हटा दी गई धारा 370
मोदी सरकार को जब केन्द्र में कार्य करते हुए 3 वर्ष हो गए तो उसने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए और गंभीर प्रयास करने आरंभ किये। प्रधानमंत्री मोदी ने देश के लिए नासूर बन चुकी ‘कश्मीर समस्या’ के समाधान के लिए अपने ठोस प्रयासों के माध्यम से यह संकेत दे दिया कि वे इसे जड़मूल से समाप्त कर देने के लिए कटिबद्ध हैं।
श्री मोदी के विषय में हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि देश का प्रधानमंत्री बनने से पहले वह कश्मीर सहित उन मुद्दों पर खुलकर बोलते रहे थे जो देश के लिए किसी न किसी प्रकार से समस्या बन चुके थे। नेहरू- गांधी द्वारा पालित – पोषित कई समस्याओं को बड़ी निर्भीकता से श्री मोदी ने देश के जनमानस के सामने अपने भाषणों के माध्यम से उठाया था। दोगले राष्ट्रवाद, छद्म -धर्मनिरपेक्षता और हिंदू – हितों की उपेक्षा करने की राजनीतिज्ञों की मानसिकता और सोच के वह कट्टर आलोचक रहे हैं । उनकी सोच ‘सबका साथ- सबका विकास’ – वाली रही है। एक वर्ग के पक्ष की उपेक्षा करके दूसरे का पक्ष- पोषण इसलिए करना कि ऐसा करने से आप न्यायशील कहलाएंगे तो ऐसी सोच भी राजनीति में पक्षपात को प्रोत्साहित करती है। मोदी जी की सोच रही है कि दोषी को दोषी कहना व आतंकवादी को आतंकवादी कहना और उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना, किसी भी शासक के लिए उसका सबसे उत्तम राजधर्म होता है।
अतः उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान के लिए कुछ ना कुछ करेंगे।
लाल चौक पर झंडा लहराने वाले मोदी
यहां पर हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सन 1991 में भारतीय जनता पार्टी ने जब कन्याकुमारी से कश्मीर तक की ‘भारत एकता यात्रा’ निकाली थी तो उस यात्रा में भाजपा के तत्कालीन वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी के साथ नरेंद्र मोदी भी सम्मिलित थे। भाजपा की यह एकता यात्रा श्रीनगर के लाल चौक पर जाकर समाप्त हुई थी। उस समय जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के दो धड़े हो चुके थे और दोनों ही इस बात की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए थे कि भारत विरोध में कौन सा आगे निकल सकता है ? कहने का अभिप्राय है कि यह दोनों धड़े और इसके अतिरिक्त भी इस्लामिक फंडामेंटलिज्म में विश्वास रखने वाले राजनीतिक दल आतंकवादियों की कठपुतली बन चुके थे।
आतंकवादियों की खुशी के लिए भारत विरोध की किसी भी सीमा तक जाने में इन राजनीतिक दलों को कोई संकोच नहीं था। उस समय उन्हें ऐसा लग रहा था कि कश्मीर की मुकम्मल आजादी अब मिलने ही वाली है।
सत्ता का सारा शक्ति केंद्र आतंकवादियों के हाथों में जा चुका था। उनकी अघोषित सरकार कश्मीर में चल रही थी। परिस्थितियां इतनी विकट हो चुकी थीं कि कभी भी कुछ भी हो सकता था। उस समय लाल चौक पर जाकर और एक चुनौती देते हुए तिरंगा फहराना सचमुच बहुत बड़े साहस की बात थी। यद्यपि राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाना समय की आवश्यकता थी। निश्चय ही भाजपा के नेता मुरली मनोहर जोशी और उनके सभी साथी इस बात के लिए धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने विषम परिस्थितियों में ऐसा साहसिक निर्णय लिया।
1992 में लालचौक पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराना कश्मीर में अलगाववादियों, आतंकियों और मुख्यधारा की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों, राष्ट्रवादियों और सुरक्षाबलों के लिए पहली बार प्रतिष्ठा का प्रश्न बना था। कोई इस प्रकार झंडा फहराने को रोकने की वकालत कर रहा था तो कोई इसे फ़हराने के लिए प्राणपण से कार्य कर रहा था।
इससे कश्मीरी आतंकवादियों सहित पड़ोसी देश पाकिस्तान को भी गहरा झटका लगा था। पाकिस्तान उस समय तक यह सोचने लगा था कि अब वह 1971 में बने बांग्लादेश का प्रतिशोध लेने के बहुत निकट आ चुका है। किसी भी समय वह कश्मीर को भारत से अलग कराने में सफल हो सकता है। अब उसे भी यह आभास हुआ था कि भारत में भारतीय प्रखर राष्ट्रवाद की बात करने वाले लोग भी हैं।
पाक और आतंकवादियों को लगा गहरा झटका
अभी तक कश्मीर के आतंकवादी और पाकिस्तान मिलकर जिस प्रकार भारत के राजनीतिक दलों और राजनीति का मूर्ख बनाते चले आ रहे थे उस पर भी उन्हें पुनर्विचार करने के लिए विवश होना पड़ा। झंडा फहराने की इस कार्यवाही ने पाकिस्तान और कश्मीरी आतंकवादियों के मन के झंडे उतार दिए थे। पाकिस्तान और कश्मीर के आतंकवादियों को इस कार्यवाही से गहरा झटका लगा था। ऐसी परिस्थितियों में भाजपा की एकता यात्रा में विघ्न डालना और लाल चौक पर तिरंगा को न फहराने देने की स्थिति पैदा करना कश्मीर के आतंकवादियों और अलगाववादी संगठनों के लिए बहुत आवश्यक हो गया था।
