आम आदमी पार्टी में चल रहे दंगल से दिल्ली ही नहीं, देश की प्रबुद्ध जनता भी चिंतित है। लोकसभा के चुनावों ने देश की सबसे पुरानी और सबसे महान पार्टी कांग्रेस को पायदान पर बिठा दिया था और दिल्ली के विधानसभा चुनाव ने सारे देश को यह संकेत दे दिया था कि मोदी से देश की जनता का मोह-भंग शुरु हो गया है। ऐसे निराशा के वातावरण में आम आदमी पार्टी आशा की एक किरण बनकर उभरी थी। हालांकि दिल्ली कोई उ.प्र. या म.प्र. की तरह बड़ा प्रांत नहीं है और इसका मुख्यमंत्री महापौर के बराबर ही होता है लेकिन 70 में से 67 सीटों ने ‘आप’ को एक ऐसी पार्टी की तरह प्रस्तुत किया था, जो बेदाग है, नई है, दृढ़संकल्पी है और जिसमें अनंत संभावनाएं हैं। अनंत संभावना की इस आशा को मोदी के ताजा आचरण ने पहले से भी अधिक बलवान बना दिया था। लोगों को दिल्ली में भाजपा की हार के बाद ऐसा लगा था कि मोदी का अहंकार कुछ नरम पड़ेगा और केंद्र सरकार की फिसली हुई गाड़ी पटरी पर आ जाएगी लेकिन मोदी द्वारा किए जा रहे नेतृत्व के अभिनय ने अरविंद केजरीवाल की छवि को चमका दिया था।
लेकिन केजरीवाल ने अभी सिर मुंडाया ही था कि ओले पड़ना शुरु हो गए। उनकी पार्टी के दो वरिष्ठ साथियों को कार्यसमिति से उन्हें निकालना पड़ा। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि जिन दो सदस्यों को नीचे खिसकाया गया है, उनके हटाए जाने से ‘आप’ का कोई खास नुकसान नहीं होनेवाला है, क्योंकि आम वोटरों के लिए अरविंद के मुकाबले वे लोग पासंग भर भी नहीं है। हां, अखबार और टीवी चैनलों का बहुत फायदा हो रहा है। जो मुद्दे इन वरिष्ठ साथियों ने उठाए हैं, वे बिल्कुल जायज हैं। उनका संतोषजनक समाधान होना चाहिए लेकिन असली सवाल यह है कि इन सब मुद्दो को क्या पार्टी के अंदर बैठकर नहीं सुलझाया जा सकता था। हर पार्टी में इनसे बड़े संकट आते रहते हैं और उनका हल निकलता रहता है लेकिन ‘आप’ की दिक्कत यह है कि इस पार्टी के सभी ‘नेता’ नौसिखिए हैं। अनुभवहीन है। उन्हें राजनीति करना ही नहीं आती। वे सब जोर-आजमाइश में डूबे हुए हैं। वे तो ‘एनजीओबाज़’ हैं और संयोगवश आंदोलनकारी हैं। शंका यह भी है कि अपनी तथाकथित आयुगत वरिष्ठता के आधार पर ये असंतुष्ट लोग राज्यसभा की तीन सीटों (दिल्ली की) पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। अरविंद ने इन वरिष्ठों पर मोदी फार्मूला फिट कर दिया है। क्या ही अच्छा हो कि मोदी की तरह अरविंद भी ‘स्वच्छता अभियान’ चला दे। दोनों भूषणों और योगेंद्र यादव को बुहारकर ‘मार्गदर्शक मंडल’ में रख दे और फिर अपने से भी कमतर लोगों को राज्यसभा में भिजवा दे। डर यही है कि अरविंद भी कहीं मोदी के रास्ते पर न चल पड़े। कहीं, वह महा-मोहभंग का अधिष्ठाता न बन जाए?