चक्रपाणि मिश्र के अनुसार जलाशयों के विविध प्रकार

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लेखक:- डॉ. मोहन चंद तिवारी
चक्रपाणि मिश्र ने ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक अपने ग्रन्थ में कूप,वापी,सरोवर, तालाब‚ कुण्ड‚ महातड़ाग आदि अनेक जलाश्रय निकायों की निर्माण पद्धति तथा उनके विविध प्रकारों का वर्णन किया है,जो वर्त्तमान सन्दर्भ में परंपरागत जलनिकायों के जलवैज्ञानिक स्वरूप को जानने और समझने की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है. यहां बताना चाहेंगे कि राजस्थान की मरुभूमि के इतिहास पुरुष और 16वीं शताब्दी में हुए महाराणा प्रताप के समकालीन पं.चक्रपाणि मिश्र ने अपने अनुभवों और प्राचीन भारत के जलविज्ञान के ग्रन्थों का अवगाहन करके अपनी कृति ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ में हजारों वर्षों से चलन में आ रहे परंपरागत जलाश्रयों के बारे में अपना सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया है.

इसलिए प्राचीन भारतीय परम्परागत जलविज्ञान के संदर्भ में चक्रपाणि मिश्र द्वारा रचित यह ‘विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ वर्त्तमान काल में लुप्त होते जल स्रोतों और उनके संरक्षण की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है. इस ग्रन्थ का निर्माण राजस्थान की मरुभूमि में जल की खोज को लेकर हुआ. सोलहवीं शताब्दी में महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) के समकालीन रहे ज्योतिर्विद पं.चक्रपाणि मिश्र ने वराहमिहिर की बृहत्संहिता तथा जलविज्ञान सम्बन्धी अन्य पुरातन शास्त्रों का अध्ययन कर और उनकी हजारों वर्ष प्राचीन भूमिगत जल की मान्यताओं को आधार बना कर ‘विश्ववल्लभवृक्षायुर्वेद’ नामक इस ग्रन्थ की रचना की है. यहां बताते चलें कि आधुनिक काल में भूवैज्ञानिक जिन्हें,भौमजल, जलभृत,’ग्राउंड वाटर’ या ‘एक्वीफर्स’ आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं,उसे चक्रपाणि मिश्र ने प्राचीन जलविज्ञान की पारिभषिक शब्दावली में ‘पर्पटाश्म’ की संज्ञा दी है और उसी ‘एक्वीफर्स’ के आधार पर यहां विभिन्न प्रकार के जलाश्रयों की चर्चा की गई है.
चक्रपाणि के अनुसार जलाश्रय भेद
चक्रपाणि मिश्र ने ‘विश्वल्लभवृक्षायुर्वेद’ में कूप‚वापी‚ सरोवर‚तालाब‚ कुण्ड‚ महातडाग आदि अनेक जलाश्रय निकायों की निर्माण पद्धति को शास्त्रीय शैली में समझाया है तथा उनके विविध प्रकारों का वर्णन भी किया है,जो इस प्रकार हैं-

1.’कूप’- जिसे सामान्य भाषा में कुएं के नाम से जाना जाता है अपने व्यास परिमाण के अनुसार दस प्रकार के सम्भव हैं,जिनके पारिभषिक नाम या भेद इस प्रकार कहे गए हैं-

द्विमुख (4 हाथ व्यास)‚
विजय (5 हाथ)‚
प्रान्त (6 हाथ)‚
दुन्दुभि (7 हाथ)‚
मनोहर (8 हाथ)‚
चूडामणि (9 हाथ)‚
भद्र (10 हाथ)‚
जय (11 हाथ)‚
नन्द (12 हाथ)‚
शंकर (13 हाथ)“द्विमुखो विजयः प्रान्तो दुन्दुभिश्च मनोहरः.
कूपश्चूडामणि भद्रो जयो नन्दोsथ शंकरः.” -विश्व‚2.14
ये 10 प्रकार के कूप चार हाथ से प्रारम्भ हो कर क्रमशः एक एक हाथ की वृद्धि पर दस प्रकारों में विभाजित किए जा सकते हैं.

चक्रपाणि कहते हैं कि गांव का एकमात्र सहारा कूप ही होता है. कूप के नीचे यदि रेत हो तो सारद्रुम की लकड़ी‚ कगर काष्ठादि से घेर कर‚जिसे ‘पुषा’ कहते हैं‚ इस प्रकार नियंत्रित किया जाना चाहिए ताकि भूमिगत जल की ‘शिरा’ अवरुद्ध न हो-

“कूपस्य नीचैर्यदि वालुका
स्यात्सारदुकाष्ठेः कगरादिभिश्च.
स्थाप्याथमंवीहपुषादिभिर्वा यथा
न रुन्ध्येत शिरा जलस्य..”-विश्व.‚2.16
2.’वापी’- चक्रपाणि के अनुसार वापी का निर्माण विशाल सीढीदार नालियों की सहायता से किया जाता है और उसके बराबर‚आधी‚ दुगुनी‚अथवा डेढ गुनी मध्य में चारों ओर तोरण व पानी की निकासी के लिए ध्वजयुक्त नालियां भी बनाई जानीं चाहिए-

“विशाल सोपानयुताथ नालिः
कार्या समार्द्धा द्विगुणा च तस्याः.
सार्द्धाथवा कूटयुतापि मध्ये
समन्ततस्तोरण केतनाढड्ढा..” – विश्व.,2.13

एक मुख और तीन मुख वाली वापी ‘नंदा’ कहलाती है. छह कूट वाली वापी ‘भद्रा’ ग्यारह कूट और तीन मुख वाली वापी ‘जया’ तथा बारह कूट और चार मुख वाली वापी ‘विजया’ कहलाती है.(विश्व.,2.13) उत्तराखंड के सन्दर्भ में बात करें तो यहां के गांवों में कुओं का नहीं बल्कि नौलों का प्रचलन है,जिसकी पहचान चक्रपाणि मिश्र द्वारा कथित ‘वापी’ भेद से की जा सकती है.क्योंकि उत्तराखंड में अधिकांश नौले सीढ़ीदार शैली में ही बनाए जाते हैं.हालांकि आकार में ये वर्गाकार और आयताकार दोनों प्रकार के हो सकते हैं.

