लेखक:- डॉ. मोहन चंद तिवारी
हमारे देश के प्राचीन जल वैज्ञानिकों ने वास्तुशास्त्र की दृष्टि से भी जलाशय निर्माण के सम्बन्ध में विशेष मान्यताएं स्थापित की हैं. हालांकि इस सम्बंध में प्राचीन आचार्यों और वास्तु शास्त्र के विद्वानों के अलग अलग मत और सिद्धांत हैं. मूल अवधारणा यह है कि जिस स्थान पर जल के देवता या जल के सहयोगी देवों का पद या स्थान होता है उसी स्थान पर नौला, कूप, वापी, तालाब आदि जलाशयों का निर्माण शुभ माना गया है.
जल के सहयोगी देव हैं-पर्जन्य,आपः, आपवत्स, वरुण, दिति,अदिति, इंद्र, सोम, भल्लाट इत्यादि देवगण. टोडरमल के ‘वास्तु सौख्यम्’ नामक ग्रंथ के अनुसार अग्निकोण में यदि जल की स्थापना की जाए तो वह अग्नि भय को देने वाला होगा. दक्षिण में यदि जलाशय हो तो शत्रुभय होता है. नैर्ऋत्य में स्त्री विवाद को उत्पन्न करता है. पश्चिम में स्त्रियों में क्रूरता बढ़ाता है. वायव्य में जलाशय गृहस्वामी को निर्धन बनाता है. उत्तर में जलाशय हो तो धन वृद्धिकारक तथा ईशान में हो तो संतानवृद्धि कारक माना गया है –
‘‘प्राच्यादिस्थे सलिले सुतहानिः
शिखिभयं रिपुभयं च.
स्त्रीकलहः स्त्रीदैष्ट्यं नैस्वयं वित्तात्मजविवृद्धिः..’’
-‘वास्तु सौख्यम्’
अधिकांश वास्तुविदों ने पूर्व और उत्तर की दिशा को जलाशय निर्माण के लिए शुभ माना है. इस सम्बंध में श्रीराम दैवज्ञ अपने ग्रंथ ‘मुहूर्त चिंतामणि’ में नौ दिशाओं का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
“कूपे वास्तोर्मध्ये देशे अर्थनाशः
स्त्वैशान्यादौ पुष्टि रैश्वर्य वृद्धि.
सूनोर्नाशः स्त्री विनाशके मृतिश्च
सम्पत्पीड़ा शत्रुतः स्याच्च सौख्यम्..”
-मुहूर्तचिंतामणि,वास्तुप्रकरण,12.20
अर्थात् वास्तु के बीचोबीच कूप बनाने से धन नाश,ईशान कोण में पुष्टि,पूर्व में ऐश्वर्य की वृद्धि, अग्निकोण में पुत्रनाश, दक्षिण दिशा में स्त्री का विनाश, नैर्ऋत्य कोण में मृत्यु, पश्चिम दिशा में संपत्ति लाभ, वायव्य कोण में शत्रु से पीड़ा, और उत्तर दिशा में कूप बनाने से सौख्य होता है. विश्वकर्मा का मत है कि नैर्ऋत्य, दक्षिण,अग्नि और वायव्य दिशा को त्यागकर शेष सभी दिशाओं में जलाशय बनाना शुभ होता है.
आधुनिक वास्तुविदों का भी यह मानना है कि उत्तर-पूर्व में भूमिगत जलाशय का निर्माण वैज्ञानिक आधार से भी उचित है क्योंकि सूर्य की किरणें जलाशय में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को समाप्त कर देती हैं. घर के दक्षिणी भाग में भूमिगत जलाशय होना घर की स्त्रियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तो वहीं पश्चिमी भाग में होने से परिवार के पुरुष सदस्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. दक्षिण-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम में भूमिगत जलाशय का निर्माण करने से भी महिलाओं के स्वास्थ्य, मान-सम्मान या अन्य किसी प्रकार से प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.
