उस भयानक स्वरूप ने यूनान, मिश्र और रोम सहित बेबीलीनिया की संस्कृतियों को लील लिया। इसी प्रकार भारत, चीन और रूस जैसे राष्ट्रों की संस्कृतियों को बुरी तरह प्रभावित किया गया। आतंकवाद के इसी भयानक स्वरूप ने विश्व को खेमों में विभाजित किया। राष्ट्रों को पराधीन किया। कुछ लोग शासक (शोषक) बन गये तो कुछ शासित (शोषित) बन गये। ‘राजधर्म’ निजी महत्वाकांक्षाओं और अहम भाव की सरणी में ऐसे बह गया जैसे मानो था ही नही। ‘शासक’ लुटेेरे हो गये और लुटेरे शासक हो गये। फलस्वरूप उपनिवेशवाद का क्रूरतम काल आ गया। जिसकी परिणति हमें दो विश्व युद्घों के रूप में देखने को मिली।
विश्व के राष्ट्रों और शासकों ने अपनी मूर्खता को समझा। उन्हें इस बात की अनुभूति हुई कि व्यक्ति और राष्ट्र की स्वतंत्रता के मौथ्लक अधिकार का हनन जब किया जाता है तो उसके कितने घातक परिणाम सामने आते हैं? इसलिए सबने मिलकर यूएनओ का गठन किया और एक दूसरे की सम्प्रभुता और स्वतंत्रता का सम्मान करने का वचन दिया।
वे करोड़ों लोग जो दो विश्वयुद्घों में मारे गये थे, उनकी आत्मा की मौन पुकार को सुनकर जो सराहनीय कार्य हुए उससे लगा कि संभवत: मानवता विजयी हो गयी है। एक दूसरे राष्ट्र को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति और मानवीय स्वभाव में छिपी हुई दानवी प्रवृत्ति दोनों पर प्रतिबंध लग गया है। युद्घ अब संभवत: बीते दिनों की बात हो गयी है। लेकिन पिछले वर्षों में जिस प्रकार आतंकवाद की समस्या से विश्व को जूझना पड़ा है अथवा जूझना पड़ रहा है उसने एक बार पुन: सिद्घ कर दिया है कि मानव का दानवपन उसके भीतर आज भी उपस्थित है। वह उसका सनातन शत्रु है, जो उसका पीछा कर रहा है। संभवत: तब तक करता भी रहेगा जब तक कि प्रत्येक मानव अपने मानव धर्म में प्रतिष्ठित न हो जाए। आतंकवाद का जहां तक भारत से संबंध है तो यहां के वर्तमान राजनीतिज्ञों ने इस देश की जनता को वास्तविकता से परिचित न होने देने का पूरा प्रबंध किया हुआ है। इनके रहते हुए आप आतंकवाद की वास्तविक समस्या से न तो अवगत हो सकेंगे और न ही मुक्त हो सकेंगे, क्योंकि ये आपको बताएंगे, कुछ रटे रटाये वाक्य यथा-
‘‘भारत में आतंकवाद की वास्तविक समस्या का मूल कारण अशिक्षा और बेरोजगारी है।’’
इस वाक्य को सुनते-सुनते लोगों के कान तक पक चुके हैं। किंतु राजनीतिज्ञ नाम का यह तोता हर प्रकार के अवसरों पर विचार गोष्ठियों में संसद में, सभाओं में इसी रट को लगाये रहता है। आप सुनकर चाहे उसे गाली दें अथवा कुंठित हों किंतु उसे सुनाने के लिए आपको सुनाना है, और गाड़ी में बैठकर फुर्र हो जाना है। पाकिस्तान का जन्म भी इस मूर्खता का परिणाम था कि हमने इतिहास के तथ्यों को और मजहब की घृणा की परिणति की स्वाभाविकता को समझकर भी नही समझा था। आज पुन: वही हो रहा है क्योंकि गांधीवाद तो आज भी जीवित है। जो हमें यही बताता है कि सत्य को सत्य मत बोलो, मत समझो, मत जानो। गांधी के तीनों बंदर यही कहते थे और कह रहे हैं, और उस समय तक कहते रहेंगे जिस समय तक यह गांधीवाद इस देश में जीवित रहेगा।
