लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया व्यवस्थापिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की गतिविधियों और कार्यशैली पर नजर रखने वाला शिवजी रूपी राष्ट्र का तीसरा नेत्र है। यदि किसी की भी भूमिका में कहीं थोड़ी सी भी कमी या चूक होती दिखाई देती है तो मीडिया की सजग और सावधानी से भरी आंखें उसे तुरंत पकड़ लेती हैं। इसका अर्थ हुआ कि मीडिया में बहुत ही सजग, सावधान, तार्किक बुद्धि के निष्पक्ष लोगों का होना नितांत आवश्यक है, क्योंकि ऐसे लोगों की उपस्थिति से ही लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है।
यदि मीडिया में जाति ,धर्म, लिंग के आधार पर पक्षपाती लेखन कार्य करने वाले और किसी वर्ग विशेष के पक्ष में बोल कर दूसरे पक्ष को हतोत्साहित करने वाले या दूसरों का उपहास उड़ाने वाले या किसी वर्ग विशेष को प्रोत्साहित कर दूसरे पर हावी और प्रभावी करने वाले लोग प्रवेश कर जाएंगे तो समझ लीजिए कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपंग हो चुका है। ऐसी स्थिति में इस चौथे स्तंभ को पक्षाघात हो जाता है । पक्षाघात मारे व्यक्ति से कभी भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह मंजिल पर अपने पैरों चलकर पहुंच जाएगा।
मीडिया में ऐसे कई लोग हैं जो मुद्दों की निष्पक्ष जांच करने के समर्थक नहीं दिखाई देते। वे मुद्दों को भी सांप्रदायिकता के आधार पर या भाषाई आधार पर आंकने का काम करते हैं। राष्ट्रहित सर्वोपरि होने की पवित्र भावना उनके व्यवहार में कहीं दूर दूर तक भी दिखाई नहीं देती। इसी बात को मैंने उस समय महसूस किया जब देश में किसान आंदोलन चल रहा था। उस समय एक चैनल के लोग अपनी डिबेट्स में ऐसे लोगों को बुलाया करते थे जो उस मुद्दाविहीन और राष्ट्र विरोधी आंदोलन के समर्थक होते थे। उस चैनल की डिबेट में भाग लेने वाले वे लोग आंदोलनकारियों की जाति से संबंध रखते थे, तथा सरकार के विपरीत आवाज उठाने वालों में प्रमुख भूमिका निभाते थे। इस प्रकार की डिबेट को देख कर मन बहुत दुखी होता था और लगता था कि चैनल के लोग निष्पक्षता का निर्वाह नहीं कर रहे हैं।
कल भी मैं उक्त चैनल पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नूपुर शर्मा के प्रकरण में की गई टिप्पणी के संदर्भ में चल रही डिबेट को सुन रहा था। एंकर ने प्रारंभ में ही यह स्थापित करने का प्रयास किया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जो कुछ भी नूपुर शर्मा को लेकर कहा है ,वह पूर्णतया उचित है।
एंकर की भावना बीजेपी के प्रवक्ता की छीछालेदर कराने की थी। यह उसकी कार्य पद्धति, प्रणाली, वाक्य, हावभाव, चेहरे की मुद्रा से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था।
उस एंकर की शामत उस समय आ गई जब उसने सर्वप्रथम दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री एस एन ढींगरा से इस विषय में टिप्पणी चाही। प्रथमदृष्टया मैं भी यह सोच रहा था कि शायद सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी के अनुकूल ही श्री एस एन धींगरा बोलेंगे और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का समर्थन करेंगे। क्योंकि वह सर्वोच्च अदालत है। अवमानना का डर प्रत्येक व्यक्ति को रहता है। इसलिए न्यायालय के आदेश पर बोलते समय उनकी सोच यह हो जाती है कि सच मत बोलो और चुप रहो । ऐसी सोच के तहत दब्बू मानसिकता के वशीभूत होकर बोलने वाला व्यक्ति सच के प्रति लापरवाह हो जाता है।
ऐसी स्थिति में प्रत्येक बोलने वाले को यह डर लगता है कि न्यायालय कदाचित अवमानना का दोषी ठहराकर उन्हें सजा न कर दें।लेकिन श्री एस एन धींगरा ने अपने साहसिक वक्तव्य में यह कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नूपुर शर्मा के विरुद्ध जो टिप्पणियां की हैं वह अनावश्यक, अनर्गल एवं अवैधानिक हैं। यदि वास्तव में ही नूपुर शर्मा देश से माफी मांग ले तो क्या उसको वह वर्ग विशेष क्षमा कर देगा ?