3.’सरोवर’ – सरोवर छह प्रकार के संभव हैं-
1.वृत्त, 2.चतुष्कोण, 3.त्रिकोण,
4.अनेक कोण, 5.दण्डाकार तथा
6. अर्द्धचन्द्र (विश्व.,2.3)
चक्रपाणि ने सरोवर के समान ही ‘कुंड’ का लक्षण माना है (विश्व- 2.4-5). हालांकि गुजरात, उत्तराखंड आदि अनेक स्थानों में ‘कुंड’ नाम से भी जलाश्रयों के नाम प्रसिद्ध हैं. श्रेष्ठ या उत्तम सरोवर पांच सौ दण्ड का, और कनिष्ठ सरोवर 250 दण्ड का माना गया है.स्थान विशेष की परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न परिभाषा वाले बड़े तथा छोटे सरोवर अथवा कुंड भी बनाए जा सकते हैं-

‘‘श्रेष्ठं सरो दण्डसहस्त्रकेन
मध्यं तदर्द्धकेन.
कनिष्ठमेतानि यथावकाशं
मानाधिकाल्पानि भवति सश्वत.. -विश्व.2.6
4.’तडाग’- चारों ओर से जल से भरी भूमि स्वतः ही तडाग या तालाब बन जाता है. इसका कोई मान नहीं होता. उत्तराखंड के ‘खाल’ या ‘खाव’ को इस परिभाषा के अंतर्गत समाहित किया जा सकता है.यदि कोई छोटा तालाब हो तो उसे ‘सन्तकगर्क्षक’ खाईनुमा तालाब कहते हैं-

‘‘निम्नाधरित्री परितोsम्बुपूर्णा
भवेत् स्वतः सिद्ध तडाग एव.
मानं न चात्रस्त्यथ मानहीनं
स्वल्पं च वै सन्तकगर्क्षकाद्यम्..’’ -विश्व., 2.10
तड़ाग’ जलाश्रय का स्वरूप पानी की अधिकता के कारण काफी व्यापक और बड़ा होता है. इसके मध्य अथवा किनारे पर राजाओं के लिए केलिगृह (क्रीड़ागृह) भी बनाया जा सकता है. वहां जलक्रीड़ा हेतु नौकाएं संचालित की जा सकती हैं और आवागमन के लिए सेतुमार्ग की व्यवस्था भी की जा सकती है-

“तडागमध्ये त्वथ भूपतीनां
भवन्ति केलिनिलयानी तीरे.
नोस्तत्र कार्या जलकेलि सिद्धये
मार्गश्च तेषां वत सेतुनी वा..” -विश्व., 2.11
5.’महत्सर’- सामने की ओर विशाल भूमि हो और ऊँचे स्थान से नीचे की ओर जल का स्रोत आ रहा हो तथा जलनिकासी का क्षेत्र बहुत कम हो तो ‘पाल’ का निर्माण करने पर महान् सरोवर का निर्माण किया जा सकता है-

‘‘अग्रे यदा भूः पृथुला समंतादुच्चा- जलस्यागमनम् बहु स्यात्.
अल्पाम्बुनोनिर्गमिभूश्च तत्र पालौ
कृतायां हि महत्सरः स्यात्..” -विश्व.2.8

चक्रपाणि ने इस ‘महत्सर’ के निर्माणविधि बताते हुए धरती के तल से पाल के शीर्षभाग तक सीढ़ियों की पंक्तियां बना कर उस पर चूने का लेप किए जाने का विधान भी किया है. इससे पाल अधिक समय तक मजबूती लिए रहता है. (विश्व.2.9)

6- ‘द्रोणी’- दो पर्वतों के मध्य की भूमि को कहते हैं.पर्वत की द्रोणी (घाटी) में भूमि का क्षेत्र यदि बड़ा हो तो अल्प व्यय में भी विशाल तालाब की संरचना की जा सकती है.इस ‘द्रोणी’ नामक जलाशय में पर्याप्त जल की उपलब्धि निरंतर रूप से बनी रहती है-

‘‘गिरिद्वयोरन्तरबद्धपालि-
र्द्रोण्या गिरेरग्रविशालभूर्वा.
अल्पव्ययेनैव महांस्तडागो
भवेत्तदा सततं भूरितोयः..” – विश्व.,2.7
उपर्युक्त वापी, कूप,तड़ाग आदि जलाशय भेदों के अतिरिक्त ‘चक्रपाणि ने ‘कूपिका’, ‘अल्पकुल्या’, ‘आलवाल’ आदि कुछ अन्य लोक प्रचलित जलाशय भेद भी बताए हैं,जो यथेच्छ रूप से बिना माप के बनाए जा सकते हैं. (विश्व.,2.2)

आगामी लेख में पढ़िए- चक्रपाणि मिश्र के अनुसार भारत के पांच भौगोलिक क्षेत्रों का पारिस्थिकीतंत्र
✍🏻मोहन चंद तिवारी, हिमान्तर में प्रकाशित लेख।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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