बात स्पष्ट है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने ऐसा हर संभव प्रयास किया जिससे भाजपा की एकता यात्रा लाल चौक पर जाकर झंडा फहराने में असफल हो जाए। सभी आतंकवादियों और आतंकी संगठनों ने इस यात्रा को एक चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने यह स्पष्ट घोषणा कर दी कि श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने दिया जाएगा। उस समय आतंकियों ने पुलिस मुख्यालय मे ग्रेनेड धमाका किया था, जिसमें तत्कालीन पुलिस महानिदेशक जे0एन0 सक्सेना गंभीर रूप से घायल हो गए थे।
आतंकवादियों ने इस प्रकार की घटनाओं को इसलिए अंजाम देना आरंभ किया था कि शासन प्रशासन सकते में आ जाएं और वह इस यात्रा को बीच में ही रोक दें। उनका उद्देश्य था कि मुरली मनोहर जोशी और उनकी यात्रा के सहयात्रियों को जम्मू कश्मीर की सीमा पर उसी प्रकार गिरफ्तार कर लिया जाए जिस प्रकार ‘दो निशान, दो विधान, दो प्रधान’ की राष्ट्रघाती और असंवैधानिक स्थिति के विरुद्ध आवाज देते हुए आ रहे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया था।
लाल चौक बन गया था युद्ध क्षेत्र
तत्कालीन प्रशासन ने मुरली मनोहर जोशी, नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं को हवाई जहाज के द्वारा श्रीनगर पहुंचाया था। उस समय लालचौक पूरी तरह से युद्घक्षेत्र बना हुआ था। चारों तरफ सिर्फ सुरक्षाकर्मी ही थे। कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच लगभग 15 मिनट में ही मुरली मनोहर जोशी व उनकी टीम के सदस्य के रूप में सम्मिलित नरेंद्र मोदी व अन्य ने तिरंगा फहराया। इस दौरान आतंकियों ने राकेट भी दागे जो निशाने पर नहीं लगे। इसके बाद सभी नेता सुरक्षित वापस लौट आए थे। इस प्रकार गोला बारूद और तलवारों के साए में बड़े होने की बात करने वाले इस्लामिक आतंकवादी उन निहत्थे वीर योद्धाओं का बाल बांका नहीं कर सके जो मां भारती के प्रति समर्पित होकर महाराणा प्रताप व छत्रपति शिवाजी के प्रतिनिधि के रूप में लाल चौक पर जाकर सीना तान कर खड़े हुए थे। उनके सारे वार खाली गए, पर उन्हें इतना आभास अवश्य हो गया कि भारत में महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी की परंपरा आज भी जीवित है।
मोदी का शिवसंकल्प
हमारा कहने का अभिप्राय है कि प्रधानमंत्री श्री मोदी ने एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में कश्मीर समस्या को बड़ी निकटता से देखा और समझा था। यही कारण था कि उन्होंने कश्मीर समस्या और उसकी जड़ रही धारा 370 के निपटारे के लिए पूर्ण मनोयोग से कार्य करना आरंभ किया। अपने कार्यकाल के तीन साल बाद सन 2017 में मोदी सरकार ने फिर बातचीत का रास्ता अपनाते हुए खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को राष्ट्रीय प्रतिनिधि नियुक्त किया। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह शिवसंकल्प एक महाव्रत के रूप में धारण कर लिया था कि अब उन्हें कश्मीर समस्या के समाधान की ओर बढ़ते हुए संविधान की सबसे आपत्तिजनक धारा 370 को समाप्त करना ही है।
इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम के लोग ( जिनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता और वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह व एनएसए अजीत डोभाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ) कश्मीर की परिस्थितियों और पीडीपी की गतिविधियों पर निरंतर सावधानी से ध्यान लगाए रहे। पीडीपी की गतिविधियों को समझकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम ने 40 महीने पुरानी पी0डी0पी0 सरकार से 19 जून 2018 को अपना समर्थन वापस ले लिया। उस समय एक वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या और ऑपरेशन ऑल आउट जैसे कई मुद्दों पर भाजपा और पी0डी0पी0 में मौलिक मतभेद उभर कर सामने आए थे। महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी जहां आतंकवादियों की गतिविधियां का समर्थन करते हुए दिखाई दे रही थी, वहीं भाजपा सरकार में रहते हुए भी सरकार का विरोध कर रही थी। केंद्र सरकार ने महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए पीडीपी सरकार गिरने के बाद 23 अगस्त को सत्यपाल मलिक को जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बनाया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत