अमित शाह जी ! इलाज वही होना चाहिए जो सरदार पटेल ने नवाब हैदराबाद का किया था
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन की कार्यशैली प्रारंभ से ही देश के विरोध में काम करने की रही है। जिस समय नवाब हैदराबाद के विरुद्ध 1938 में आर्य समाज और हिंदू महासभा के द्वारा संयुक्त रुप से सत्याग्रह का आयोजन किया गया था उस समय भी इस संगठन के नेता देश विरोधी कार्य कर रहे थे। उस समय मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष नवाब बहादुर यार जंग आर्य समाज को फिरकापरस्ती और दो कौमों के बीच द्वेष की भावना को बढ़ाने वाले संगठन के रूप में स्थापित किया करते थे। नवाब बहादुर यार जंग ने राज्य में आर्य समाज द्वारा चलाए गए आंदोलन के विरोध में बोलते हुए उस समय कहा था कि रियासत हैदराबाद में हिंदू और मुसलमान शीरो शक्कर की तरह मिले हुए हैं, लेकिन यहां एक जमात (अर्थात आर्य समाज ) है जो दोनों को मिलने नहीं देती।
वास्तविकता यह है कि ओवैसी की पार्टी हो या कोई और मुस्लिम संगठन हो या कोई मुस्लिम नेता हो- कड़वाहट, कटुता और अलगाववाद स्वयं इनकी वाणी में छुपा होता है। इन्हे हिंदुओं का वह संगठन अच्छा लगता है जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश का कलेजा इन्हें खाने देता है और जो डंडा लेकर इस बात की रखवाली के लिए बैठ जाता है कि कलेजा नहीं खाने दूंगा, उसे यह एक पल के लिए भी पसंद नहीं करते । इनके भावों में और विचारों में हिंदू हिंदी हिंदुस्तान से दूरी बनाकर रहने की भावना काम करती रहती है। इनके भीतरी जगत की यही भावना राष्ट्र की अमूर्त भावना को प्रभावित करती है। क्योंकि राष्ट्र अमूर्त भावना का नाम है, जिसे अमूर्त ही तोड़ फोड़ देती है। इसके विपरीत वैदिक धर्मी आर्य अर्थात हिंदू समाज के लोग अमूर्त भावों में भी देश के प्रति समर्पित होकर रहने का संकल्प लेते हैं। उनका देश के प्रति समर्पण और इस्लामिक फंडामेंटलिज्म से प्रभावित किसी भी मुसलमान का देश के प्रति अलगाव देश में अमूर्त धरातल पर उपद्रव का एक महत्वपूर्ण कारण है। उपद्रव के इस अमूर्त कारण को मिटाने के लिए शिक्षा संस्कार समान किया जाना देश के लिए परम आवश्यक है।
जिस समय आर्य समाज नवाब हैदराबाद के विरुद्ध आंदोलन कर रहा था उस समय चाहे इत्तेहादुल मुस्लिमीन देश और आर्य समाज के विरोध में ही क्यों न खड़ा हो, परंतु उस समय भी कुछ ऐसे राष्ट्रभक्त मुस्लिम थे जो देश के लिए आर्य समाज या हिंदू महासभा के साथ खड़े होकर कार्य करने में गौरव अनुभव कर रहे थे। कांग्रेस के बड़े नेता मौलाना सिराज उल हसन तिर्मीजी कांग्रेसी होकर भी आर्य समाज और हिंदू महासभा के इस कार्य का समर्थन कर रहे थे। उन्होंने उस समय प्रांत के मुसलमानों को भरसक प्रयास करते हुए समझाने का प्रयास किया था कि वह नवाब हैदराबाद का साथ छोड़कर अपने मूल हिंदू समाज के साथ उठ खड़े होने का संकल्प लें। देश के प्रति गद्दारी उचित नहीं है, बल्कि देश के प्रति समर्पण का भाव प्रकट करना हम सबकी जिम्मेदारी है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए किया जाना भी आवश्यक है कि हम सबके पूर्वज हिंदू ही थे।उस समय कराची में आर्य समाज के सत्संग में व्याख्यान देते हुए मियां मोहसिन अली ने भी स्पष्ट घोषणा की थी कि मैं स्वयं हैदराबाद सत्याग्रह में जाने वालों के लिए तैयार हूं ।
