बोर्नियो, इण्डोनेशिया, मलेशिया, कोरिया, चम्पा, जावा, सुमात्रा, बाली और कम्बोडिया जैसे देशों में आर्य संस्कृति के पर्याप्त अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
इण्डोनेशिया में तो मुसलमानों के नाम अब तक संस्कृत में मौजूद हैं। ‘मेघावती सुकर्णपुत्री’ जो वहां की शासनाध्यक्ष रहीं हैं, के पिता का नाम सुकर्ण था जबकि माता का नाम ‘रत्ना’ था। इन्हीं डा. सुकर्ण के साथ पं. जवाहर लाल नेहरू एक बार अपने सम्मान में आयोजित कार्यक्रम के अंतर्गत वहां रामलीला देख रहे थे, जिस पर उन्होंने आश्चर्य से डा. ‘सुकर्ण’ से पूछ लिया कि आप मुस्लिम होकर रामलीला क्यों करते हैं?
डा. सुकर्ण का उत्तर बड़ा ही महत्वपूर्ण था, देखिये, उन्होंने क्या कहा-‘नेहरू जी! हमने मजहब बदला है, पूर्वज नही’ भारत के धर्मनिरपेक्षी शासक नेहरू के लिए यह उत्तर बहुत ही शिक्षाप्रद था। क्योंकि वह व्यक्ति उन विद्वानों का अगुवा रहा है जिन्होंने भारत में यह बड़ी अटपटी अवधारणा विकसित की है या होने दी है कि भारतीय मुस्लिमों के पूर्वज मोहम्मद साहब, गजनी, गोरी, बाबर, अकबर और औरंगजेब हैं।
यदि भारतीय मुसलमान यह तथ्य समझ लें कि ‘मजहब बदल सकता है पूर्वज नही’ तो इस राष्ट्र की बहुत सी समस्याएं तो चुटकियों में हल हो जाएंगी। परंतु नेहरूवादी मानसिकता के लोगों ने दुर्भाग्य से उन्हें ऐसा समझने नही दिया है।
वोट के सौदागर और धर्म के ठेकेदार बीच में आ गये और राष्ट्र का सौदा करने लग गये। सत्य और तथ्य दोनों को सौदागरी और ठेकेदारी की दुकानदारी पर नीलाम कर दिया गया इतिहास साक्षी है, देखिये इन्होंने क्या किया-
-इतिहास का कत्ल कर दिया।
-स्वाभिमान का खून कर दिया।
-संस्कृति का सौदा कर दिया।
-मूल्यों को पैरों से रौंद दिया।
-सरदार बल्लभ भाई पटेल के अरमानों और राष्ट्रहित में किये गये वंदनीय प्रयासों पर पानी फेर दिया गया।
जब यहां के मुसलमान के पूर्वज अलग बना दिये गये या मान लिये गये, और कश्मीर में 370 धारा लागू कर उस रियासत को भारत में रखकर भी भारत से अलग मान लिया गया तो आज उसका परिणाम सामने क्या आ रहा है? यही कि वहां का मुसलमान कश्मीर के विषय में सोचने लगा है कि यह भारत का नही है। यहां से हिंदू को निकाल देने पर एक दिन आएगा कि जब हम स्वतंत्र कश्मीर अर्थात नया पाकिस्तान बना लेंगे।
कश्मीर में साम्प्रदायिकता का दानव खेल खेला जा रहा है। मानवता तो वहां से एक अवधि बीत गयी जब अपने बोरिया बिस्तर के साथ निकल कर अज्ञात रास्ते से कहीं चली गयी थी।
आज आतंकवाद का भूत वहां नंगा नाच रहा है। क्यों? क्योंकि उन्हें समझा दिया गया है कि भारत तो उन भारतीयों का है, जो राम, कृष्ण, शिवाजी और राणाप्रताप की संतानें हैं। इसे हड़प कर छीनना है उनको जो गजनी, गौरी और बाबर की संतानें हैं। लडऩे वाले उग्रवादी हैं। उन्हें भ्रमित करने वाले उग्रवादी हैं, जो राष्ट्रद्रोही और राष्ट्र के हत्यारे हैं।
उन्हें इतिहास का सच बताना चाहिए था। जिन्होंने सत्य को छिपाया वह भी राष्ट्रद्रोही हंै। इन राष्ट्रद्रोहियों के लिए कानून बनाकर इन्हें सार्वजनिक स्थान पर फांसी पर लटकाना चाहिए।
ऐसे लोगों के प्रति सरदार बल्लभ भाई पटेल अपने अंतिम समय में उदास रहने लगे थे। उन्हें अहसास होने लगा था कि ये लोग मेरे जाने के बाद मेरे उद्यम और परिश्रम पर पानी फेर देंगे।
