चक्रपाणि मिश्र के अनुसार भारत के पांच भौगोलिक जलागम क्षेत्रों का पारिस्थिकी तंत्र

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लेखक:- डॉ. मोहन चंद तिवारी
चक्रपाणि मिश्र ने ‘विश्ववल्लभ-वृक्षायुर्वेद’ में भारतवर्ष के विविध प्रदेशों को जलवैज्ञानिक धरातल पर विभिन्न वर्गों में विभक्त करके वहां की वानस्पतिक तथा भूगर्भीय विशेषताओं को पृथक् पृथक् रूप से चिह्नित किया है जो वर्त्तमान सन्दर्भ में आधुनिक जलवैज्ञानिकों के लिए भी अत्यन्त प्रासंगिक है. चक्रपाणि के अनुसार जलवैज्ञानिक एवं भूवैज्ञानिक दृष्टि से भारत के पांच जलागम क्षेत्र इस प्रकार हैं-
1. ‘मरु देश’- जहां रेतीली मिट्टी है और हाथी की सूंड के समान भूमि में जल की शिराएं हैं उसे ‘मरु प्रदेश’ कहते हैं. इस क्षेत्र में जलागम को प्रेरित करने वाली वृक्ष वनस्पतियों में पीलू (अखरोट) शमी, पलाश, बेल, करील, रोहिड़, अर्जुन, अमलतास और बेर के पेड़ मुख्य हैं.

2. ‘जांगल देश’ -मरुदेश की अपेक्षा जांगल देश में जल की प्राप्ति दुगुनी गहराई पर होती है. यहां जलागम को प्रेरित करने वाली जो खास वनस्पतियां होती हैं, उनके नाम हैं- जामुन, निसोथ, मूर्वा, शिशमणि, सरिवन, हरितकी, श्यामा, वाराहीकंद, मालकांगुनी, सूकरिका, माषपर्णी, व्याघ्रपदी इत्यादि.

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3. ‘अनूप देश’ -यह क्षेत्र पर्याप्त जलभंडार वाला प्रदेश माना गया है. यहां जलीय वनस्पति,ओषधियां, झाड़ियां, वल्लरियां ज्यादा मात्रा में होती हैं. भूमि गीली होती है और मच्छर,विरण वोलाक आदि जीवजन्तु हों,वहां एक पुरुष नीचे प्रचुर मात्रा में मीठे जल की प्राप्ति होती है. भूमि यदि नीची हो तो तीन हाथ में भी पानी मिल जाता है-

“देशेsनूपे हरितजला, सोषधिगुल्मवल्यो,
भूमि: साद्रार्मशकसहिता वीरणं वोलवावा.
तोयं तत्र प्रचुर मधुरं पुंमितेsध:स्थितं स्या
निम्नाभूर्वा त्रिकरपरिमितंतत्रतोयं प्रदिष्टम्..”
-विश्व.,1.35

इस प्रदेश में दन्ती, रुदन्ती,त्रिवृता,शिवा, माषपर्णी, गरुडवेगा ज्योतिष्मती, व्याघ्रपदी, वाराही, बाह्मी आदि वनस्पतियां जलागम स्थान की सूचक हैं. (विश्व.,1.36)

4. ‘साधारण देश’– चक्रपाणि के अनुसार समतल भूमि वाला प्रदेश सामान्य या साधारण देश कहलाता है.यहां पानी की कमी नहीं रहती तथा सामान्य गहराई पर ही पानी मिल जाता है. साधारण देश में दस हाथ की गहराई में जल मिल जाता है-

‘‘देशे साधारणे तोयं सर्वत्र परिकीर्तितम्.
अर्वाक्दशकरात् तत्र चिह्नैरन्ति च भूरितत्..”
-विश्व.,1.40

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5. ‘पर्वतीय देश’– जहां बहुत अधिक मात्र में पर्वत शृंखलाएं तथा कन्दराएं हों वहां चट्टानों के नीचे जल की उपलब्धि रहती है.ऐसे क्षेत्र में पर्वतीय झरने नित्य प्रवाहमान रहते हैं.चक्रपाणि के अनुसार जांगल देश,अनूप देश और साधारण देश की परिस्थितियों के अनुरूप ही भूमिगत जलप्राप्ति की प्रायः संभावनाएं होती हैं. इसलिए उस प्रदेश की स्थिति और मान देखकर ही जल विशेषज्ञ को जलोपलब्धि पर विचार करना चाहिए-