पंजाब प्रांत के सोशलिस्ट कार्यकर्ता मुंशी अहमदी ने हैदराबाद के सत्याग्रह को पूर्ण रूप से उचित बतलाया था। उन्होंने इसके समर्थन में आकर उन मुसलमानों की निंदा की थी जो उस समय सत्याग्रह का विरोध कर रहे थे। उन्होंने स्पष्ट किया था कि कश्मीर आंदोलन को जायज कहने वालों को हैदराबाद के आर्य सत्याग्रह के खिलाफ बोलने का कोई हक नहीं है। ऐसे उदाहरणों से पता चलता है कि भारतवर्ष में दाराशिकोह की परंपरा को स्वीकार करने वाले मुस्लिम भी उसी प्रकार हर काल में रहे हैं जिस प्रकार आज आरिफ मोहम्मद खान हमारे बीच में रहकर मां भारती के प्रति सम्मान व्यक्त करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते हैं।
इसके उपरांत भी यह सर्वमान्य सत्य है कि औरंगजेब की परंपरा में विश्वास रखने वाले और इस्लामिक फंडामेंटलिज्म पर काम करने वाले लोगों का दाराशिकोह की परंपरा पर काम करने वाले लोगों की अपेक्षा वर्चस्व स्थापित रहा है। आज असदुद्दीन ओवैसी अकबरुद्दीन ओवैसी औरंगजेब की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने फतेह आजमगढ़ और रामपुर में अभी हाल ही में हुए चुनाव और 26 जून को आए हुए उपचुनावों के परिणाम पर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दी है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह इस्लामिक अलगाववाद के अलंबरदार बने हुए हैं। 23 में अमन चैन स्थापित करके आगे बढ़ने का विचार उनके यहां दूर-दूर तक नहीं है। यदि यह पूछा जाए कि ओवैसी बंधु इस प्रकार का आचरण क्यों करते रहे हैं या क्यों कर रहे हैं? तो इसका उत्तर केवल एक है कि उनके संगठन के संस्कार ही इस प्रकार के हैं जिसमें मुसलमान को हिंदू से दूर रहने की प्रेरणा दी जाती है। उनका संगठन राष्ट्र के लिए समर्पित होकर कार्य करने वाला संगठन नहीं है बल्कि मुसलमानों की एकता और उनकी उन्नति के लिए काम करने वाला संगठन है। इस प्रकार की सोच इस्लामिक फंडामेंटलिज्म का एक अनिवार्य भाग है। इस प्रकार इत्तेहादुल मुस्लिमीन अलगाववाद के आधार पर जन्मा हुआ संगठन है, जिसे कांग्रेस के द्वारा समर्थन दे देकर पाला पोषा गया है।
इत्तेहादुल मुस्लिमीन के इतिहास के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि इसके सर्वेसर्वा नवाब बहादुर यार जंग का हैदराबाद आंदोलन से पूर्व एक पत्र पकड़ा गया था, जिसमें उन्होंने रजाकार के कार्यकर्ताओं को लिखा था कि चाहे कुछ भी हो जिले के हजारों हरिजनों को मुसलमान बनाया जाए। उस समय यह पत्र आर्य हिंदू कार्यकर्ताओं के हाथ लग गया था। जिन्होंने इस प्रकार के षड्यंत्र को समाप्त करने का बीड़ा उठा लिया। उस समय के बारे में हमें पता चलता है कि आर्य युवाओं के इस प्रकार के संकल्प के परिणाम स्वरूप 30,000 दलित मुस्लिमों का शुद्धिकरण करके उनकी घर वापसी कराई गई थी। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध न्यायाधीश नरेंद्र चपलगांवकर ने इस पर लिखा था कि – ‘30000 दलित मुस्लिमों को दोबारा शुद्ध कर उन्हें हिंदू धर्म में फिर से पुनर्प्रवेशित करने का महान कार्य आर्य समाज ने बड़ी हिम्मत के साथ किया।’