वराहमिहिर के मत से वास्तु स्थापत्य
ज्योतिषाचार्य और जलवैज्ञानिक आचार्य वराहमिहिर ने कूप, बावडी, नौला आदि जलाशयों की वैज्ञानिक विधियों को बताते हुए ‘बृहत्संहिता’ में वास्तुशास्त्र की दृष्टि से दिशाओं के अनुसार फलों का उल्लेख किया है.वराहमिहिर के अनुसार अग्निकोण, नैऋत्यकोण और वायव्यकोण की ओर स्थित जलाशय अशुभ होते हैं. अग्निकोण से बने जलाशय से ग्राम या नगर में अग्नि लगने का भय रहता है. नैऋर्त्य कोण में स्थित जलाशय बच्चों के लिए कष्टकारक होता है और वायव्य कोण का जलाशय स्त्रियों के लिए अशुभ माना गया है.अतएव इन तीन दिशाओं को छोड़कर अन्य पांच दिशा कोणों में ही नवीन जलाशयों की स्थापना करनी चाहिए-
“आग्नेये यदि कोणे ग्रामस्य
पुरस्य वा भवेत्कूपः.
नित्यं स करोति भयं
दाहं च समानुषं प्रायः..
नैऋर्त्यकोणे बालक्षयं
च वनिताभयं च वायव्ये.
दिक्त्रयं एतत्त्यक्त्वा
शेषासु शुभऽवहाःकूपाः..
-बृहत्संहिता‚ 54.97-98
वराहमिहिर का यह मत भी है कि पूर्व- पश्चिम की ओर बनी ‘प्रागपरायत’ नामक आयताकार वापी (नौले) में जल बहुत समय तक रह सकता है.किन्तु दक्षिण-उत्तर की ओर बनी ‘याम्योत्तरा’ नामक वापी में वायु तरंगों के टकराने से जल बहुत समय तक नहीं टिक पाता है-
“वापी प्रागपरायताम्बु
सुचिरं धत्ते न याम्योत्तरा.
कल्लोलैखदारमेति मरुता
सा प्रायशः प्रेरितैः..”
-बृहत्संहिता‚ 54.118
जलाशय-निर्माण के शुभ नक्षत्र
एक ज्योतिषाचार्य के रूप में वराहमिहिर ने शुभ नक्षत्रों और शुभ दिशाओं की ओर कूप आदि जलाशयों की संरचना पर विशेष बल दिया है.बृहत्संहिता के अनुसार जलाशय के शुभारम्भ के लिए हस्त,मघा,अनुराधा, पुष्य,धनिष्ठा,तीनों उत्तरा,रोहिणी और शतभिषा नक्षत्र अनुकूल माने गए हैं-
“हस्तो मघा अनुराधापुष्य
धनिष्ठाउत्तराणिरोहिण्यः.
शतभिषगित्यारम्भे
कूपानां शस्यते भगणः..”
-बृहत्संहिता, 54.123
नौलों का पूजा अर्चना से शुभारम्भ
कूप के शुभारम्भ से पहले गंध-पुष्प आदि द्वारा जल देवता वरुण की पूजा की जानी चाहिए तथा बेंत या बड़ की लकड़ी से कूप की जलशिरा का कीलन भी करना चाहिए –
“कृत्वा वरुणस्य बलिं वट-
वेतसकीलकं शिरास्थाने
कुसुमैर्गन्धैर्धूपैः सम्पूज्य
निधापयेत्प्रथमम्..”
