वैदिक सम्पत्ति : तृतीय खण्ड : अध्याय – ईसाई और आर्यशास्त्र
गतांक से आगे…
होमरूल लीग से पृथक् लो ० तिलक ने तो अपनी एक अलग संस्था निकाली । महात्मा गांधी भी कुछ काम करना ही चाहते थे और इसके लिए केवल देश का वातावरण ही देख रहे थे । इतने में हिंदू यूनिवर्सिटी का उत्सव हुआ । इसी में महात्मा गांधी के कार्य का भविष्य सोचकर एनी बीसेंट ने वहीं पर महात्मा गांधी को गिराने का प्रयत्न किया । पर सूर्य पापी के कोसने से नहीं छिपता , अतः एनी बीसेंट का वह हाथ भी खाली गया । वहाँ से लौटकर एनी बीसेंट ने कुछ ऐसे लेकचर दिए , जो आपत्तिजनक थे । उन्हीं के कारण एनी बीसेंट को जेल हुआ । इस गुण से मुग्ध होकर देश के नातजर्बेकारों ने उनको कांग्रेस का प्रेसीडेंट बनाया । परन्तु उन्होंने वहाँ भी अपना रूप प्रकट कर दिया । अपने भाषण में कह दिया कि , मैं आपको सदा प्रसन्न रखने की प्रतिज्ञा तो नहीं कर सकती पर यह प्रतिज्ञा कर सकती है कि राष्ट्र की सेवा के लिए सब प्रकार उद्योग करूंगी । मैं आपकी सभी बातों से सहमत होने तथा आपके मार्ग का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा नहीं कर सकती । क्योंकि नेता का कर्त्तव्य नेतृत्व करना ही होता है ।
इस बात से हमको तो उसी दिन ज्ञात हो गया था कि , इन्होंने अपना रूप प्रकट कर दिया है । हमको ही नहीं प्रत्युत और भी सब देशवासियों को ज्ञात हो गया था कि , वे राजनैतिक मैदान में हमारा साथ वहीं तक दे सकती हैं , जहाँ तक हमको ईसाइयों की गुलामी करना मंजूर हो , इससे आगे नहीं । पिछले कागजपत्रों के देखने से ज्ञात होता है कि होमरूल लीग उन्होंने इसलिए बनाई थी कि अगर उन पर कोई आपत्ति आवे , तो देश के लोग उसके द्वारा पुकार करके उनको उस आफत से बचावें । यह बात १६।१०।१६ के ‘ नवजीवव अने सत्य ‘ नामी पत्रमें छपे हुए शंकरलाल बैंकर एम् ० ए ० के लेख से अच्छी प्रकार प्रकट होती है । कहने का मतलब यह कि होमरूल लीग उनकी तारीफ करने , आायरलेण्डवालों को मदद देने और एक प्रकार से अपने चेलों को अपने फन्दे में फँसाये रखने के लिये ही थी । महात्मा गांधी के सच्चे काम के प्रारम्भ करते ही न होमरूल लीग का कहीं पता लगा और न एनी बीसेंट का ।
इस तरह से यह उनका तीसरा धावा भी समाप्त हुआ । यद्यपि वे पूर्ण रीति से अपने उद्देश्य में कामयाब नहीं हुई तथापि हजारों और लाखों आदमियों के विचारों और विश्वासों को इतना लचर और कमजोर बना दिया है कि उनकी हालत पर दया और अफसोस होता है । पढ़े लिखे हिन्दुओं का जितना जीवन थियोसोफी ने नष्ट किया है , उतना और किसी ने नहीं । उनका उद्देश्य ही यह कि जहाँ आर्यों का उत्कर्ष हो , वहीं पर हिकमत से बाधा पहुँचाना । थियोसोफिस्ट किसी भी भारतवासी की प्रबल आवाज को सुनते हैं , तो तुरन्त उसको दिखाने के लिये आगे पहुँचते हैं । ये नहीं चाहते कि इस देश के लोग जरा भी उठ सकें । स्वामी दयानन्द और महात्मा गांधी का उत्कर्ष नष्ट करने का जैसा घृणित उद्योग इन लोगों ने किया है , वह हम ऊपर लिख चुके हैं । उससे भी अधिक भयकर व्यवहार इन्होंने स्वामी विवेकानन्द के साथ भी किया है । स्वामी विवेकानन्द की अमेरिका में जब कीर्ति आरम्भ हुई थी , तो वहाँ इन लोगों ने उनके प्राण तक लेने का इरादा किया था । अपने आप पर बीती हुई इस हकीकत को स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास के विक्टोरिया हाल में वक्तृता देते हुए खुद कहा है कि , ‘ अमेरिका जाने के समय थियोसोफिकलसोसाइटी के नेता महाशय से , जो अमेरिकावासी होते हुये भी भारतभक्त कहलाते हैं , मिलकर मैंने एक परिचय-पत्र के लिये प्रार्थना की , परन्तु फल यह हुआ कि , उक्त महोदय ने मुझे अपनी सोसाइटी से अलग समझ कर कहा कि , हम तुम्हारे लिये कुछ भी नहीं कर सकते । जब मैं अमेरिका पहुँचा , तो वहाँ मुझे आर्थिक दशा पर कठोर दुःखों का सामना करते देख , इन्हीं में से एक ने लिखा कि शयतान बहुत जल्द मरेगा । पर ईश्वरेच्छा , मैं बच गया । इतना ही करके इन लोगो ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा , किन्तु जहाँ पर मैं ठहरता था , वहां से लात मारकर मुझे निकाल बाहर कराने धौर मेरे मित्रों से ही मुझे मरवा डालने की भी बड़े वेग से हजारों कोशिशें कीं , परन्तु ईश्वर की मर्जी से उनकी एक भी कोशिश सफल न हुई । सबके सब हाथ मलते ही रह गये । जब धर्म महासभा में मेरी ख्याति बढ़ी तब तो उन लोगों की ईर्ष्या का ठिकाना ही न रहा ‘ ।
क्रमशः