कौन रोता है किसानों के सर कलम होने तक
रवीश कुमार
क्या आपके इलाके में मौसम से तबाह फ़सलों के मूल्यांकन के लिए ज़मीन की नापी हुई है। अगर आप किसान परिवार से आते हैं या किसी किसान के संपर्क में हैं तो उत्तर या मध्य भारत के किसानों को फोन कीजिए। तभी आपको पता चलेगा कि अलग-अलग राज्यों या केंद्र के स्तर पर हज़ार या लाख हेक्टेयर ज़मीन में फसलों की बर्बादी का जो आंकड़ा दिया जा रहा है वो सही है या नहीं।
किसान बता रहे हैं कि बीस दिन से खराब मौसम के कारण गेहूं, सरसों की बालियां गिरी पड़ी हैं लेकिन तहसीलदार या पटवारी नुकसान के मूल्यांकन के लिए आया ही नहीं है। जब यही बुनियादी काम नहीं हुआ है तो दिल्ली या तमाम राजधानियों में मुआवज़े के लिए संवेदनशीलता दिखाने का दावा कितना खोखला हो सकता है।
मैं दावा तो नहीं कर सकता कि देश के सारे किसानों से मिलकर आ गया हूं मगर आज ग्रेटर नोएडा के दस पांच किसानों से तो मिला ही। उनके साथ खेतों में बर्बाद गेहूं की फ़सलों का हाल लेते वक्त पहली बात यही पता चली कि कोई भी अधिकारी उनके इलाके की तरफ नहीं आया है। किसानों ने बताया कि हर बार यही होता है। तहसीलदार या पटवारी बिना दौरा किये रजिस्टर पर भर देते हैं कि कितना इलाका प्रभावित हुआ और नुकसान का प्रतिशत क्या है। ऐसा करते समय ध्यान रखा जाता है कि फसलों के नुकसान को कम बताया जाए।
आप जानते हैं कि मुआवज़ा देने की तय प्रक्रिया है। थोड़े बहुत अंतर के साथ सभी राज्यों में यही दास्तान है। बीमा या फसलों की बर्बादी का मुआवजा तभी मिलता है जब एक ब्लॉक के 70 प्रतिशत भूमि पर नुकसान हुआ हो। एक किसान ने कहा कि हर खेत में पचास प्रतिशत नुकसान का होना ज़रूरी है तभी मुआवज़े की राशि तय होगी। पटवारी मानता ही नहीं है कि सत्तर प्रतिशत खेतों में नुकसान हुआ है। अगर वो मान भी लिया तो हर खेत के नुकसान को 50 प्रतिशत से कम बता देता है जिससे मुआवज़े पर दावेदारी कम हो जाती है। मुआवज़ा मिल भी गया तो 20 या पचास रुपये से ज्यादा नहीं मिलता है।
देवेंद्र शर्मा ने एक लेख में सही कहा है कि फसलों की बीमा के साथ भी ऐसा ही घपला होता है। उन्होंने समझाया है कि एक घर में आग लगे और बीमा कंपनी यह कहे कि हम बीमा राशि तभी देंगे जब मोहल्ले के सत्तर और घरों में आग लगी हो। मध्यमवर्ग का कौन सा समझदार बीमा कंपनियों की इस शर्त को स्वीकार कर लेगा। किसान ने कहा है कि ब्लॉक को यूनिट क्यों माना जाता है। किसान को यूनिट मानकर फसलों की बीमा तय होनी चाहिए। प्राइवेट कंपनियां तो बीमा पॉलिसी ही नहीं देती हैं। सहकारी सोसायटी हमसे खाद खरीदते वक्त सौ से तीन सौ रुपये तक का प्रीमियम तो ले लेती हैं लेकिन बीमा राशि तभी मिलती है जब 70 प्रतिशत इलाके में नुकसान हुआ हो। यानी दूसरे के घर में आग लगेगी तभी आपको आपके घर का बीमा मिलेगा।
एक किसान ने बर्बादी की अलग व्याख्या की। कहा कि जो ओले पड़ते हैं वो आठ सौ मीटर से लेकर एक किमी की चौड़ाई में पड़ते हैं। उसके दायरे के बाहर की फसलें बर्बाद नहीं होती। इसलिए एक ब्लॉक में सत्तर प्रतीशत खेती की ज़मीन में नुकसान की शर्त कम ही पूरी होती है। हमारा फसल तो बारिश और तेज हवा के कारण बर्बाद हुआ है। जो फसलें खड़ी रह गईं हैं उनके भी दाने झड़ गए हैं। वो इसलिए खड़ी रह गईं हैं कि उनमें सघनता कम हैं। यानी गैप इतना है कि हवा निकल गई होगी। जिन खेतों में खाद ज्यादा है वहां फसलें सघन हैं। एक दूसरे से इतनी नज़दीक हैं कि हवा के सामने दीवार बन जाती है और सामना न कर पाने पर गिर जाती हैं।
