यक बनाया जाए। तभी इस प्रांत को हम भारत का अभिन्न अंग बना पाएंगे। इस संदर्भ में आरएसएस प्रमुख श्री मोहन भागवत जी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि इस बार कश्मीर में हिंदुओं को इस प्रकार बसाया जाएगा कि भविष्य में उन्हें फिर से उजड़ना न पड़े।
देश के प्रत्येक नागरिक को कश्मीर के संबंध में एक सैनिक बनना पड़ेगा। सावरकर जी कहा करते थे कि ‘राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण’ किए जाने से ही देश की रक्षा संभव है। आज सावरकर जी के इस कथन का मर्म समझकर हिंदुओं के सैनीकीकरण की आवश्यकता है। हमारा प्रधानमंत्री श्री मोदी से विनम्र अनुरोध है कि वह सावरकर जी के इस चिंतन को साकार रूप दें।
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत