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जानिये देश के संसद के बारे में

भारतीय संसद के तीन अंग राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा

महाशक्ति

संसद (पार्लियामेंट) भारत का सर्वोच्‍च विधायी निकाय है। यह द्विसदनीय व्यवस्था है। भारतीय संसद में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन- लोकसभा (लोगों का सदन) एवं राज्यसभा (राज्‍यों की परिषद) होते हैं। राष्‍ट्रपति के पास संसद के दोनों में से किसी भी सदन को बुलाने या स्‍थगित करने अथवा लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। भारतीय संसद का संचालन ‘संसद भवन’ में होता है। जो कि नई दिल्ली में स्थित है। लोक सभा में राष्ट्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या ५५२ है। राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें सदस्य संख्या २५० है। राज्या सभा के सदस्यों का निर्वाचन / मनोनयन ६ वर्ष के लिए होता है। जिसके १/३ सदस्य प्रत्येक २ वर्ष में सेवानिवृत्त होते है। भारत की राजनीतिक व्‍यस्‍था को, या सरकार जिस प्रकार बनती और चलती है, उसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है।

सन 1883 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्‍दों का प्रयोग किया गया। यह नयी कौंसिल शिकायतों की जांच करने वाली और उन्‍हें दूर करने का प्रयत्‍न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी।  1857 की आजादी के लिए पहली लड़ाई के बाद 1861 का भारतीय कौंसिल अधिनियम बना। इस अधिनियम को ‘भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणापत्र’ कहा गया। जिसके द्वारा ‘भारत में विधायी अधिकारों के अंतरण की प्रणाली’ का उदघाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्‍तरों पर विधान बनाने की व्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अंग्रेजी राज के भारत में जमने के बाद पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी लोगों के रखने की बात को माना गया।

1860 और 1870 के दशको से ही भारतीयों में राजनीतिक चेतना पनपने लगी थी। 1870 के अंत में 1880 के दशक के शुरू में भारतीय जनमानस राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हो चुका था। 1885 में इस राजनीतिक चेतना ने करवट बदली। भारतीय राजनीतिक और राजनीति में सक्रिय बुद्धिजीवी, राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने के लिए एक संगठन की जरूरत महसूस किए । इसी कड़ी में ए॰ओ॰ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्‍थापना 1885 में की ताकि कौंसिल में सुधार कर सके। ब्रिटिश संसद ने ‘विधान परिषदों में भारत की जनता को वास्‍तव में प्रतिनिधित्‍व देने’ के लिए इंडियन कौंसिल्‍ज़ अधिनियम 1892 को स्‍वीकार किया। 1919 में सुधार अधिनियम और उसके अधीन कई नियम बनाए गए। जिनके कारण केंद्र में, भारतीय विधान परिषद के स्‍थान पर द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया। जिसमें एक थी राज्‍य परिषद और दूसरा थी विधान सभा। प्रत्‍येक सदन में अधिकांश सदस्‍यों का चुनाव होता था। पहली विधान सभा वर्ष 1921 में गठित हुई थी। उसके कुल 145 सदस्‍य थे। 104 निर्वाचित, 26 सरकारी सदस्‍य और 15 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्‍य।

सद भवन में भारत की संसदीय कार्यवाही होती है। संसद की इमारतों में संसद भवन, संसदीय सौध, स्‍वागत कार्यालय और निर्माणाधीन संसदीय ज्ञानपीठ अथवा संसद ग्रंथालय सम्‍मिलित हैं। इन सभी को मिलाकर ‘संसद परिसर’ कहा जाता है।