इन नेताओं को कौन समझाये कि भारत में आतंकवाद की समस्या का मूल कारण अगर ‘अशिक्षा’ और बेरोजगारी होती तो भारत में क्रांति होती। सारे भूखे और बेरोजगार अशिक्षित संसद की ओर कूच करते, हमारे राजभवनों को आग लगाते, बैंक खातों में जमा धनराशि का हिसाब लेते और अपने अधिकारों का सम्मान करने वाले लोगों को अपना शासक नियुक्त कर देते। किंतु भारत में ऐसा संभव नही। क्योंकि ये लोग परंपरागत रूप से राजा को भगवान मानने वाले लोग हैं।
ये सभी आध्यात्मिक लोग हैं जो अपने भगवान के विरूद्घ विद्रोह करना जानते ही नही। इसलिए इनका जीवन और वर्तमान शासन दोनों यहां राम नाम पर चल रहे हैं। भारत के इन परंपरावादी लोगों ने एकसम्राट का युग भी देखा है और छोटे छोटे रजवाड़ों के रूप में सैकड़ों राजाओं का काल भी देखा है। स्वतंत्रता से पूर्व यहां 563 देशी रियासतें थीं जिन्हें इस जनता ने सभी को देवता समझकर शीश झुकाया है। इसलिए यह इन आधुनिक राजाओं को भी शीश ही झुका रही है, चाहे ये स्वयं ही आतंकवादी क्यों न हो जायें।
आतंकवाद का यथार्थ-वस्तुत: आतंकवाद अशिक्षा और बेरोजगारी से जुड़ी हुई समस्या नही है बल्कि मानव के भीतर छुपी हुई उस कलुषित भावना की प्रतिनिधि मानवी दुष्प्रवृत्ति है जो वर्ग, जाति और सम्प्रदाय जैसी संकीर्ण मानसिकता से जनम लेती है। जनसाधारण में अशिक्षित लोगों को आप देखें वह अपनी दो जून की रोटी के जुगाड़ में तेली के बैल की भांति अपनी गृहस्थी की छोटी सी दुनिया में ही चक्कर लगाते लगाते दम तोड़ देते हैं।
आतंकवाद के विषय में यह एक सुख्यिात तथ्य है कि झोंपडिय़ों में बैठकर ऊंची अट्टालिकाएं विध्वंस करने की योजनाएं कभी नही बना करती हैं। हां ऊंची अट्टालिकाओं में बैठकर झोंपड़ी में आग लगाने की योजनाएं अवश्व बना करती हैं। लाशों की गिनती पर राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ इसी चरित्र के प्रतिनिधि पुरूष हैं।
इतिहास में जितने क्रूर, अत्याचारी शासक हुए हैं उन्होंने झोंपड़ी में आग जलाई, किसी एक संप्रदाय पर अत्याचारों की एक ऐसी क्रूर और भयानक आंधी चलाई कि आज भी उधर देखने मात्र से ही मर्मान्तक पीड़ा अनुभव होती है। इतिहास की कब्र में दफन ये शासक न तो अशिक्षित और बेरोजगार थे और न आज ही इनके प्रतिनिधि अशिक्षित और बेरोजगार हैं।
कश्मीरी पंडितों पर कहर : कश्मीर में एक वर्ग और संप्रदाय के लोगों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। उनकी संपत्ति पर बलात नियंत्रण किया जा रहा है। पूर्वोत्तर भारत में ईसाईयत की आग से हिंदुत्व के वन को समाप्त किया जा रहा है। जलाया जा रहा है,पंजाब आतंकवाद की मर्मभेदी पीड़ा से गुजरा है, देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में राष्ट्र की विघटनकारी शक्तियां सक्रिय हैं। इन सबके संगठन हैं और उन संगठनों के इनके अपने संरक्षक हैं। इन सबके तार विदेशों से हिल रहे हैं। वहां से प्रशिक्षण मिल रहा है, हथियार मिल रहे हैं। कौन हैं ये संगठन जो हथियार दे रहे हैं? क्या ये सभी अशिक्षित और बेरोजगार हैं?
