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कविता

गीता मेरे गीतों में, गीत संख्या …. 12

समत्व योग

समाधि अवस्था है वही जब बुद्धि टिके एक देश में,
सुख दु:ख का भी ना बोध हो मन शान्त रहे क्लेश में,
चेतना जुड़े ब्रह्म से,रमना छोड़ देती सांसारिक द्वेष में,
कर्म योगी मगन रहता सदा उस ब्रह्मानंद विशेष में।।

जब मन निष्काम हो गया तो बुद्धि में आये पवित्रता,
सात्विकता की वृद्धि से व्यक्ति में आती सच्चरित्रता ,
संभव यह संयोग तब है , जब योग में हो सच्ची निष्ठा,
योग निष्ठ व्यक्ति ही पाता, ईश्वर की अविचल संपदा।।

आसक्ति फल की छोड़कर जब कर्म करता है मनुज,
भाव निष्कामता का है यही, होते सकाम कर्म तुच्छ,
परमात्मा है सर्वत्र व्यापक- ऐसा जान कर्म करो तुम,
जो भी दिया है इष्ट ने उसे सहज करो स्वीकार तुम।।

जो भी कमाते जा रहे कुछ दान भी करते चलो,
जो भी मिले दु:खी दीन तुमको विपदा सदा हरते चलो,
शुभ कर्म -संध्या- प्रार्थना और उपासना करते चलो,
आयु मेरी सौ वर्ष हो – ऐसा भाव ह्रदय में रखते चलो।।

आने न दो अपने निकट – बुरे कर्म के किसी भाव को,
आसरा दुष्कर्म का बनने न दो हृदय के दिव्य भाव को,
ईश्वर सदा तुम्हें देखता – निकट समझो अपने आपको,
स्वीकार उसकी सत्ता करो – खुद से दूर करो पाप को।।

फ़ल का संग भाव त्याग दो- सुख दु:ख में समभाव हो,
समत्व योग में बुद्धि रमे – रखो मगन अपने आप को,
फीका न पड़ने दो कभी जीने के अपने चाव को,
ऋषियों से चलो सीखते – जीने के पुरुषार्थी भाव को।।

यह कविता मेरी अपनी पुस्तक गीता मेरे गीतों में से ली गई है। डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा इस पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। – डॉक्टर राकेश कुमार आर्य, संपादक : उगता भारत

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