1923 में, देशबंधु चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्‍वराज पार्टी बनाई। वे सोचते थे कि ‘शत्रु के कैंप’ में घुसकर व्‍यवस्‍था को तोड़ने के लिए परिषदों में स्‍थान बनाया जाए। इसके लिए चुनाव में भाग लिया गया। स्‍वराज पार्टी को 1923 के चुनावों में बहुत सफलता मिली। स्‍वराज पार्टी ने 145 स्‍थानों में से 45 स्‍थान जीते। पार्टी केंद्रीय विधानमंडल में थी। केंद्रीय विधान सभा के नए चुनाव में कांग्रेस 1942 के ‘भारत छोड़ो’ प्रस्‍ताव को लेकर लड़ा। चुनावों में कांग्रेस को 102 में से 56 सीटें मिलीं। कांग्रेस विधायक दल के नेता शरत चन्‍द्र बोस थे। भारतीय स्‍वतंत्रता अधिनियम 1947 के अधीन कुछ परिवर्तन हुए। 1935 के अधिनियम के वे उपबंध काम के नहीं रह गए जिनके तहत गवर्नर-जनरल या गवर्नर अपने विवेकाधिकार के अनुसार अथवा अपने व्‍यक्‍तिगत विचार के अनुसार कार्य कर सकता था।

भारतीय स्‍वतंत्रता अधिनियम, 1947 में भारत की संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्‍न निकाय घोषित किया गया। 14-15 अगस्‍त 1947 की मध्‍य रात्रि को उस सभा ने देश का शासन चलाने की पूर्ण शक्‍तियां ग्रहण कर लीं। अधिनियम की धारा 8 के द्वारा संविधान सभा को पूर्ण विधायी शक्‍ति प्राप्‍त हो गई। किंतु साथ ही यह अनुभव किया गया कि संविधान सभा के संविधान-निर्माण के कार्य तथा विधानमंडल के रूप में इसके साधारण कार्य में भेद बनाए रखना जरूरी होगा।

संविधान सभा (विधायी) की एक अलग निकाय के रूप में पहली बैठक 17 नवम्बर 1947 को हुई। इसके अध्‍यक्ष सभा के प्रधान डॉ॰ राजेन्‍द्र प्रसाद थे। संविधान अध्‍यक्ष पद के लिए केवल श्री जी.वी. मावलंकर का एक ही नाम प्राप्‍त हुआ था। इसलिए उन्‍हें विधिवत चुना हुआ घोषित किया गया। 14 नवम्बर 1948 को संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रारूप समिति के सभापति बी॰आर॰ अम्‍बेडकर ने पेश किया। प्रस्‍ताव के पक्ष में बहुमत था। 26 जनवरी 1950 को स्‍वतंत्र भारत के गणराज्‍य का संविधान लागू हो गया। इसके कारण आधुनिक संस्‍थागत ढांचे और उसकी अन्‍य सब शाखा-प्रशाखाओं सहित पूर्ण संसदीय प्रणाली स्‍थापित हो गई। संविधान सभा भारत की अस्‍थायी संसद बन गई। वयस्‍क मताधिकार के आधार पर पहले आम चुनावों के बाद नए संविधान के उपबंधों के अनुसार संसद का गठन होने तक इसी प्रकार कार्य करती रही।

नए संविधान के तहत पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में हुए। पहली चुनी हुई संसद जिसके दो सदन थे, राज्यसभा और लोकसभा मई, 1952 में बनी; दूसरी लोक सभा मई 1957 में बनी; तीसरी अप्रैल 1962 में; चौथी मार्च 1967 में; पांचवी माच 1971 में; 6 मार्च 1977 में; सातवीं जनवरी 1980 में; 8 जनवरी 1985 में; नवीं दिसंबर 1989 में, दसवीं जून 1991 और ग्‍यारहवीं 1996 में बनी। 1952 में पहली बार गठित राज्यसभा एक निरंतर रहने वाला, स्‍थायी सदन है। जिसका कभी विघटन नहीं होता। हर दो वर्ष इसके एक-तिहाई सदस्‍य अवकाश ग्रहण करते हैं।