इस उदासी का कारण उनके निजी सचिव श्री वी.शंकर ने उनसे पूछा था। तो उन्होंने बड़े ही दुखी मन से कहा था-
‘‘शंकर! मुझे लगता है कि मेरे जीवन का अंतकाल आ रहा है। मैं सोचता हूं कि काम मैंने अपने तीन साल के शासनकाल में किया है, वह स्थिर रहेगा या कोई उस पर पानी फेर देगा? यही मेरी उदासी का कारण है।
शंकर! तुम इस देश की जनता को नही जानते।
मैं भलीभांति जानता हूं कि इस देश की जनता चढ़ते सूरज की पूजा करती है। यदि मेरा स्थान मुझसे उल्टा काम करने वालों के हाथ में आ गया, तो जनता उनके गले में भी माला डालेगी और वाह-वाह करेगी।’’उस इतिहास-पुरूष की वह उक्ति आज अक्षरश: सत्य सिद्घ हुई है। जिन्होंने धर्मांतरण कर लिया था उन्होंने पूर्वजों का भी अंतरण कर लिया है। फलस्वरूप आज राष्ट्र की एकता और अखण्डता को अभूतपूर्व खतरा उत्पन्न हो गया है।
आज कितने लोगों के दिल में इस धर्मांतरण और मर्मांतरण से उपजी विखण्डन की प्रवृत्ति के प्रति टीस है, आक्रोश है, क्षोभ है और पीड़ा है। राजनीति की वैश्या के कोठे पर जाकर सब कुछ भुला दिया गया है। इससे बड़ा राष्ट्रद्रोह और क्या हो सकता है?
सच पर भी ताले लग गये हैं, अपनी राय को उद्घाटित करने की क्षमता और सामथ्र्य किसी में है? श्री धर्मेन्द्र नाथ अलिन्द जी की ये पंक्तियां कितनी सार्थक हैं-
अभी न संभला भोले राही टेर रहा इतिहास रे।
शमशानों में भस्म हुए तेरे कितने विश्वास रे।।
मौहम्मद मुफ्ती इलियास के हृदय में सच ने कुछ कुरेदना आरंभ किया, कुरेदते-कुरेदते उसे एक सच से साक्षात्कार हुआ और वह हृदय से बोल पड़ा-‘मैं हिंदू हूं।’ इस सच ने कुछ लोगों के लिए राजनीति करने का एक हथियार थमा दिया। वे कहने लगे कि इस मुफ्ती को सजा मिलनी चाहिए। ……ये होना चाहिए….. वह होना चाहिए।
मुफ्ती इलियास ने उस सत्य को समझने और बताने का प्रयास किया है, जिसे दबाकर मिटाने का षडय़ंत्र इस देश में पिछले डेढ़ सौ दो सौ वर्षों से चल रहा था। जब यूरोपियन जातियां यहां पहुंची तो उन्होंने इस देश को ईसाईयत और पाश्चात्य सभ्यता में रंगने का प्रयास किया। इस्लाम यहां आया तो तलवार के बल पर उसने अपनी संख्या बढ़ाई। ईसाईयत के प्रचार में तीन साधनों को प्रमुखता दी गयी-ईसाई शिक्षणालय, प्रचार का संगठन और प्रलोभन इन तीनों साधनों के बल पर इन लोगों ने भारत से भारत की पहचान छीनने का गंभीर प्रयास किया। इसे अक्षम्य राष्ट्रघाती अपराध भी कहा जा सकता है। इन लोगों ने यहां सुदूर क्षेत्रों में अपनी मिशनरियां स्थापित कीं और भारत को नष्ट करने का एक सुनियोजित अभियान आरंभ किया।
इस अभियान ने भारत के जन जीवन पर किस प्रकार का प्रभाव डाला? यह भी समझना आवश्यक है। सन 1800 में लार्ड बैलेजली ने फोर्ट बिलियम में जो कॉलेज खोला था उसके विषय में क्षितीश वेदालंकार लिखते हैं कि उसमें यह शर्त रखी गयी थी कि वहां कोई ऐसा व्यक्ति प्राध्यापक नही बन सकता जो ब्रिटिश सम्राट के प्रति वफादारी की शपथ न ले और ईसाईयत के विरोध में निजी या सार्वजनिक रूप में कभी कोई वाक्य अपने मुख से निकाले। इस कॉलेज के सबसे बड़े पद पर एक पादरी को रखा गया था जिसका काम यह था कि भारत सरकार की सेवा में जाने के लिए फोर्ट विलियम में आने वाले लोगों को ईसाइयत की नैतिकता सिखावे। इतना ही नही, 6 फरवरी 1800 को भारत का गर्वनर जनरल मुख्य न्यायाधीध और