डॉ राधेश्याम द्विवेदी
9.
राजा दिलीप कालीन वशिष्ठ अथर्वनिधि( द्वितीय):-
ये वशिष्ठ राजा दिलीप के समय हुए, जिन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था।दिलीप इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा थे जिन्हें ‘खटवांग’ भी कहते हैं। उनकी पत्नी का नाम सुदक्षिणा था। दिलीप की परम कामना यही थी कि उनकी प्रिय पत्नी सुदक्षिणा उनके समान ही तेजस्वी, ओजस्वी पुत्र को जन्म दे। राज्य भार सौंप देने पर उन्होंने महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में जाकर उनसे परामर्श करने का निश्चय किया। उनके समीप पहुंचने पर राजा और उनकी पत्नी मगधकुमारी सुदक्षिणा ने कुलगुरु तथा उनकी पत्नी के चरण स्पर्श कर उनको प्रणाम किया। महर्षि वसिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती ने हृदय से उनका स्वागत किया। गुरु ने आने का कारण पूछा तो राजा ने अपने निःसन्तान होने की बात बताई । तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे राजन ! तुमसे एक अपराध हुआ है, इसलिए तुम्हारी अभी तक कोई संतान नहीं हुई है ।एक बार की बात है, जब तुम देवताओं की एक युद्ध में सहायता करके लौट रहे थे । तब रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे देवताओं को भोग और मोक्ष देने वाली कामधेनु विश्राम कर रही थी और उनकी सहचरी गौ मातायें निकट ही चर रही थी। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने शीघ्रतावश अपना विमान रोककर उन्हें प्रणाम नहीं किया ।” महर्षि वशिष्ठ की बात सुनकर राजा दिलीप बड़े दुखी हुए। उपाय पूछने पर महर्षि वशिष्ठ बोले – “ एक उपाय है राजन ! ये है मेरी गाय नंदिनी है जो कामधेनु की ही पुत्री है। इसे ले जाओ और इसके संतुष्ट होने तक दोनों पति-पत्नी इसकी सेवा करो और इसी के दुग्ध का सेवन करो । जब यह संतुष्ट होगी तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी ।
एक दिन संयोग से एक सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण कर दिया और उसे दबोच लिया । उस समय राजा दिलीप कोई अस्त्र – शस्त्र चलाने में भी असमर्थ हो गया । कोई उपाय न देख राजा दिलीप सिंह से प्रार्थना करने लगे – “ हे वनराज ! कृपा करके नंदिनी को छोड़ दीजिये, यह मेरे गुरु वशिष्ठ की सबसे प्रिय गाय है ।आप इसके बदले मुझे खा लो, लेकिन मेरे गुरु की गाय नंदिनी को छोड़ दो ।”इसके बाद नंदिनी गाय बोली – “ उठो राजन ! यह मायाजाल, मैंने ही आपकी परीक्षा लेने के लिए रचा था । जाओ राजन ! तुम दोनों दम्पति ने मेरे दुग्ध पर निर्वाह किया है अतः तुम्हें एक गुणवान, बलवान और बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति होगी ।” इतना कहकर नंदिनी अंतर्ध्यान हो गई। उसके कुछ दिन बाद नंदिनी के आशीर्वाद से महारानी सुदक्षिणा ने एक पुत्र को जन्म दिया, रघु के नाम से विख्यात हुआ और उसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है ।
10.