विधायिका संबंधी कार्यवाही – प्रक्रिया बिल/विधेयक कुल 4 प्रकार होते है

सामान्य बिल – यह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिए. इस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमत चाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद की सलाह पर बुला लेता है. राष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है. इसकी 6 विशेषताएँ है 1. परिभाषित हो, 2. राष्ट्रपति की अनुमति हो, 3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो, 4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो, 5.कितना बहुमत चाहिए और 6. गतिवरोध पैदा होना।

धन बिल – विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो, धन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशयक है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता है धन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकार जब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इस बिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनो सदनो द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करे या ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगा. कोई बिल धन बिल कब कहलाता है ये मामलें है 1. किसी कर को लगाना, हटाना, नियमन, 2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले, 3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना, 4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण, 5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो, 6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना, 7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न हो।

फायनेसियल बिल वह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती।

संविधान संशोधन विधेयक

अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे

विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध

जब संसद के दोनों  सदनों के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनों के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनों  सदनों की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरों पर इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है

दहेज निषेध एक्ट 1961

बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 1978

पोटा एक्ट 2002

अध्यादेश जारी करना

अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा।

यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण निम्‍न तरीके से किया जाता है –

प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है।

लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है।

राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ है।

संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण

यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है। यह सिवाय सरकारी नीतियों की घोषणा के कुछ नही होता है। सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है। यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है। संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है। यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है। इन सयुंक्त बैठकों का सभापति खुद राष्ट्रपति होता है। अभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है (जो पिछले वर्ष मे हुई थी) आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है। प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है। अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है।

वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण

अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा। अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी है। अनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है।

बजट – बजट सरकार की आय व्यय का विवरण पत्र है।

अनुमानित आय व्यय जो कि भारत सरकार ने भावी वर्ष मे करना हो।

यह भावी वर्ष के व्यय के लिये राजस्व उगाहने का वर्णन करता है।

बजट मे पिछले वर्ष के वास्तविक आय व्यय का विवरण होता है

बजट सामान्यत वित्तमंत्री द्वारा सामान्यतः फरवरी के आखरी दिन लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है उसी समय राज्यसभा मे भी बजट के कागजात रखे जाते है यह एक धन बिल है। बजट में सामान्यतः-पिछले वर्ष के वास्तविक अनुमान,वर्तमान वर्ष के संशोधित अनुमान, आगामी वर्ष के प्रस्तावित अनुमान प्रस्तुत किए जाते है। अतः बजट का संबंध 3 वर्ष के आकडो़ से होता है।

कटौती प्रस्ताव

बजट प्रक्रिया का ही भाग है केवल लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है ये वे उपकरण है जो लोकसभा सदस्य कार्यपालिका पे नियंत्रण हेतु उपयोग लाते है ये अनुदानॉ मे कटौती कर सकते है इसके तीन प्रकार है

नीति सबंधी कटौती- इस प्रस्ताव का ल्क्ष्य लेखानुदान संबंधित नीति की अस्वीकृति है यह इस रूप मे होती है ‘——-‘ मांग को कम कर मात्र 1 रुपया किया जाता है यदि इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाये तो यह सरकार की नीति संबंधी पराजय मानी जाती है उसे तुरंत अपना विश्वास सिद्ध करना होता है

किफायती कटौती- भारत सरकार के व्यय को उससीमा तक कम कर देती है जो संसद के मतानुसार किफायती होगी यह कटौती सरकार की नीतिगत पराजय नहीं मानी जाती है

सांकेतिक कटौती- इन कटौतीयों का ल्क्ष्य संसद सदस्यॉ की विशेष शिकायतें जो भारत सरकार से संबंधित है को निपटाने हेतु प्रयोग होती है जिसके अंतर्गत मांगे गये धन से मात्र 100 रु की कटौती की जाती है यह कटौती भी नीतिगत पराजय नही मानी जाती है

लेखानुदान (वोट ओन अकाउंट)