– बृहत्संहिता, 54.124
जलाशय निर्माण का धार्मिक महत्त्व
ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में नौला,कूप, वापी, तालाब, सरोवर आदि जलाशयों के निर्माण की परम्परा अति प्राचीन काल से चली आ रही है. प्राचीन काल से ही उत्तराखंड में नौले, धारे खाल तालाब पर्वतीय जनों की जलापूर्ति के मुख्य संसाधन रहे हैं. हड़प्पा युग की संस्कृति में भी बड़े बड़े कूप बावड़ियां बनाई जाती थीं.बावड़ियां और सरोवर प्राचीन काल से ही पीने के पानी और सिंचाई के महत्त्वपूर्ण जलस्रोत रहे हैं. प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी निर्माण का उल्लेख प्रथम शताब्दी से मिलता है. रामायण, महाभारत, पुराण आदि प्राचीन ग्रन्थों में वापी, कूप, तड़ाक तथा मन्दिर जो व्यक्ति भी बनवाता है,बनवाने के बाद उसका किसी व्यक्ति के पास स्वामित्व नहीं रह जाता है,बल्कि उसका लोकहित में उत्सर्ग कर दिया जाता है
“वापीकूपटडागानां देवालयकुजन्मनाम्.
उत्सर्गात् परतः स्वाम्यमपि कर्तुं न शक्यते..”
मूलतः यह श्लोक पंचतंत्र का है किंतु नारायणभट्ट विरचित ‘जलाशयाद्युत्सर्गविधि’ नामक अप्रकाशित ग्रन्थ में भी यह श्लोक उद्धृत है. नारायणभट्ट ने अनेक पुराणों व वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता के वचनों को उद्धृत करते हुए इस श्लोक के माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण बात यह कही है कि जो व्यक्ति कुआं, नौला, तालाब,आदि का जीर्णोद्धार और उसकी सफाई आदि कराता है,अथवा अपने हाथ से खुदाई कर के कोई नया तालाब बनवाता है,उसे गोदान,राजसूय यज्ञ,अश्वमेध यज्ञ आदि करने से भी कहीं अधिक पुण्य मिलता है (हस्तलिखितपत्र-4).
उल्लेखनीय है कि ‘जलाशयाद्युत्सर्गविधि’ नामक इस हस्तलिखित ग्रन्थ की मूल प्रति वर्त्तमान में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के श्रीगंगानाथ झा परिसर के पुस्तकालय में हस्तलिखित प्रति संख्या 5630 के रूप में संरक्षित है और इस की सर्वप्रथम जानकारी संस्कृत के जाने माने विद्वान प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी ने ‘पानी की कहानी’ शीर्षक से लिखी अपनी पुस्तक (पृ.46) में दी है.
प्राचीन काल से ही जलाशय निर्माण की गतिविधि को धार्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण माना गया है. विष्णुधर्मोत्तरपुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति तालाब,कूप- जैसे जलस्रोत बनवाता है,कन्यादान करता है,छत्र,पांव के जूते आदि दान देता है,वह मृत्यु के उपरांत स्वर्गगामी होता है-
“तडागकूपकर्तारस्तथा कन्या प्रदायिनः.
छत्रोपानह दातारन्ते नराः स्वर्गगामिनः॥”
अधिकांश नौले या बावड़ियां मन्दिरों के निकट ही बनाए जाते थे और धार्मिक विधिविधान सहित जलविज्ञान की वैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर उनका निर्माण और धार्मिक संस्कार भी किया जाता था. यही कारण है कि उनका निर्माण विधिवत धार्मिक संस्कारों के अनुसार किए जाने के कारण नौले या बावड़ी का जल लवणीय या खारा नहीं होता है और इन जलाशयों के सुस्वादु जल की आयु भी बहुत लंबी होती थी.क्योंकि इनका निर्माण बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से भूगर्भीय जल नाड़ियों के अन्वेषण, सर्वेक्षण के उपरांत बहुत सावधानी से किया जाता था।
✍🏻डॉ मोहन चंद तिवारी, हिमान्तर में प्रकाशित लेख
आगामी लेख में पढ़िए- “वराहमिहिर का जलान्वेषण विज्ञान आधुनिक विज्ञान की कसौटि पर”
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)