आतंक एक रणनीति : इनकी योजनाएं, इनकी सोच, कार्य को करने की रणनीति क्या अशिक्षा की ओर हमारा तनिक सा भी ध्यान आकृष्ट करती है? कदापि नही। क्या अमेरिका में जाकर-वल्र्ड टे्रड सेंटर पर सफलतापूर्वक हमला एक अशिक्षित व्यक्ति कर सकता था?
इन्हीं प्रश्नों को यदि हम विस्तार दें और अपने देश की संसद जम्मू कश्मीर की विधानसभा और अक्षरधाम मंदिर पर हमले की लंबी श्रंखला को इसके साथ जोडक़र देखें तो स्पष्ट होगा कि इन सबके पीछे जो मस्तिष्क कार्य कर रहा था वह अशिक्षित का मस्तिष्क तो कदापि नही था।
पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन और वे सभी राष्ट्र अथवा संगठन जो भारत से या तो शत्रुता रखते हैं अथवा ईष्र्या करते हैं, क्या अशिक्षित और बेरोजगार हैं? क्या वे लोग जो भारत को पुन: इस्लामिक राष्ट्र बनाने के लिए सक्रिय हैं और यहां एक सुनियोजित रणनीति के अंतर्गत आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं वे अशिक्षित और बेरोजगार हैं? निस्संदेह नही। उनकी योजना उनकी सोच, उनका सपना और उनकी कार्यपद्घति सभी हमें यही बता रहे हैं कि वे बहुत ऊंचे मस्तिष्क से कार्य कर रहे हैं।
अत: न वे अशिक्षित हैं और न ही बेरोजगार हैं। यदि अशिक्षा और बेरोजगारी आतंकवाद के जनक होते तो पंजाब इसकी आग में न झुलस सकता है। क्योंकि वहां की आर्थिक समृद्घि से सभी परिचित हैं। दूसरी बात यह है कि अशिक्षा और बेरोजगारी देश की सरकार के प्रति क्षोभ प्रकट करने के कारण बन सकते हैं किंतु राष्ट्र के विघटन के कारण कभी नही बन सकते। इनकी मार झेलने वाली जनता अपने विलासी और अकर्मण्य शासक वर्ग के विरूद्घ विद्रोह कर सकती है किंतु राष्ट्र का विघटन कदापित नही करा सकती। सन 1947 ई. में देश का जो ‘विभाजन’ हुआ वह मजहबी आधार पर होने वाला विभाजन था। यह भावनाओं की बाढ़ थी जिसे साम्प्रदायिकता के गंदे नालों ने पूरे उफान पर ला दिया था। ऐसा नही था कि इस बाढ़ का नेतृत्व भी शिक्षितों के हाथ था और राष्ट्र विघटन के प्रबल समर्थक भी वही थे। यदि शिक्षा राष्ट्र के अखंडित रखने में सहायक होती तो जिन्नाह और उसके सभी समर्थक सदा भारत में रहने के लिए ही कार्य करते। किंतु हमने देख लिया कि शिक्षा भी जब साम्प्रदायिक हो जाती है तो वह शांत तालाब में भी आग लगा देती है। आज भारत में जहां-जहां अलगाववाद है, वहां-वहां देख लिया जाए तो आपको ज्ञात होगा कि वहां की शिक्षा अलगाववादी है, साम्प्रदायिक है। जो राष्ट्रीय एकता का नही अपितु राष्ट्र के विघटन का पाठ पढ़ाती है।