अनु 116 इस प्रावधान का वर्णन करता है इसके अनुसार लोकसभा वोट ओन अकाउंट नामक तात्कालिक उपाय प्रयोग लाती है इस उपाय द्वारा वह भारत सरकार को भावी वित्तीय वर्ष मे भी तब तक व्यय करने की छूट देती है जब तक बजट पारित नही हो जाता है यह सामान्यत बजट का अंग होता है किंतु यदि मंत्रिपरिषद इसे ही पारित करवाना चाहे तो यही अंतरिम बजट बन जाता है जैसा कि 2004 मे एन.डी.ए. सरकार के अंतिम बजट के समय हुआ था फिर बजट नयी यू.पी.ए सरकार ने पेश किया था। वोट ओन क्रेडिट [प्रत्यानुदान] लोकसभा किसी ऐसे व्यय के लिये धन दे सकती है जिसका वर्णन किसी पैमाने या किसी सेवा मद मे रखा जा सक्ना संभव ना हो मसलन अचानक युद्ध हो जाने पे उस पर व्यय होता है उसे किस शीर्षक के अंतर्गत रखे?यह लोकसभा द्वारा पारित खाली चैक माना जा सकता है आज तक इसे प्रयोग नही किया जा सका है

जिलेटीन प्रयोग—समयाभाव के चलते लोकसभा सभी मंत्रालयों के व्ययानुदानों को एक मुश्त पास कर देती है उस पर कोई चर्चा नही करती है यही जिलेटीन प्रयोग है यह संसद के वित्तीय नियंत्रण की दुर्बलता दिखाता है।

संसद मे लाये जाने वाले प्रस्ताव

अविश्वास प्रस्ताव – लोकसभा के क्रियांवयन नियमॉ मे इस प्रस्ताव का वर्णन है विपक्ष यह प्रस्ताव लोकसभा मे मंत्रिपरिषद के विरूद्ध लाता है इसे लाने हेतु लोकसभा के 50 सद्स्यॉ का समर्थन जरूरी है यह सरकार के विरूद्ध लगाये जाने वाले आरोपॉ का वर्णन नही करता है केवल यह बताता है कि सदन मंत्रिपरिषद मे विश्वास नही करता है एक बार प्रस्तुत करने पर यह प्रस्ताव् सिवाय धन्यवाद प्रस्ताव के सभी अन्य प्रस्तावॉ पर प्रभावी हो जाता है इस प्रस्ताव हेतु पर्याप्त समय दिया जाता है इस पर् चर्चा करते समय समस्त सरकारी कृत्यॉ नीतियॉ की चर्चा हो सकती है लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर दिये जाने पर मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को त्याग पत्र सौंप देती है संसद के एक सत्र मे एक से अधिक अविश्वास प्रस्ताव नही लाये जा सकते है।

विश्वास प्रस्ताव- लोकसभा नियमॉ मे इस प्रस्ताव का कोई वर्णन नही है यह आवश्यक्तानुसार उत्पन्न हुआ है ताकि मंत्रिपरिषद अपनी सत्ता सिद्ध कर सके यह सदैव मंत्रिपरिषद लाती है इसके गिरजाने पर उसे त्याग पत्र देना पडता है।

निंदा प्रस्ताव- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाकर सरकार की किसी विशेष नीति का विरोध/निंदा करता है इसे लाने हेतु कोई पूर्वानुमति जरूरी नही है यदि लोकसभा मे पारित हो जाये तो मंत्रिपरिषद निर्धारित समय मे विश्वास प्रस्ताव लाकर अपने स्थायित्व का परिचय देती है है उसके लिये यह अनिवार्य है।

काम रोको प्रस्ताव- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाता है यह एक अद्वितीय प्रस्ताव है जिसमे सदन की समस्त कार्यवाही रोक कर तात्कालीन जन मह्त्व के किसी एक मुद्दे को उठाया जाता है प्रस्ताव पारित होने पर सरकार पे निंदा प्रस्ताव के समान प्रभाव छोडता है।