“पार्वतीयेषु देशेषु त्रयं सम्भवति ध्रुवम्.
ज्ञात्वा तद्देशमानं च वदेत् सर्वं विचक्षणः..”
-विश्व.,1.41
पर्वतीय प्रदेशों में जलागम को प्रेरित करने वाली वनस्पतियों में,वट,गूलर,पलाश, पीपल,बहेड़ा,जामुन,सिन्दुवार,कमल, काकच आदि मुख्य हैं.पर्वतीय प्रदेशों में छिद्रहीन, चिकने पत्ते वाले वृक्ष,दूधिया लताएं आदि निकटस्थ भूमिगत जल को सूचित करती हैं-
“स्निग्धाश्च निश्छिद्रदलाः यदा,
स्युरनोकद्र गुल्मलताः सदुग्धा.
चित्रस्वनाः पक्षिगणाः वसन्ति,
तत्रम्बुमिष्टं निकटे प्रदिष्टम्..”
-विश्व.,1.44

पुष्पप्रधान वृक्ष-लताएं- चमेली, चम्पक, कुब्जक, निम्बक, बिजोरा तथा पर्वतों की चोटी पर विद्यमान तालवृक्ष, नारियल, कचनार, वेतस तथा अन्य स्निग्ध वृक्ष वहां विद्यमान प्रभूत जल को द्योतित करतीं हैं-

‘‘पुष्पप्रधानास्तरवो लता वा,
जात्यादय कुब्जकचम्पकाद्याः.
स्याद्दाडिमी निम्बकबीजपूराः,
फलान्वितास्तत्र जलं निरुक्तम्..
तालद्रुमो यत्र न नालिकेरि सत् काञ्चनारस्त्वथ वेतसो वा.
अन्योsपिवा पर्वतमूर्ध्नि वृक्षः
स्निग्धश्च तत्रास्तिजलं प्रभूतम्..”
-विश्व.,1.46-47
भूमिगत गुण वर्णन
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार जिस स्थान की संज्ञा निर्झर नामक जलस्रोत से सम्बद्ध हो वहां की पर्वतीय भूमि में चट्टानों की सन्धियों के पास यदि कोई वृक्ष हो तो उसके मूल में जल की उपलब्धि हो जाती है और उसका कोई मान भी नहीं होता-

“उक्ताः पूरा निर्झरसंज्ञका या
देशे भवेत्सा खलु पार्वतीये.
पाषाणसन्धे द्रुम मूलतो वा
सिद्ध्यैव निर्याति न तत्र मानम्..”
-विश्व.,1.48

अनूपदेश या पर्वतीय भूभाग में बहुत जलवाली शिराएं दिखाई देती हैं.इसी प्रकार तीर्थों और देवभूमि वाले स्थानों में भी भूमि के नीचे उर्ध्वगामी जलशिराएं होती हैं. (विश्व.,1.49)
इस प्रकार चक्रपाणि मिश्र ने परम्परा से प्राप्त सारस्वत मुनि की उक्तियों तथा वराहमिहिर के वानस्पतिक जलागम संकेतों को आधार बनाकर लगभग तीस वृक्षों को चिह्नित किया जिनसे भूमिगत जलशिरा का ज्ञान हो सकता है. चक्रपाणि का महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी है कि वराहमिहिर ने जहां जल स्रोत के रूप में वापी के निर्माण की विधि बताई वहां चक्रपाणि ने जलाशय, सरोवर, तडाग,वापी, कूप, कुण्ड और द्रोणी आदि अनेक जल स्रोतों के जलवैज्ञानिक विधियों का भी उल्लेख किया है,जो भारत के पारम्परिक जल संचयन अथवा ‘वाटर हारवेस्टिंग’ प्रणाली पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं.
✍🏻डॉ मोहन चंद तिवारी, हिमान्तर में प्रकाशित लेख।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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