कमाण्डर इन चीफ तथा अन्य उच्च पदाधिकारी, पैदल कलकत्ते के नये चर्च में गये थे और उन्होंने मैसूर पर अंग्रेजों की विजय के लिए परमात्मा को धन्यवाद दिया था और सारे राष्ट्र को धन्यवाद दिवस के रूप में वह दिवस मनाने का आदेश दिया था। लॉर्ड वैल्जली ने ही पहले सरकार की ओर से बाइबल का बंगाली, हिंदुस्तानी, मराठी, तमिल, परशियन और चीनी भाषा में अनुवाद के लिए सरकारी सहायता दी थी। श्रीरामपुर में 1818 में जो कालेज खोला गया था, उसका उद्देश्य ही लोगों केा ईसाई बनाना था। 1818 में मिशन प्रैस ने 70,000 टै्रक्ट और पैम्फ लैट छापकर बांटे थे। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मिशनरियों केे आंदोलन के उत्तर में उस समय के कुछ ब्राह्मणों ने मिलकर एक ब्राह्मणिकल मैगजीन भी निकाली थी। ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड केनिंग को गवर्नर जनरल बनाकर हिंदुस्तान भेजते समय साफ साफ कह दिया था कि ब्रिटिश सरकार तुरंत न सही, लेकिन अंतिम रूप से ऐसा विश्वास करती है कि भारतवासियों का धर्मांतरण हो जाएगा। 1827 में एक ऐक्ट बनाया गया था जिसमें यह व्यवस्था की गयी थी कि जो हिंदू ईसाई धर्म ग्रहण कर लेगा उसके किसी केस का फैसला हिंदू या मुसलमान न्यायाधीश नही कर सकता।
हमारे इतिहास को मिटाने के लिए केवल थोड़े से काल में कितना घातक षडय़ंत्र रचा गया, उसकी वानगी के रूप में ये उदाहरण पर्याप्त है। जबकि भारत में इस्लाम का प्रवेश 712 से यदि माना जाए तो 1947 तक लंबे काल खण्ड में उस समय हमारी पहचान को मिटाने के लिए क्या क्या षडय़ंत्र रचे गये थे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इन सारे षडय़ंत्रों की तह के नीचे ‘छिपे हिंदू’ को ढूंढक़र लाना और उसे सही सही रूप में अपनी स्वीकृति प्रदान करना सचमुच हर किसी के वश की बात नही है। वीर सावरकर ने इस पहचान को समझने के लिए केवल दो बातें अनिवार्य शर्त के रूप में स्थापित की थीं कि एक सच्चे हिंदू की पहचान केवल यह हो सकता है कि वह स्वभावत: और स्वेच्छा से इस देश को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता हो, इस मान्यता में कहीं उसका निजी मजहब या सम्प्रदाय आड़े नही आता। वह चाहे जैसे अपनी पूजा पाठ करे, करता रहे, इससे शेष भारत के समाज को कोई आपत्ति नही होगी। हम हिंदू समाज के भीतर भी विभिन्न संप्रदायों को देखते हैं जिन्हें एक दूसरे की पूजा पद्घति से कोई आपत्ति नही होती। ऐसा समाज ही वास्तविक धर्मनिरपेक्ष समाज होता है जिसके केवल हिंदुत्व के माध्यम से ही इस देश में स्थापित किया जा सकता है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि मुस्लिम आबादी जिन-जिन जिलों में अधिक हो जाती है वहां से हिंदू शीघ्र ही पलायन करने लगता है, इसका कारण केवल ये है कि ऐसे स्थानों से हिंदुओं को अपनी पूजा पद्घति अपनाने तक से प्रतिबंधित किया जाता है। जिन लोगों की ऐसी मान्यता है कि हिंदुओं को उत्पीडि़त करो और अपनी साम्प्रदायिक राजनीति के आधार पर आग लगाये रखो वही लोग मुफ्ती इलियास का विरोध कर रहे हैं। मुफ्ती इलियास ने भारत के हर व्यक्ति को हिंदू कहकर उसकी पहचान सुनिश्चित की है, न कि किसी की पहचान को छीना है। इसी बात को समझ लिया जाए तो देश में वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हो सकती हैं।