संसद का कार्यक्रम और प्रक्रिया

 संसदीय कार्य दो मुख्‍य शीर्षों में बांटा जा सकता है। सरकारी कार्य और गैर-सरकारी कार्य। सरकारी कार्य को फिर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है,

ऐसे कार्य जिनकी शुरूआत सरकार द्वारा की जाती है,

ऐसे कार्य जिनकी शुरूआत गैर-सरकारी सदस्‍यों द्वारा की जाती है परंतु जिन्‍हें सरकारी कार्य के समय में लिया जाता है जैसे प्रश्‍न, स्‍थगन प्रस्‍ताव, अविलंबनीय लोक महत्‍व के मामलों की ओर ध्‍यान दिलाना, विशेषाधिकार के प्रश्‍न, अविलंबनीय लोक महत्‍व के मामलों पर चर्चा, मंत्रिपरिषद में अविश्‍वास का प्रस्‍ताव, प्रश्‍नों के उत्तरों से उत्‍पन्‍न होने वाले मामलों पर आधे घंटे की चर्चाएं इत्‍यादि।

गैर-सरकारी सदस्‍यों के कार्य, अर्थात विधेयकों और संकल्‍पों पर प्रत्‍येक शुक्रवार के दिन या किसी ऐसे दिन जो अध्‍यक्ष निर्धारित करे ढाई घंटे तक चर्चा की जाती है। सदन में किए जाने वाले विभिन्‍न कार्यों के लिए समय की सिफारिश सामान्‍यतः कार्य मंत्रणा समिति द्वारा की जाती है। प्राय: हर सप्‍ताह एक बैठक होती है।

संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही की छपी हुई प्रतियां सामान्‍यतः बैठक के बाद एक मास के अंदर उपलब्‍ध करा दी जाती हैं। कार्यवाही को टेप रिकार्ड किया जाता है। वाद विवाद के अधिवेशनवार छपे हुए खंड हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा में उपलब्‍ध होते हैं।

संसद के कार्य का संचालन करने की भाषाएं हिंदी तथा अंग्रेजी हैं। किंतु पीठासीन अधिकारी ऐसे सदस्‍य को, जो हिंदी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्‍त अभिव्‍यक्‍ति नहीं कर सकता हो, अपनी मातृ-भाषा में संसद को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। दोनों सदनों में 12 भाषाओं को हिंदी तथा अंग्रेजी में साथ साथ भाषांतर करने की सुविधाएं उपलब्‍ध हैं।

संसद में प्रश्‍न पूछना

सरकार अपनी प्रत्‍येक भूल चूक के लिए संसद के प्रति और संसद के द्वारा लोगों के प्र‍ति उत्तरदायी होती है। सदन के सदस्‍य इस अधिकार का प्रयोग, अन्‍य बातों के साथ साथ, संसदीय प्रश्‍नों के माध्‍यम से करते हैं। संसद सदस्‍यों को लोक महत्‍व के मामलों पर सरकार के मंत्रियों से जानकारी प्राप्‍त करने के लिए पूछने का अधिकार होता है। जानकारी प्राप्‍त करना प्रत्‍येक गैर-सरकारी सदस्‍य का संसदीय अधिकार है। संसद सदस्‍य के लिए लोगों के प्रतिनिधि के रूप में यह आवश्‍यक होता है कि उसे अपनी जिम्‍मेदारियों के पालन के लिए सरकार के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी हो। प्रश्‍न पूछने का मूल उद्देश्‍य लोक महत्‍व के किसी मामले पर जानकारी प्राप्‍त करना और तथ्‍य जानना है। दोनों सदनों में प्रत्‍येक बैठक के प्रारंभ में एक घंटे तक प्रश्‍न किए जाते हैं। और उनके उत्तर दिए जाते हैं। इसे ‘प्रश्‍नकाल’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्‍त, खोजी और अनुपूरक प्रश्‍न पूछने से मंत्रियों का भी परीक्षण होता है कि वे अपने विभागों के कार्यकरण को कितना समझते हैं।

