अशोक मधुप
वैसे भाजपा रही हो या केंद्र की कांग्रेस की मजबूत सरकार, कभी ये प्रयास नहीं हुआ कि चुनाव सर्वसम्मत हो। कभी प्रयास नहीं हुआ कि इस चुनाव में विपक्ष को भी विश्वास में लिया जाए। इसी का परिणाम यह है कि आज तक राष्ट्रपति का निर्वाचन सर्व सम्मत नहीं हुआ।
देश के सांसद और विधायक 18 जुलाई को देश के 15वें राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी का चुनाव करेंगे। वोटों की गिनती 21 जुलाई को होगी। नया राष्ट्रपति 25 जुलाई तक राष्ट्रपति भवन में होगा। सत्ता पक्ष के प्रत्याशी के सामने विपक्ष का उम्मीदवार होने के कारण मतदान होगा। राष्ट्र के सबसे बड़े पद के लिए निर्विरोध चुनाव कराने की कोशिश क्यों नहीं होती? क्यों केंद्र की सत्ताधारी पार्टी राष्ट्रपति के निर्विरोध चयन का प्रयास नहीं करतीॽ
भारत में राष्ट्रपति पद के लिए पांच साल में चुनाव होता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही अकेले ऐसे व्यक्ति रहे, जिन्हें दो बार राष्ट्रपति रहने का सौभाग्य मिला। प्रतिभा पाटिल को देश की पहली महिला राष्ट्रपति चुने जाने का गौरव प्राप्त है। भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए गठबंधन के सहयोगी दलों के साथ व्यापक विचार विमर्श किया। उसके बाद पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना तय हुआ।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस प्रयास में रहीं कि चुनाव में विपक्ष का एक उम्मीदवार हो। कई नाम आए। जिनके नाम आए, उनके द्वारा मना करने के बाद यशवंत सिन्हा विपक्ष के उम्मीदवार बनने को तैयार हो गए। उनकी सहमति पर गठबंधन में शामिल दलों ने उनकी उम्मीदवारी पर मुहर लगा दी। हालांकि इस गठबंधन में शामिल एक−दो दलों ने भी भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन के प्रत्याशी को वोट देने की घोषणा की। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी भाजपा गठबंधन प्रत्याशी को समर्थन की घोषणा की। वह विपक्ष द्वारा बनाए गठबंधन में शामिल नहीं रहीं। इससे पहले शरद पवार और फारूक अब्दुल्ला ने खुद को विपक्ष के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों की सूची से बाहर कर लिया था।
इस चुनाव की खास बात यह है कि यदि विपक्ष एकजुट हो जाए तो केंद्र के सत्तारुढ़ भाजपा गठबंधन का प्रत्याशी विजयी नहीं हो सकता, किंतु अपने-अपने स्वार्थ और हित के कारण यह एकजुट नहीं है। वैसे भाजपा रही हो या केंद्र की कांग्रेस की मजबूत सरकार, कभी ये प्रयास नहीं हुआ कि चुनाव सर्वसम्मत हो। कभी प्रयास नहीं हुआ कि इस चुनाव में विपक्ष को भी विश्वास में लिया जाए। इसी का परिणाम यह है कि आज तक राष्ट्रपति का निर्वाचन सर्व सम्मत नहीं हुआ। नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति बने पर तकनीकि कारणों से। उनके सामने खड़े सभी प्रत्याशियो के नामांकन चुनाव अधिकारी द्वा निरस्त कर दिए गए थे। इसके बाद वह निर्विरोध चुने गए।
आज भी केंद्र की सरकार और विपक्ष में अच्छे संबध नहीं हैं। फिर भी प्रयास तो होना ही चाहिए था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं अपने स्तर से प्रयास करते तो ज्यादा बेहतर रहता। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार महत्वपूर्ण मुद्दों पर विपक्ष के साथ मीटिंग की। चीन से तनातनी का मामला हो या कोरोना महामारी से बचाव का, इसमें राहुल गांधी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रवैया सहयोगात्मक नहीं रहा। विपक्ष के कई नेताओं ने प्रधानमंत्री पर गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी की। वे यह भी भूल गए कि प्रधानमंत्री किसी पार्टी का नहीं देश का होता है। प्रधानमंत्री को सबको सम्मान देना चाहिए।
होना यह चाहिए कि प्रतिस्पर्धा और विरोध तब तक होना चाहिए जब तक चुनाव होता है। चुनाव के बाद चुन कर आई सरकार को उसके कार्यकाल के पांच साल पूरे होने तक सहयोग करना चाहिए। उसकी जनविरोधी नीति की आलोचना होनी चाहिए। स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए, जबकि अब विरोध के लिए केंद्र और प्रदेश की चुनी सरकार का विरोध हो रहा है।
सही मायने में एक तरह से विरोध सरकार का नहीं मतदाता का है, जिसने सरकार बनाई। अपमान भी सरकार बनाने वाले मतदाता का है। चौधरी अजित सिंह मंच से ही कहा करते थे, राजनीति में न कोई किसी का स्थायी दुशमन होता है, न ही दोस्त। समय के साथ गठबंधन बनते और टूटते रहते हैं। इसलिए नाराजगी भी ऐसी ही होनी चाहिए। बुजुर्ग कहते आए हैं कि दुश्मनी ऐसी करो कि कभी आमने−सामने बैठना पड़े तो अपने पहले कहे पर शर्मिंदगी न उठानी पड़े। ये बात आज के राजनेता नहीं समझते। जनता की भी याद्दाश्त कमजोर है। वह नेताओं की कही बातें, अपनमानजनक टिप्पणी को याद नहीं रखती।