महाराज दशरथ और राम के समय के वशिष्ठ:-
ये वशिष्ठ ब्रहमा के हवन कुण्ड से ही दूसरी बार जन्म लिये थे। इस बार उनकी पत्नी का नाम अक्षमाला था। जो अरुन्धती का पुनर्जन्म था। इस कारण इन्हें अग्निपुत्र भी कहा गया है। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- ‘इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।’ निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्य वंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देखरेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ।राम आदि का नामकरण किया, शिक्षा-दीक्षा दी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता। वे दशरथ से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे राम आदि चार पुत्र हुए। अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही ‘ रामराज्य’ की स्थापना संभव हुई। महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न कराया था। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। भगवान राम के समय में हुए वाशिष्ठ को महर्षि वशिष्ठ कहते थे। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये। उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को संभाला, विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को ऋषि तो माना । पौराणिक श्रुति इस प्रकार है कि वनवास के दौरान जब युद्ध में रामचन्द्र जी द्वारा रावण मार दिया गया तो रामचन्द्र पर ब्रह्महत्या का पाप लगा। अयोध्या वापस आने पर श्रीराम इस पाप के निवारण के लिये अश्वमेध की तैयारी में जुट गये। यज्ञ शुरू हुआ तो उपस्थित सारे ऋषि मुनियों ने गुरू वशिष्ठ को कहीं नहीं देखा। वशिष्ठ राजपुरोहित थे, बिना उनके यह यज्ञ सफल नहीं हो सकता था। उस समय वशिष्ठ हिमालय में तपस्यारत थे। श्रंगी ऋषि लक्ष्मण को लेकर मुनि वशिष्ठ की खोज में निकल पड़े। लम्बी यात्रा के बाद वे इसी स्थान पर आ पहुंचे। सर्दी बहुत थी। लक्ष्मण ने गुरू के स्नान के लिये गर्म जल की आवश्यकता समझी। लक्ष्मण ने तुरन्त धरती पर अग्निबाण मारकर गर्म जल की धाराएं निकाल दीं। प्रसन्न होकर गुरू वशिष्ठ ने दोनों को दर्शन देकर कृतार्थ किया। गुरू ने कहा कि अब यह धारा हमेशा रहेगी व जो इसमें नहायेगा, उसकी थकान व चर्मरोग दूर हो जायेंगे। लक्ष्मण ने गुरूजी को यज्ञ की बात बतलाई। तदुपरान्त गुरू वशिष्ठ ने अयोध्या जाकर यज्ञ को सुचारू रूप से सम्पन्न कराया।
10.
वशिष्ठ सुवर्चस भी एक वशिष्ठ रहे। इनके बारे में जानकारी अत्यल्प ही मिलती है।
है।
11.
जातुकर्ण शाखा के वशिष्ठ :-
एक और अल्प शाखा है, जो जातुकर्ण नाम से जानी जाती है।
यह भी कह सकते हैं कि, वशिष्ठ केवल एक व्यक्ति ही नहीं,बल्कि एक संपूर्ण कुल का प्रतीक, एक गौत्र तथा एक पद भी है। आज भी, कई जाती के लोग अपना गौत्र वशिष्ठ लगाते हैं। वशिष्ठ गौत्र या वंश में देवराज, आपव, अथर्वनिधी,वारुणी, श्रेष्ठभाज,सुवर्चस, शक्ति और वारुणी जैसे कई प्रमुख व्यक्ति हुए हैं, जिनका ग्रंथों और पुराणों में उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के सातवें मंडल के रचनाकार, होने के साथ ही महर्षि वशिष्ठ ने वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ श्राद्धकल्प तथा वशिष्ठ तंत्र की भी रचना की थी। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के सुक्तकार तथा द्रष्टा, सूर्यवंश तथा रघुकुल के महान राजपुरोहित महर्षि वशिष्ठ को एक त्रिकालदर्शी, महान तपस्वी, यज्ञ तथा मंत्र विद्या के ज्ञानी तथा एक तेजस्वी ऋषि के रुप में युगो तक याद किया जाएगा।
वेदव्यास की तरह वशिष्ठ भी एक पद हुआ करता था। कहा जाता है कि जो ब्रह्मा के पुत्र थे वे आज भी जीवित हैं और वे ही हर काल में प्रकट होते हैं। उनका स्थान हिमालय के किसी क्षेत्र में बताया जाता है।