प्रश्‍नकाल संसद की कार्यवाहियों का सबसे अधिक दिलचस्‍प अंग है। लोगों के लिए समाचार पत्रों के लिए और स्‍वयं सदस्‍यों के लिए कोई अन्‍य कार्य इतनी दिलचस्‍पी पैदा नहीं करता जितनी कि प्रश्‍नकाल पैदा करता है। इस काल के दौरान सदन का वातावरण अनिश्‍चित होता है। कभी अचानक तनाव का बवंडर उठ खड़ा होता है तो कभी कहकहे लगने लगते हैं। कभी कभी किसी प्रश्‍न पर होने वाले कटु तर्क-वितर्क से उत्तेजना पैदा होती है। ऐसी हालत सदस्‍यों या मंत्रियों की हाजिर-जवाबी और विनोदप्रियता से दूर हो जाती है। यही कारण है कि प्रश्‍नकाल के दौरान न केवल सदन कक्ष बल्‍कि दर्शक एवं प्रेस गैलरियां भी सदा लगभग भरी रहती हैं।

कुछ प्रश्‍नों का मौखिक उत्तर दिया जाता है। इन्‍हें तारांकित प्रश्‍न कहा जाता है। अतारांकित प्रश्‍नों का लिखित उत्तर दिया जाता है। यह बात निश्‍चित रूप से कही जा सकती है कि सदस्‍य प्रश्‍न पूछने के अधिकार का प्रयोग करने में भारी रूचि दिखाते रहे हैं। चूंकि प्रश्‍नों की प्रक्रिया अपेक्षतः सरल और आसान है। अत: यह संसदीय प्रक्रिया के अन्‍य उपायों की तुलना में संसद सदस्‍यों में अधिकाधिक प्रिय होती जा रही है।

शून्‍यकाल (जीरो आवर)

संसद के दोनों सदनों में प्रश्‍नकाल के ठीक बाद का समय आमतौर पर ‘शून्‍यकाल’ अथवा जीरो आवर के नाम से जाना जाने लगा है। यह एक से अधिक अर्थों में शून्‍यकाल होता है। 12 बजे दोपहर का समय न तो मध्‍याह्न पूर्व का समय होता है और न ही मध्‍याह्न पश्‍चात का समय। ‘शून्‍यकाल’ 12 बजे प्रारंभ होने के कारण इस नाम से जाना जाता है इसे ‘आवर’ भी कहा गया क्‍योंकि पहले ‘शून्‍यकाल’ पूरे घंटे तक चलता था, अर्थात 1 बजे दिन में सदन का दिन के भोजन के लिए अवकाश होने तक। यह कोई नहीं कह सकता कि इस काल के दौरान कौन-सा मामला उठ खड़ा हो या सरकार पर किस तरह का आक्रमण कर दिया जाए। नियमों में ‘शून्‍यकाल’ का कहीं भी कोई उल्‍लेख नहीं है।

प्रश्‍नकाल के समाप्‍त होते ही सदस्‍यगण ऐसे मामले उठाने के लिए खड़े हो जाते हैं जिनके बारे में वे महसूस करते हैं कि कार्यवाही करने में देरी नहीं की जा सकती। हालाँकि इस प्रकार मामले उठाने के लिए नियमों में कोई उपबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रथा के पीछे यही विचार रहा है कि ऐसे नियम जो राष्‍ट्रीय महत्‍व के मामले या लोगों की गंभीर शिकायतों संबंधी मामले सदन में तुरंत उठाए जाने में सदस्‍यों के लिए बाधक होते हैं, वे निरर्थक हैं। नियमों की दृष्‍टि से तथाकथित ‘शून्‍यकाल’ एक अनियमितता है। मामले चूंकि बिना अनुमति के या बिना पूर्व सूचना के उठाए जाते हैं अतः इससे सदन का बहुमूल्‍य समय व्‍यर्थ जाता है। इससे सदन के विधायी, वित्तीय और अन्‍य नियमित कार्य का अतिक्रमण होता है। अब तो शून्‍यकाल में उठाये जाने वाले कुछ मामलों की पहले से दी गई सूचना के आधार पर, अध्‍यक्ष की अनुमति से, एक सूची भी बनने लगी है।

