आनंद सनातन अभीप्सा है। सृष्टि का प्रत्येक प्राणी आनंद का प्यासा है। प्रकृति आनंद से भरी पूरी है भी। हम प्रकृति का अंश हैं। गणित में अंश पूर्ण से छोटा होता है लेकिन भारतीय अनुभूति में अंश पूर्ण है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो भी पूर्ण। ऋग्वेद आनंदगोत्री पूर्वजों का ही मधु-मंत्रकोष है। सभी देव आनंददाता हैं। सविता प्रत्यक्ष देव हैं। उन सविता का वरण – तत्वविर्तुवरेण्य आनंदवर्द्धन है। आनंदमगन ऋषि “सविता को सामने, पीछे, दांए और बांए के साथ ऊपर और नीचे” भी अनुभव करते हैं। भारतीय अनुभूति का ब्रह्म संपूर्ण आनंद का पर्याय है। उपनिषद् अनुभूति में “यह ब्रह्म ऊपर, नीचे, दाएं, बांए, आगे, पीछे और भीतर बाहर भी है।” पूर्वज अनुभूति एकात्मवादी है। यहां अनुभूति और अभिव्यक्ति भी एक जैसी। जैसी प्रतीति, वैसी अनुभूति और वैसी ही अभिव्यक्ति। यों एकात्म/अद्वैत अनुभूति का कथन या निर्वचन संभवन नहीं। वाणी उस अनुभूति केन्द्र से लौट आती है। भाषा की सीमा है। अनुभव सागर जैसा लेकिन भाषा की लुटिया बहुत छोटी। कैसे समाए यह सागर लघुपात्र में। तुलसीदास ने भी ‘कहबु कठिन, समुझब कठिन’ की लाचारी व्यक्ती थी। पहले तो जानना ही कठिन फिर जाने हुए को बताना और भी कठिन। नायेनात्मा प्रवचनेन लभ्यो – यम ने नचिकेता को बताया था कि यह परम सत्य प्रवचन से मिलता नहीं।प्रकृति का अन्तस् छन्दस् है और मनुष्य का भी।
सत् चित् और आनंद है यह अन्तस्। सत् प्रत्यक्ष भौतिक और इहलौकिक है। चेतन अप्रत्यक्ष है लेकिन सर्वव्यापी है और विज्ञान सिद्ध भी। सत् अखण्ड सत्ता है। यहां अनेक रूप हैं। वनस्पति, पशु, कीट, पतिंग, नदी, पर्वत, वन उपवन, मनुष्य और विविध पदार्थ या प्राणी। इनका अस्तित्व अलग-अलग दिखाई पड़ता है लेकिन अन्तःकरण में सब एक हैं। ऋग्वेद में इन्द्र की सर्वाधिक स्ततियां हैं। ऋषि गाते हैं – यह इन्द्र सभी रूपों के भीतर प्रविष्ट होकर “रूपं रूपं प्रति रूपो वभूवः” है – एक इन्द्र या चेतन ही हरेक रूप में रूप रूप प्रतिरूप है। कठोपनिषद में यही बात अग्नि के लिए कही गई है। ऋग्वेद की पूरी काव्य पंक्ति ज्यों की त्यों है। केवल इन्द्र की जगह अग्नि शब्द रख दिया गया है। परम चेतन एक है। रूप ढेर सारे। विभाजित प्रत्यक्ष को अविभाजित एक अखण्ड देखना ही भारतीय दर्शन की आत्यंतिक अनुभूति है। उस एक का नाम ऋग्वेद में ‘एकं सद्’ है। इन्द्र भी है और अदिति भी। इसी का नाम उपनिषद्ों में ब्रह्म है। नाम महत्वपूर्ण नहीं है।भौतिक विज्ञानी सम्पूर्ण विश्व को ‘कासमोस’ कहते हैं। भारतीय परंपरा उसे ब्रह्म कहती है। सभी छन्दों और रागों में निबद्ध मधुमय काव्य जैसा है यह ब्रह्म। अंग्रेजी में इसे ठीक ही ‘यूनीवर्स’ कहा गया है। यूनी-वर्स यानी संयुक्त कविता। पाश्चात्य जगत ने विश्व को लाखों खण्ड़ों का जोड़ जाना है। यूनीवर्स का अर्थ यही है।
भारत ने इसे ‘एक ही सत्य – एकं सद् बताया और कहा कि इसी एक सत्य को विद्वान अनेक नाम लेकर बताते हैं। जो सत् है वह एक है। जो एक है, वह चेतन है और जो चेतन है वही आनंद भी है। सत् चित् आनंद की यही एकात्म अनुभूति सत्य शिव और सुन्दर में प्रकट होती है। सत्य, शिव और सुंदर के प्रकटीकरण का नाम है संस्कृति। हमारे पूर्वजों ने सचेत रूप से ही सत्य, शिव और सुंदर को प्रकट किया। प्रकृति स्वयंभू है, सदा से है। संस्कृति मनुष्य का अपना सृजन है। सत् चित् और आनंद का सम्मुलास है भारतीय संस्कृति। प्रकृति के प्रति अंगांगी और एकात्म भाव ही हिन्दू संस्कृति का मूल स्रोत है।भारतीय संस्कृति का संवत्सर बड़ा प्यारा है। यह संवत्सर पंथिक घोषणा नहीं है। सृष्टि और प्रलय बार-बार आते हैं। प्रलय में सब कुछ नष्ट नहीं होता। सृष्टि का विकास शून्य से नहीं हो सकता। ऋग्वेद में सृष्टि की पूर्व स्थिति का वर्णन है। तब न दिन थे न रात। केवल ‘एक वह’ था, दूसरा कोई नहीं। वायु भी नहीं थी, ‘वह एक’ अपनी क्षमता के बल पर सांस ले रहा था- अनादीवातं स्वस्ध्या तदेकं। फिर वह प्रकट हो गया। गति आई और गति के साथ समय। संवत्सर उगा। भारतीय अनुभूति का संवत्सर सृष्टि उगने की मंगल मुहूर्त है।
