पुस्तक समीक्षा : ईशादि नौ उपनिषद ( काव्यानुवाद) मांडूक्य उपनिषद की व्याख्या

मांडूक्य उपनिषद की व्याख्या

उपनिषद वेद रूपी गाय का घृत है। जैसे गाय के घी से अनेक रोग शांत होते हैं वैसे ही मानसिक और आत्मिक धरातल पर सता रहे अनेक प्रकार के रोग उपनिषदों के अध्ययन से शांत हो जाते हैं।
उपनिषदों को सही अर्थ और संदर्भ में हमारे समक्ष प्रस्तुत करने की कला हर किसी के भीतर नहीं होती। कई लोग बहुत बड़ी बात को बहुत ही सधे हुए शब्दों में और बहुत अच्छे ढंग से समझा और बता देते हैं तो कई इतनी क्लिष्टताएं लपेट देते हैं कि उनमें सत्य कहीं छुपकर और दबकर रह जाता है। परंतु डॉक्टर मृदुला कीर्ति इस बात का अपवाद है। उन्होंने 9 उपनिषदों पर अपनी इस पुस्तक के माध्यम से बड़ी सहज, सरल गंभीर भाषा में उपनिषदों के ऋषियों के मंतव्य को हमारे समक्ष प्रस्तुत करने में शानदार सफलता प्राप्त की है। उन्होंने मांडूक्य उपनिषद की व्याख्या पद्यात्मक शैली में करते हुए यह स्पष्ट किया है कि आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय हैं। जागृत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं । यह बहिष्प्रज्ञ है।
दूसरी अवस्था स्वपनावस्था है, जिसे तेजस के नाम से भी जाना जाता है । तीसरी अवस्था सुषुप्ति की है जिसमें प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा की स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। डॉक्टर कीर्ति स्पष्ट करती हैं कि चौथी तुरीय अवस्था ही आत्मा का सच्चा और अंतिम स्वरूप है।
मांडूक्य उपनिषद में केवल 12 श्लोक हैं। इन 12 श्लोकों में ही ऋषि ने गागर में सागर भर दिया है। 12 श्लोकों की व्याख्या को पढ़कर व समझकर जीवन के कई प्रश्नों का गंभीर उत्तर मिल जाता है। आत्मा निर्भ्रांत हो जाता है और मन शांत हो जाता है।
डॉक्टर कीर्ति हमें बताती हैं कि वह वह क्या है जिसे जानकर कुछ जानने के लिए शेष नहीं रहता ? – इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट स्पष्ट रूप में हमें प्राप्त हो जाता है। आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस प्रश्न का उत्तर उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। अतः इन 12 श्लोकों की महत्ता वही समझेगा जो आध्यात्मिक रूप से भूखा होगा और जिसे उस का मनचाहा भोजन प्राप्त हो गया होगा।
मांडूक्य उपनिषद का श्लोक है :-
ओमित्येतदक्षरमिद्ँ सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव। यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ।।

इसका हिंदी अर्थ है कि इदम् नाम से संबोधित यह समस्त विश्व ओ३म अक्षर का ही रूप दिखाई देता है। भूत, भविष्य और वर्तमान यहां तक कि जो इन तीनों कालों से परे है वह भी ओ३म ही है।
डॉक्टर कीर्ति इस मंत्र का अर्थ करते हुए लिखती हैं कि :-

यही ओम ऐसा परम अक्षर चरम अविनाशी महे ,
विश्वानि जग उसकी ही महिमा प्रकृति गरिमा का कहे ।
आगत विगत ओमकार कालातीत जग का मूल है,
आद्यांत हीन अचिंत्य कारण सूक्ष्म और स्थूल है।।

उपनिषद का दूसरा मंत्र है :-

सर्व्ँह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ।।

उपनिषद का दूसरा मंत्र है :- इसका हिंदी अर्थ है कि यह सब संसार ब्रह्म है ,आत्मा ब्रह्म है ,ब्रह्म या यह आत्मा चतुष्पाद – चार पैरों वाला है।
डॉक्टर कीर्ति इस शाश्वत संदेश को अपनी सनातन और सुसंस्कृत भाषा में इस प्रकार शब्द देने का प्रयास करती हैं :-

विश्वानि जग सब ब्रह्ममय और ब्रह्म से परिपूर्ण है,
दृष्टव्य जो भी जगत में सब ब्रह्ममय संपूर्ण है।
यह ब्रह्म वेदों में कथित है कि चार पैरों वाला है,
सर्वात्मा ही तो ब्रह्म पर ब्रह्म विश्व धारण वाला है।।

इस उपनिषद का सातवां श्लोक है :-

नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्। अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ।।