नूपुर शर्मा अपने विरुद्ध एक ही मुद्दे को लेकर अनेक स्थानों पर दर्ज कराई गई प्रथम सूचना रिपोर्टों को एक साथ सुनवाई करने के लिए इस आधार पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय में आई थी कि देश के विभिन्न प्रांतों में इस प्रकरण को लेकर की गई प्राथमिकी इसलिए निरर्थक हैं, क्योंकि इस प्रकरण में पहले ही प्रथम प्राथमिकी दिल्ली में दर्ज हो चुकी थी। इसलिए इस संबंध में जितनी भर भी प्राथमिमिकियां देश में जहां-जहां भी दर्ज हुई हैं उन सबको एक साथ इकट्ठा करके जांच करा ली जाए, ऐसा नियम भी है और कानून भी है। ऐसी निर्णयज व्यवस्थाएं भी हैं जो माननीय सर्वोच्च न्यायालय की दी हुई हैं। भजन लाल केस, अमित शाह केस, लालू यादव केस, मधु लिमये केस, अनेक निर्णयज व्यवस्थाएं इस संबंध में हैं कि एक जगह ही सभी प्राथमिकियों की जांच सन्नध रूप से हो सकती है। ऐसी ही विधि की मंशा भी है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने तीन लाइन के आदेश में याचिका वापस किए जाने का आदेश पारित किया।
याचिका को वापस लेने के लिए नूपुर शर्मा और उसके अधिवक्ता को बाध्य किया गया । इस समय कोर्ट में अनावश्यक टिप्पणियां की गईं। उनको सुनकर ऐसा लगा कि नूपुर शर्मा को माननीय सर्वोच्च न्यायालय से वांछित अनुतोष प्राप्त नहीं होने वाला और वह अपनी ही दी गई विधि व्यवस्थाओं के विपरीत टिप्पणी कर रहे हैं।
श्री एस एन ढींगरा साहब द्वारा यह भी कहा गया कि ऐसी टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय को नहीं करनी चाहिए थी।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय की इस प्रकार की टिप्पणियों से अनुतोष को प्राप्त करने के लिए गईं नूपुर शर्मा की याचिका का मुद्दा गौण हो गया। ऐसी विषम परिस्थिति में न्याय और विधिक व्यवस्था क्या कहती है ?- वास्तव में नूपुर शर्मा इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में गई थी। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उसे दरवाजे पर खड़े खड़े ही बाहर जाने का आदेश कर दिया।
क्या ही अच्छा होता कि सर्वोच्च न्यायालय नूपुर शर्मा को लताड़ कर भी उसे अपने द्वारा ही स्थापित की गई विधिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत न्याय भी प्रदान करता।
ऐसा प्रतीत होने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय किसी विशेष उद्देश्य के साथ यह टिप्पणियां कर रहा है। यह भी हो सकता था कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय नूपुर शर्मा की याचिका को निरस्त कर देते। यदि वह यहीं तक सीमित रहते तो अच्छा होता लेकिन जो अनर्गल टिप्पणियां की गई उससे ऐसा आभास होता है कि जैसे नूपुर शर्मा ने ही देश में आग लगा दी हो। क्योंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट बोला है कि इस सबके लिए आप ही जिम्मेदार हैं।
जबकि सच्चाई इस के विपरीत है।श्री एसएन ढींगरा के पश्चात श्री केके मैनन अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय को एंकर ने सुनना चाहा। जिन्होंने अपने वक्तव्य में यह कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसा कह देने से मजिस्ट्रेट के लिए शेष क्या बचा? संबंधित मजिस्ट्रेट तो अपने स्वविवेकाधीन क्षेत्राधिकार के अंतर्गत दी गई शक्तियों का भी संकोच वश अनुप्रयोग नहीं कर सकता। क्योंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी इस विषय में स्पष्ट रूप से आ चुकी है कि नूपुर शर्मा ही पूरे देश में आग लगाने के लिए जिम्मेदार है। वह मजिस्ट्रेट नूपुर शर्मा को कैसे बेल दे सकता है ? कैसे उसको अनुतोष निम्न न्यायालय में प्राप्त हो सकता है ? इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियां सर्वथा अनुचित एवं अनर्गल और अवांछित हैं। ऐसी टिप्पणी करने से निम्न न्यायालय की कार्यप्रणाली पर भी प्रभाव आवश्यक रूप से पड़ेगा और नूपुर शर्मा के लिए परेशानियां बढ़ेंगी। न्यायालय को अपनी निष्पक्षता दिखाते हुए यह भी स्पष्ट करना चाहिए था कि यदि नूपुर शर्मा ने ऐसा कुछ कहा है जो मुस्लिमों की भावना के विपरीत है तो उसे भी ऐसा कहने के लिए उत्तेजित किया गया था। तब उस उत्तेजित करने वाले को भी न्यायालय कानून के शिकंजे में कसने के लिए आदेशित करता तो अच्छा लगता। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि यदि आज देश में प्रतिक्रिया स्वरूप जो कुछ भी गलत हुआ है या हो रहा है उसके पीछे नूपुर शर्मा का ही कृत्य है तो स्वयं नूपुर शर्मा ने भी ऐसा प्रतिक्रियावश ही किया है।