हम भारत के लोगों का संवत्सर ही अंतर्राष्ट्रीय नवसंवत्सर है। यह कालगणना का परिणाम नहीं, कालबोध की अनुभूति है। कालगणना इसकी अनुवर्ती है। हिन्दू भौगोलिक संज्ञा है। हिन्द महासागर से हिमालय के बीच रहने वाले अभिजनों को सारी दुनिया ने हिन्दू कहा। इस भूखण्ड में दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास पहले हुआ और आस्था सम्प्रदाय या पंथों का बाद में। स्वाभाविक ही यहां की आस्था प्रश्नों के घेरे में रही। समूचा ऋग्वेद प्रश्नाकुल बेचैनी से भरापूरा है। इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देवता हैं लेकिन अनुभूत सत्य एक ही है। “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ की गाढ़ी अनुभूति भारतीय चिनतन का नीति निदेशक तत्व बनी रही। भारतीय संस्कृति या हिन्दू संस्कृति का अधिष्ठान दर्शन और विज्ञान ही रहा है। यह संस्कृति पंथिक आस्था जैसी जड़ नहीं बल्कि सिंधु या गंगा जैसी गतिशील और प्रवाहमान है। भारतीय राष्ट्रभाव का प्राण है हिन्दू संस्कृति। संस्कृति भारत के जनगणमन की सुकृति है।भारतीय राष्ट्रभाव का प्राण यही संस्कृति है। राष्ट्र और राज्य एक नहीं है।
भारतीय राज्य राष्ट्र की एक संस्था है। इस संस्था का परिचालन संविधान के अनुसार होता है। ‘हम भारत के लोगो’ ने संविधान बनाया है। संविधान के प्रति स्वयं को आत्मार्पित भी किया है। संविधान की उद्देशिका में यही बात लेखबद्ध भी है। संविधान का विकास क्रम लगभग 100 बरस का ही है। ब्रिटिश संसद द्वारा भारत पर ब्रिटिश राज की घोषणा के बाद से ही इसकी शुरूवात मानी जा सकती है। इस बीच ब्रिटिश संसद ने भारत पर शासन के लिए कई अधिनियम बनाए थे। 1935 का अधिनियम अंतिम था। भारतीय संविधान का आधार भी यही है। नवम्बर 1950 में हमने अपना संविधान पाया। हम भारत के लोग इसी संविधान से प्रतिबद्ध हैं। संविधान की ही तरह हम भारत के लोगों ने अपनी संस्कृति भी गढ़ी है। ऋग्वेद भारतीय संस्कृति का आदि स्रोत है। इसके रचनाकाल को ईसा पूर्व 6 हजार वर्ष मानने पर भी संस्कृति दर्शन के अब तक 8 हजार वर्ष हो गये हैं। यों ऋग्वेद के पहले भी एक उदात्त और विकसित संस्कृति अवश्य रही होगी।
ऋग्वेद जैसा काव्य दर्शन शून्य से नहीं उग सकता। भारतीय राष्ट्रभाव का विकास हजारों बरस प्राचीन संस्कृति से ही हुआ है। राज्य यहां राष्ट्र गठन का आधार नहीं रहा।डाॅ0 अम्बेडकर ने भारत विभाजन की गहमागहमी के बीच लिखी किताब में ध्यान दिलाया है कि – “हम भारतवासी आपस में बहुत लड़ते झगड़ते हैं लेकिन एक संस्कृति सबको बांधे रखती है।” यह संस्कृति आखिरकार क्या है? क्या राजनैतिक शब्दावली वाली ‘सामासिक संस्कृति’ – कम्पोजिट कल्चर है। क्या विभिन्न आस्था समूहों को जोड़ गांठकर कल्पित की गई कोई अप्राकृतिक संरचना है? वस्तुतः यह विभिन्न विचारों, तमाम आस्थाओं के प्रति सम्मान भाव रखने वाली प्राचीन वैदिक संस्कृति ही है। अथर्वा ने पृथ्वी सूक्त – अथर्ववेद में गाया है “यह पृथ्वी विभिन्न भाषाएं और विभिन्न जीवनशैली वालों को पोषण देने वाली है।”
यहां अनेक बोलियां, अनेक विश्वास और अनेक रीतिरिवाज हैं। सबके प्रति प्रीतिभाव और अपनत्व ममत्व का सान्द्र घनत्व ही इस भूखण्ड की संस्कृति है। इसी संस्कृति के कारण हम भारत के लोग एक राष्ट्र हैं। भारतीय संस्कृति या हिन्दू संस्कृति के आच्छादन में सब अपने हैं। भिन्न आस्था और विश्वास के बावजूद अपने ही।नवसंवत्सर जगत् के अस्तित्वोदय का आनंदवर्द्धन स्मरण है। हिन्दू संस्कृति के ऊषा काल का पुरूश्चरण – स्मरण। हिन्दू संस्कृति भी नई नवेली ऊषा जैसी। प्रेमी इसका वरण करते हैं और शेष लोग केवल इसका परिधान ही देख पाते हैं। विश्ववारा इस संस्कृति को नमस्कार।