संसद में जनहित के मामले

संसद के दोनों सदनों के नियमों में लोक महत्‍व के मामले बिना देरी के और कई प्रकार से उठाने की व्‍यवस्‍था है। जो विभिन्‍न प्रक्रियाएं प्रत्‍येक सदस्‍य को उपलब्‍ध रहती हैं वे इस प्रकार हैं:

स्‍थगन प्रस्‍ताव इसके द्वारा लोक सभा के नियमित काम-काज को रोककर तत्‍काल महत्‍वूपर्ण मामले पर चर्चा कराई जा सकती है।

ध्‍यानाकर्षण प्रस्‍ताव  इसके द्वारा कोई भी सदस्‍य सरकार का ध्‍यान तत्‍काल महत्‍व के मामले की और दिला सकता है। मंत्री को उस मामले में बयान देना होता है। ध्‍यानाकर्षण करने वाले प्रत्‍येक सदस्‍य को एक प्रश्‍न पूछने का अधिकार होता है।

आपातकालीन चर्चाएं इनके द्वारा तत्‍काल महत्‍व के प्रश्‍नों पर एक घंटे की चर्चा की जा सकती है। हालाँकि इस पर मतदान नहीं होता।

विशेष उल्‍लेख हमारे निर्वाचित प्र‍तिनिधि किस तरह ऐसे मामले उठाने का प्रयास करते हैं जिनका नियमों एवं विनियमों की व्‍याख्‍या से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन ये मामले उस समय उन्‍हें और उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को उत्तेजित कर रहे होते हैं। जो मामले व्‍यवस्‍था के प्रश्‍न नहीं होते या जो प्रश्‍नों, अल्‍प-सूचना प्रश्‍नों, ध्‍यानाकर्षण प्रस्‍तावों आदि से संबंधित नियमों के अधीन नहीं उठाए जा सकते, वे इसके अधीन उठाए जाते हैं।

प्रस्‍ताव (मोशन) सदन लोक महत्‍व के विभिन्‍न मामलों पर अनेक फैसले करता है और अपनी राय व्‍यक्‍त करता है। कोई भी सदस्‍य एक प्रस्‍ताव के रूप में कोई सुझाव सदन के समक्ष रख सकता है। जिसमें उसकी राय या इच्‍छा दी गई हो। यदि सदन उसे स्‍वीकार कर लेता है तो वह समूचे सदन की राय या इच्‍छा बन जाती है। अंत: मोटे तौर पर ‘प्रस्‍ताव’ सदन का फैसला जानने के लिए सदन के सामने लाया जाता है। प्रस्‍ताव वास्‍तव में संसदीय कार्यवाही का आधार होते हैं। लोक महत्‍व का कोई भी मामला किसी प्रस्‍ताव का विषय हो सकता है। प्रस्‍ताव भिन्‍न भिन्‍न सदस्‍यों द्वारा भिन्‍न भिन्‍न प्रयोजनों से पेश किए जा सकते हैं। प्रस्‍ताव मंत्रियों द्वारा पेश किए जा सकते हैं और गैर-सरकारी सदस्‍यों द्वारा भी। गैर-सरकारी सदस्‍यों द्वारा पेश किए जाने वाले प्रस्‍तावों का उद्देश्‍य सामान्‍यतः किसी मामले पर सरकार की राय या विचार जानना होता है।

संकल्‍प प्रस्‍ताव संकल्‍प भी एक प्रक्रियागत उपाय है यह आम लोगों के हित के किसी मामले पर सदन में चर्चा उठाने के लिए सदस्‍यों और मंत्रियों को उपलब्‍ध है। सामान्‍य रूप के प्रस्‍तावों के समान संकल्‍प, राय या सिफारिश की घोषणा के रूप में हो सकता है। या किसी ऐसे अन्‍य रूप में हो सकता है जैसा कि अध्‍यक्ष उचित समझे।