हम उस दिन इन किसानों के साथ बात कर रहे थे जब लोकसभा लेकर राज्यसभा में किसानों के हितों के लिए सभी दलों के सांसद अपनी अपनी दलीलों के साथ कसमें खा रहे थें। ऐसा लग रहा था कि अगर इन्हें किसी की चिन्ता होती है तो सिर्फ किसानों की होती है। एक किसान ने कहा कि अमरीका में बीमा का प्रीमियम सरकार भरती है। केंद्र या राज्य सरकार को भी यही करना चाहिए। किसानों को अब पता है कि अमरीका में क्या होता है लेकिन उन्हें यह पता नहीं चल पाता कि भारत में उनके साथ क्या हो रहा है।
मुआवज़े की राशि का भी एक खेल है। सरकारों ने एकड़ के हिसाब से जो मुआवज़ा तय कर रखा है वो साढ़े तीन हज़ार के आस पास ही है। जबकि एक एकड़ ज़मीन में गेहूं बोने पर आठ से दस हज़ार की लागत आती है। आलू का खर्चा पंद्रह हज़ार के करीब बैठता है। फसल अच्छी हो कमाई तीस से पचास हज़ार के बीच होने की उम्मीद रहती है. यानी राहत या बीमा की राशि इनती कम हो कि लागत भी न निकले। पंजाब सरकार ने मांग की है कि प्रति एकड़ मुआवज़ा कम से कम दस हज़ार मिले। निश्चित रूप से सरकार ऐसा नहीं करेगी। सारी राजनीति मांग करने के संघर्ष के दिखावे में ही पूरी कर ली जाएगी।
किसान बर्बाद हुआ है। मौसम की मार से कोई सरकार नहीं बचा सकती लेकिन नीतियां तो ऐसी बना ही सकती है कि वो बर्बाद न हो। यही नहीं बर्बाद फसलों को खेत से हटाने का भी खर्चा शामिल होने वाला है। इसका हिसाब तो कोई नहीं जोड़ता। दिल्ली के मुद्दों के बीच किसानों के मसले के लिए कहां जगह मिल पाती हैं। लौट कर आया तो देखा कि ट्वीटर पर मनमोहन सिंह और आम आदमी पार्टी के ऑडियो स्टिंग पर मार मची हुई है। अभद्र भाषा में सब चुनौती दे रहे थे कि आज रात इस पर चर्चा करके दिखाओ। अब हम देखेंगे आपकी बहादुरी। एक बार के लिए मैं हिल भी गया कि किसानों के मसले को छोड़ देते हैं। स्टिंग या मनमोहन सिंह पर चर्चा करते हैं। कोई जनता से जुड़े मुद्दों के लिए हमें चुनौती नहीं देता। कुछ लोग ज़रूर सख्त सवाल करते हैं मगर राजनीतिक मुद्दों के लिए गाली गलौज की भाषा में चुनौती देना सिर्फ यही बताता है कि आज की रात उन्हें अपनी राजनीतिक भड़ास मिटानी है और टीवी को भी यही करना चाहिए। दरअसल टीवी यही तो कर रहा है। इसमें उनकी भी क्या गलती है।
सोमवार से मैं प्रयास कर रहा था कि फसलों की बर्बादी पर चर्चा या रिपोर्ट करूं। हर दिन ल्युटियन दिल्ली में घूमने वाली खबरें दिमाग पर छा जा रही थीं। आज कई लोगों को निराशा तो होगी लेकिन सोचिये कि किसानों को कितनी राहत होगी कि उनके मुद्दे को किसी ने दिखाया। रही बात असली राहत की तो वो उन्हें कहां मिलने वाली है। जब इतने दिनों तक उनकी ज़मीन का सर्वे ही नहीं हुआ तो राहत की बात छोड़ ही दीजिए। मनमोहन सिंह का आरोपी बनना और आम आदमी पार्टी का ऑडियो स्टिंग कम महत्वपूर्ण नहीं है। एक ही दिन दो ईमानदारों पर गंभीर सवाल उठे हैं लेकिन गांवों में तो एक ही खबर है। फसल बर्बाद हो गई है और सरकारें सिर्फ अख़बारों के लिए घोषणा कर रही हैं।
लेखक एनडीटीवी के पत्रकार हैं।