वाणी कभी औषध बने, कभी करे है घाव।

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जब व्यक्ति का उत्थान-पतन सन्निकट होता है, तो वाणी का प्रभाव तदनुसार घटता-बढ़ता रहता है:-

वाणी कभी औषध बने,
कभी करे है घाव।
घटता-बढ़ता चाँद सा,
वाणी का प्रभाव॥1760॥

वाणी ऐसी बोलिये,
जो दिल में देय उतार।
ऐसी कभी न बोलिये,
जो दिल में दे उतार॥1761॥

वाणी में शुद्धि नहीं,
बिगड़ जाय व्यवहार।
आकर्षण रहता नहीं,
मान ना दे संसार॥1762॥

कड़वा बोल बोलकै,
मत दे किसी को पोड़।
कड़वा बोल ऐसे चुभै,
जैसे हिये में तीर॥1763॥

वाणी के उद्वेग से,
घटे मनुष्य का मान।
उद्वेगों को त्याग दें,
जो चाहे सम्मान॥1764॥

संसार के महान् कार्य महान् आत्माएं किया करती हैं, आसुरी आत्माएं नहीं। वे भूसुर होते हैं अर्थात् पृथ्वी के देवता होते हैं। उनके जन्म और कर्म से इतिहास के पन्ने और तिथियां गौरवान्वित होती हैं:-

अन्न-औषधि में रस भरे,
शीतल शुभ्र शशाँक ।
महापुरुष के जन्म से,
शोभित होय दिनाँक॥1765॥

आनन्द माया (प्रकृति,संसार) में नहीं अपितु मायाधीश के चरणों में है:-

आनन्द परमानन्द में,
मत माया में ढूंढ।
ध्यान लगा उस ब्रह्य से,
क्यों बनता है मूढ़॥1766॥

मत समझै अहंकार को,
यह तेरा अस्तित्व।
लौटो आत्मस्वरूप में,
दिव्य हो व्यक्तित्व॥1767॥

रक्षक प्रेरक पूषणा,
और है प्राणधार।
‘तत्वमसि’ कहा वेद ने,
तू सृष्टि का सार॥1768॥

मंत्रोच्चार करता रहा,
बदला नहीं स्वभाव।
ये तो आत्मप्रवंचना,
संचित कर सद् भाव॥1769॥

मंत्रों के अनुकूल भावना,
यदि चित्त में होय।
चला जाय बैकुण्ठ को,
भव से मुक्ति होय॥1770॥

जिनका कोई सानी नहीं:-

संत-मिलन सा सुख नहीं,
दरिद्रता जैसी पीड़।
भक्ति-भलाई सा धन नहीं,
बाकी मिथ्या भीड़॥1771॥

अर्जुन सा योद्धा नहीं,
कर्ण के जैसा दान।
मीरा सी भक्ति नहीं,
श्रवण सी संतान॥1772॥

धन से पावै धन्यता,
बिरला कोई इंसान।
भामाशाह ने देश-हित,
किया सभी कुछ दान॥1773॥

कचरा खोपड़ी पेट का,
करे बहुत ही तंग।
एक बढ़ावै रोग को,
एक करावै जंग॥1774॥

भरोसा जिस क्षण टूटता,
होती नहीं आवाज।
चटकै मन का आइना,
झूठे लगें अल्फाज॥1775॥

भरोसा ही संसार में,
सब रिश्तो का मूल।
जो इसकी रक्षा करें,
बनता वही अमूल॥1776॥

भरोसा भूषण मनुष्य का,
मोती जैसी आब।
भरोसे का भाजन बने,
तो नर होता नायाब॥1778॥

खुशबू खुशी को बांट ले,
बदबू बुराई को रोक।
त्राण होय इहि लोक का,
सिद्ध होय परलोक॥1779॥

दिव्य गुणों के कारणै,
आत्मा हो बलवान।
बलों में बल है आत्मबल,
व्यक्ति होय महान् ॥1780॥
क्रमशः

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