उस समय तेलंगाना के महबूबनगर और आदिलाबाद का कोतवाल असदुल्ला खान था। यह कोतवाल बहुत ही निर्मम और हिंदुओं के प्रति अत्याचार करने वाली प्रवृत्ति का शिकार था। यद्यपि उसका दादा हिंदू था, परंतु वह हिंदुओं के प्रति घृणा का भाव रखता था। उसने उन जिलों के हजारों मंदिर और मूर्तियों को तोड़कर समाप्त कर दिया था। उसके इस प्रकार के कार्यों का समर्थन इत्तेहादुल मुस्लिमीन के द्वारा भी किया गया था। नवाब बहादुर यार जंग ने 1929 से हैदराबाद रियासत में तबलीग का कार्य शुरू करवाया था। तब उसने एक भाषण में कहा था कि इस्लाम ने हर एक मुसलमान को यह जिम्मेदारी दी है कि वह गैर मुस्लिमों को इस्लाम में दीक्षित करे । हिंदू हमारा शिकार है और हम मुसलमान शिकारी हैं। हिंदुओं का शिकार करना हमारा हक बनता है। अल्लाह का हुक्म है कि इन काफिरों को मुसलमान बनाओ। अगर नहीं बने तो उसका सर कलम कर दो। इस्लाम में काफिरों को जिंदा रहने का हक नहीं है।’
इत्तेहादुल मुस्लिमीन का वास्तविक उद्देश्य यही है ,जो उस समय इस भाषण में नवाब बहादुर यार जंग ने कहा था। यदि आज ओवैसी बंधु इत्तेहादुल मुस्लिमीन की ओर से हिंदुस्तान में राजनीति कर रहे हैं तो उनकी राजनीति का अंतिम उद्देश्य यही है कि हिंदू हमारा शिकार है और हम उसके शिकारी हैं।
इस संबंध में इतिहासकार डॉ चंद्रशेखर लोखंडे ने ‘ हैदराबाद मुक्तिसंग्राम का इतिहास’ नामक पुस्तक में स्पष्ट किया है कि 1929 से 1940 तक इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष नवाब बहादुर यार जंग थे । उन्होंने तकरीर और तकरार से हिंदुओं का धर्मांतरण किया। जब उनकी मृत्यु हो गई तो उसके बाद लातूर के बेजवाबदार वक्तव्य के लिए कुप्रसिद्ध कासिम रिजवी के हाथों में इस इत्तेहाद की कमान आई। उसने 17 सितंबर 1948 तक अर्थात हैदराबाद मुक्त होने तक तलवार के जोर पर हजारों हिंदुओं के धर्म परिवर्तन की मुहिम चलाई, लेकिन आर्य हिंदू नवयुवकों ने इन दोनों के इरादों को नाकाम कर दिया। 1946 से 1948 तक 200000 रजाकारों की फौज खड़ी कर भारतवर्ष के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को चुनौती दी गई थी। लेकिन हमारे सैनिकों ने अर्थात आर्य हिंदू युवकों ने इस सेना को उल्टे पांव भागने के लिए मजबूर कर दिया था। तब भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल के पैरों में लोटते हुए आखरी निजाम मीर उस्मान अली खान ने कहा था कि इस दो कौड़ी के आदमी (कासिम रिजवी ) ने मेरी सल्तनत का सत्यानाश कर दिया।
आज के गृहमंत्री अमित शाह से भी यही उम्मीद की जाती है कि वह सरदार पटेल के पैरों में लोटते हुए अंतिम नवाब हैदराबाद के इन्हीं शब्दों को ओवैसी बंधुओं से भी कहलवा दें।
क्योंकि यह वही लोग हैं जो कासिम रिजवी की भाषा बोल रहे हैं और अपने देशविरोधी वक्तव्यों के लिए कुप्रसिद्ध हो चुके हैं।
अभी हाल ही में राजस्थान के उदयपुर में जिस प्रकार एक हिंदू युवक की मुस्लिमों द्वारा हत्या की गई है, उसके पीछे इसी मानसिकता का हाथ है। यद्यपि इस हत्याकांड के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने शानदार शब्दों का प्रयोग किया है, परंतु यह सब केवल एक दिखावा है।
यदि अमित शाह सरदार पटेल वाले इतिहास को पुनः रच देते हैं तो निश्चित रूप से भारत में इस्लामिक आतंकवाद और अलगाववाद को मिटाने में बड़ी कामयाबी मिल सकती है।
अंत में इतना ही कहूंगा :-
काम कर वतन की खातिर जिंदगी है कौम की,
हर सुबह हो कौम की और शाम भी हो कौम की।
सेवक है तू भी कौम का इसका तनिक ख्याल रख,
रोज अपनी बंदगी में दुआ किया कर कौम की ।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत