बिखरे मोती : मन-बुद्धि और चित्त का सौन्दर्य ही आत्मा का सौन्दर्य है:-

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मन-बुद्धि और चित्त का,
सौन्दर्य मत खोय॥
यह सौन्दर्य अमूल्य है,
आत्मा भूषित होथ॥1740॥

भव्यता – सौम्यता और दिव्मता से कौन सुशोभित होते है:-

भवन की शोभा भव्यता,
सौम्यता साधु की शान ।
दिव्यता पाने पर लगे ,
देव तुल्य इन्सान॥174॥

सौम्यता और दिव्यता की जननी कौन ?

ऋजुता हृदय में होय तो ,
सौम्यता चेहरे पै आय ।
अन्तःकरण की पवित्रता ,
देवता देय बनाय॥1748॥

मन का सुकून माया में नहीं , मायाधीश के चरणों में है:-

प्रभु-चिन्तन से ही मिले ,
मन पंछी को सुकून।
चित्त को निर्मल राखिये ,
दोषों को दे भून दे॥1743॥

ओम – नाम में सुकून है ,
मत ढूंढे , कहीं और ।
चार दिनों की चाँदनी ,
वही है अन्तिम ठौर॥1744॥

सब झूठे सम्बन्ध हैं ,
सच्चा हरि का नाम।
हरि के एक खंकेत से,
बनते बिगड़े काम॥1745॥

तृष्णा के संदर्भ में तृष्णा मेंः-

तृष्णा में उलझे रहे,
किया न हरि का जाप।
तरने का मौका मिला ,
फिर करे पश्चात॥1746॥

तृष्णा अनन्त आकाश सी ,
दिन – दिन बढ़ती जाय।
यह बैरन हरि- जाप में,
आकै बड़ी सताय॥1747॥

एक अचम्भा देखकर ,
मेरा मन हैरान।
नर – तन बूढ़ा हो गया ,
तृष्णा हुई जवान॥1748॥

नरपति गए संसार से,
रह गए किले निशान ।
क्षणभंगूर जीवन तेरा ,
मत इतरा इंसान॥1749॥

भोजन में हो भाव तो ,
सोने में हो सुगन्ध ।
शबरी के झूठे बेर ज्यों ,
‘राम’ने किए पसन्द॥1750॥

मानव के व्यक्तित्त्व का,
वाणी है आधार।
यश – अपयश की खान है ,
करते रहो सुधार ॥1751॥

लक्ष्मी टिकती है वहाँ ,
जहाँ प्रेम विश्वास ।
सेहत समय सम्पत्ति का,
घृणा करे विनाश॥

निर्द्वन्द्र रहो , निर्बेर रहो,
हरि के रहो समीप ।
पुनरूक्षु रक्षा करे ,
जो ब्रह्माण्ड- महीय॥1759॥

चित्त में जब बहने लगे,
सद्‌भावों की धार।
समझो उस समय हो गया ,
ईश्वर का दीदार॥1754॥

वाणी में संयम नहीं,
निश्चित निकट विनाश ।
तार- तार हो जायेगा ,
बेशक रिश्ता खास॥1755॥

सत्संगति का महत्त्व :-

संगत अच्छी मिल गई,
तो हरि – कृपा कि जान।
सत्संगति के कारणै ,
अदने हुए महान॥1756॥

पोथी पढ़ , आँखें थकीं ,
बदला नहीं स्वभाव।
स्वभाव – शिकंजा सुधारले ,
मत चले घात के दाव ॥1757॥

दरित करे उद्विग्न चित ,
नष्ट करे सद्‌भावा।
भद्र – भाव दे शन्ति,
सुन्दर बने स्वभाव॥1758॥

पारस है सत्संगति,
कर देखो विश्वास।
रत्नावली की डांट से ,
तर गए तुलसीदास॥1759॥
क्रमशः

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