इस श्लोक का हिंदी अर्थ है वह ( ब्रह्म, आत्मा, चेतना, विवेक, बुद्धि ) न तो आंतरिक की ओर है , न बाहर की ओर है, न ही इन दोनों से संबंधित है। न ही उसमें भेद किया जा सकता है और ना ही वह अभेद्य है, ना वह जानने वाला है (अर्थात बुद्धि ब्रह्म नहीं है ) ना ही जाना जा सकने वाला है। बुद्धि से ब्रह्म नहीं जाना जा सकता। न इससे से देखा जा सकता है न व्यवहार में लाया जा सकता है, न ग्रहण किया जा सकता है और जो लक्षणों से रहित है, न मन में आ सकता है, न उसके बारे में बताया जा सकता है जिसका सार वह स्वयं है। प्रपंच से रहित शांत शिव अद्वैत ही चौथा पाद है। वही आत्मा है। वही चौथा पाद है। वही जानने के योग्य है। प्रज्ञा का साधारण अर्थ बुद्धि के पूर्णतया विकसित रूप से है ।
इसका अर्थ करते हुए डॉक्टर मृदुला कीर्ति लिखती हैं कि :-

प्रज्ञ, अप्रज्ञ, बरहिअन्त: प्रज्ञहीन अचिंत्य है ,
अदृश्य, अग्राह्य, अव्यहृत अद्वितीय तत्व व नित्य है।
शुभ शुचि प्रपंचातीत शांत है, मर्म अगम अगम्य का,
ज्ञातव्य प्रभु, अद्वितीय तत्त्व ही चौथा पाद है ब्रह्म का।

इसी प्रकार की उत्कृष्ट सरसता डॉक्टर कीर्ति के प्रत्येक श्लोक के अर्थ में स्पष्ट झलकती है। अंतिम 12 वें श्लोक की व्याख्या करते हुए भी उन्होंने अपनी इसी विद्वता का परिचय दिया है।

अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोंकार आत्मैव संविशत्यात्मनाऽऽत्मानं य एवं वेद।।

इस श्लोक का हिंदी अर्थ है कि ब्रह्म की चौथी अवस्था ओ३म में विद्यमान रिक्तता है। जिसे न तो व्यवहार में लाया जा सकता है और ना ही उसके बारे में जाना या बताया जा सकता है। अद्वैत, शुद्ध चेतना, ब्रह्म आत्मा है। ओ३म में अ, उ, म के अतिरिक्त जो रिक्तता है वह ब्रह्म या आत्मा है। शुद्ध चेतना अनश्वर, सर्वत्र, सर्वज्ञ ,सर्वकालिक आत्मा ही अद्वैत ब्रह्म है।

इसका अर्थ करते हुए डॉक्टर कीर्ति स्पष्ट करती हैं कि :-

मात्रा रहित ओमकार रूपातीत शिव है विशिष्ट है,
अथ जाने वह जो वह आत्मा परमात्मा में प्रविष्ट है।
मन वाणी का नहीं विषय अतः मर्म अगम अगम्य का,
निर्गुण निराकारी स्वरूप चौथा पाद है ब्रह्म का।।

इतनी सुंदर व्याख्या के माध्यम से उपनिषदों के ज्ञान को जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए डॉक्टर कीर्ति का हृदय से अभिनंदन। बड़े आश्चर्य की बात है कि रसोई में लगी रहने वाली एक गृहिणी सर्व संसार के कल्याण के लिए इतना सुंदर साहित्य भी सृजन कर सकती है । विदुषी लेखिका को कोटिश: साधुवाद।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

4 thoughts on “पुस्तक समीक्षा : ईशादि नौ उपनिषद ( काव्यानुवाद) मांडूक्य उपनिषद की व्याख्या

  1. गुढ ज्ञान को डा मृदुल जी कीर्ति ने सरल शब्दों में समझाया है। यह डा कीर्ति जी विशेषता है कि वे क्लिष्टता से दूर रह कर किसी भी अवधारणा को सादगी से समझा देती हैं। वे तथा समीक्षक डा आर्य साधुवाद के पात्र हैं, जानकारी देने के लिए।

  2. डॉ मदुल कीर्ति जी के काव्यानुवाद को पढना ही स्वयं को रस के सागर में डूबा देना है ।उसके साथ
    डॉ मृदुल कीर्ति जी के उपनिषद के काव्यानुवाद की श्रेष्ठ और सरल व्याख्या कर उसे हृदयगम्य बनाया आपने।
    वेद और उपनिषद के गहरे अर्थो को सरलतम शब्दों में समझा पाना, जीवन के अगोचर अगम्य सत्य का प्रकाशन शब्दों में आसान कार्य नहीं।
    डॉ मृदुल कीर्ति जी एवम् डॉ राकेश आर्या जी आप दोनों को साधुवाद, सादर नमन मेरा।

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