अविश्‍वास प्रस्‍ताव मंत्रिपरिषद तब तक पदासीन रहती है जब तक उसे लोक सभा का विश्‍वास प्राप्‍त हो। लोक सभा द्वारा मंत्रिपरिषद में अविश्‍वास व्‍यक्‍त करते ही सरकार को संवैधानिक रूप से पद छोड़ना होता है। नियमों में इस आशय का एक प्रस्‍ताव पेश करने का उपबंध है जिसे ‘अविश्‍वास प्रस्‍ताव’ कहा जाता है। राज्यसभा को अविश्‍वास प्रस्‍ताव पर विचार करने की शक्‍ति प्राप्‍त नहीं है।

निंदा प्रस्‍ताव अविश्‍वास के प्रस्‍ताव से भिन्‍न होता है। अविश्‍वास के प्रस्‍ताव में उन कारणों का उल्‍लेख नहीं होता जिन पर वह आधारित हो। परंतु निंदा प्रस्‍ताव में ऐसे कारणों या आरोपों का उल्‍लेख करना आवश्‍यक होता है। यह प्रस्‍ताव कतिपय नीतियों और कार्यों के लिए सरकार की निंदा करने के इरादे से पेश किया जाता है। निंदा प्रस्‍ताव मंत्रिपरिषद के विरूद्ध या किसी एक मंत्री के विरूद्ध या कुछ मंत्रियों के विरूद्ध पेश किया जाता है। उसमें किसी मंत्री या मंत्रियों की विफलता पर सदन द्वारा खेद, रोष या आश्‍चर्य प्रकट किया जाता है।

संसद में बजट

सरकार को शासन, सुरक्षा और जन कल्‍याण के बहुत से काम करने होते हैं। इन सबके लिए बहुत साधन चाहिए। ये आएं कहाँ से? सरकार जनता से कर वसूलती है। जरूरत पड़ने पर कर्जे भी लेती है। क्‍योंकि हम संसदीय व्‍यवस्‍था में रहते हैं, सरकार के लिए यह जरूरी है कि कोई भी कर लगाने या कोई भी खर्चा करने से पहले वह संसद की मंजूरी ले। इस मंजूरी को लेने के लिए ही हर वर्ष सरकार एक बजट यानी पूरे साल की आमदनी और खर्चे का लेखा जोखा संसद में पेश करती है।

रेल बजट और सामान्‍य बजट अलग अलग पेश किए जाते हैं। सामान्‍य बजट प्रायः फरवरी के अंतिम कार्य दिवस पर लाया जाता है। रेल बजट उससे कुछ दिन पहले आ जाता है। वित्तीय वर्ष इस समय प्रत्‍येक साल की पहली अप्रैल से आरंभ होता है। बजट में इस आशय का प्रस्‍ताव होता है कि आने वाले साल के दौरान किस मद पर कितना धन खर्च किया जाना है। उसमें कितना धन किस तरीके से आएगा या कहाँ से जुटाया जाएगा। बजट के आगामी वर्ष के लिए अनुदान दिए जाते हैं। सरकार को अपनी वित्तीय और आर्थिक नीतियों तथा कार्यक्रमों और उनकी व्‍याख्‍या करने का अवसर मिलता है। साथ ही, संसद को उन पर विचार करने और उनकी आलोचना करने का भी अवसर मिलता है।

बजट पास करने की प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों में गंभीर एवं पूर्ण चर्चा होती है। यह बजट पेश किए जाने के कुछ दिन बाद होती है। चर्चा सामान्‍य वाद विवाद से आरंभ होती है। यह संसद के दोनों सदनों में तीन या चार दिन तक चलती है। प्रथा यह है कि इस अवस्‍था में सदस्‍य सरकार की राजकोषीय औ�

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