लाहौर के गिरजाघरों में बम-विस्फोट, बंगाल की एक बुजुर्ग ईसाई सिस्टर के साथ बलात्कार और हरियाणा के एक गिरजे में जबर्दस्ती हनुमान की मूर्ति रख देना किस बात का सूचक है? क्या इसका नहीं कि हमारा समाज निरंतर असहिष्णु होता जा रहा है? भारत हो या पाकिस्तान, दोनों देशों में कोई फर्क नजर नहीं आता। यह ठीक है कि भारत में गिरजों में बम-विस्फोट नहीं होते और पेशावर व लाहौर की तरह दर्जनों ईसाई भक्तगण मारे नहीं जाते लेकिन गिरजों पर हमले तो भारत की राजधानी दिल्ली में भी हुए हैं। पाकिस्तान में बम-विस्फोट होना कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि आतंकवाद पाकिस्तानी जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। इन आतंकवादियों से बढ़कर सेक्युलर कौन होगा? ये मंदिर, मस्जिद, गिरजे और गुरूद्वारे में कोई फर्क नहीं करते। आतंकवादी अपने आपको मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तान में वे सबसे ज्यादा किन्हें मारते हैं? मुसलमानों को ! वे हिंदू, मुसलमान और ईसाई में कोई फर्क नहीं करते। लाहौर के गिरजों पर हमले की जिम्मेदारी भी एक तालिबानी संगठन जमातु-अल-अहरार ने ली है।
यह ठीक है कि भारत और पाकिस्तान के ईसाई संगठन धर्म-परिवर्तन की कोशिश निरंतर करते रहते हैं। इस प्रक्रिया में वे इस्लाम और हिंदू धर्म पर आक्रमण भी कर दते हैं लेकिन वह शाब्दिक ही होता है। उसमें कोई हिंसा नहीं होती लेकिन कई बार बड़ी उत्तेजक, अश्लील और आपत्तिजनक बाते भी होती हैं। पाकिस्तान में तो कई बार उन्हें कुरान-शरीफ और पैगंबर के लिए अपमानजनक बातें कहने के आरोप में पकड़ लिया जाता है। ऐसे मामलों में सरकारों और नेताओं का रवैया तो प्रायः ठीक-ठाक ही रहता है लेकिन साधारण धर्मांध लोग कानून और शिष्टाचार की हदें पार कर देते हैं। वे हत्या, आगजनी, लूट-पाट और बलात्कार का रास्ता अपनाते हैं, जिसका समर्थन कोई भी मजहब नहीं करता।
सच पूछा जाए तो वे अपने मजहब का ही उल्लंघन करते हैं। उसे बदनाम करते हैं लेकिन ऐसे लोग यह समझते हैं कि वे सबसे वफादार मुसलमान हैं या हिंदू हैं या ईसाई हैं या सिख हैं।
भारत और पाकिस्तान में ईसाइयों की संख्या सिर्फ एक-दो प्रतिशत ही है। इसके बावजूद उनके स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और अनाथालय आम जनता की जबर्दस्त सेवा करते हैं। दोनों देशों की राजनीति में भी उनकी खास दखलंदाजी नहीं है। पाकिस्तान के तो लगभग सभी ईसाई कभी दलित हिंदू रहे हैं और भारत में भी वे पिछड़ी और आदिवासीय जातियों के हैं। इनके साथ दुश्मनों-जैसा व्यवहार करना ठीक नहीं है। यदि वे कहीं मर्यादा लांघते हुए दिखाई पडें तो उनके विरूद्ध कार्रवाई जरूर की जाए लेकिन जैसी लाहौर में हुई है, वैसी हिंसा तो मजहब को ही नहीं, राष्ट्र को ही नहीं, इंसानियत को भी शर्मसार करने वाली घटना है।
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