दोनों उक्त माननीय जस्टिस श्री एसएन ढींगरा एवं श्री केके मैनन एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट के वक्तव्य के पश्चात एंकर ने अजय आलोक राजनीतिक विश्लेषक को अपने वक्तव्य रखने के लिए आमंत्रित किया। श्री अजय आलोक ने अपने वक्तव्य में कहा कि कांग्रेस ने कितनी बार इस देश के संविधान के साथ खिलवाड़ किया ? जैसे 1976 में धर्मनिरपेक्षता का शब्द बिना संसद से पास कराया, संविधान में जोड़ दिया ।
शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने के लिए देश का कानून बदल दिया। ऐसे अनेक प्रकरण हैं जहां कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को अपनाकर देश को क्षति पहुंचाई है। तत्पश्चात कांग्रेस की प्रवक्ता श्रीनेत को भी अवसर दिया गया अपना पक्ष रखने के लिए। उन्होंने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा की गई टिप्पणी का पुरजोर समर्थन और नूपुर शर्मा के वक्तव्य को लेकर भाजपा की प्रवक्ता (पूर्व ) की तीखी आलोचना की।
करती भी क्यों ना, उसका यह राजनीतिक उत्तरदायित्व था, जिसका वह निर्वहन कर रही थीं। इस विषय में अनेक वक्ताओं के भी वक्तव्य सुनने को मिले। परंतु सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य श्री एस एन धींगरा पूर्व न्यायाधीश दिल्ली उच्च न्यायालय, श्री के के मैनन एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट, श्री अजय आलोक राजनीतिक विश्लेषक का है। जिनका निष्कर्ष यही निकलता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नूपुर शर्मा प्रकरण में की गई सभी टिप्पणियां अनावश्यक ,अनर्गल, एवं अवांछित की गई हैं। अब यह प्रश्न भी बड़ा मार्मिक है कि 1984 में हुए सिख विरोधी दंगे भी किसी बड़ी घटना की प्रतिक्रिया स्वरुप ही हुए थे। क्या उन दंगों में सम्मिलित रहे लोगों को भी इसी आधार पर निरपराध माना जा सकता है कि उन्होंने जो कुछ किया था वह किसी बड़ी घटना से प्रेरित होकर अथवा उसके वशीभूत होकर प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसा कर दिया था ?
श्री एसएन ढींगरा साहब द्वारा यह भी कहा गया कि यदि माननीय सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा उचित लगता था तो उनको अपने निर्णय में इन सब टिप्पणियों को लिखना चाहिए था, लेकिन उचित अनुतोष प्रदान न करते हुए अनावश्यक टिप्पणी करके उन टिप्पणियों को अपने जजमेंट में स्थान न देकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौखिक रूप से अनुचित टिप्पणियां की गई हैं।
यद्यपि इस विषय में पुनर्विचार याचिका माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जा चुकी है। अब गेंद पुणे माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पाले में हैं कि पूर्व में निर्णयज विधि व्यवस्थाओं के अनुरूप निर्णय आएगा अथवा नहीं ? यह अभी भविष्य के गर्भ में है। यद्यपि जन भावनाओं के आधार पर न्यायालय कार्य नहीं करते हैं और ना ही करना चाहिए, परंतु राष्ट्र की जन भावना माननीय सर्वोच्च न्यायालय के टिप्पणियों के विपरीत अवश्य बन गई है। अब देखना होगा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय अपने सम्मान को संरक्षित करने के लिए क्या निर्णय लेगा। माना कि जन भावनाएं किसी व्यक्ति, वस्तु, संस्था वर्ग या समुदाय के प्रति झुकी हुई हो सकती हैं, परंतु पूर्व में अपने द्वारा ही पूर्णतया मर्यादित ढंग से स्थापित की गई विधिक व्यवस्थाएं तो न्यायालय के सामने भी एक दीवार बनकर खड़ी हो जाती हैं ,जिने लांघना किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता।
संकलनकर्ता एवं प्रस्तुतकर्ता :
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट चेयरमैन उगता भारत समाचार पत्र
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।