जब जनमासे में टिका करती थी बारात
दर्शनी प्रिय
बिहार की धरती अनेक रीति रिवाजों की जननी रही है। यहां परंपराएं लोकायत रूप में पल्लवित होती गई और इतिहास उन्हें करीने से पीढ़ी दर पीढ़ी उत्कृष्ट खांचे में ढालता रहा। परंपरा के केंद्र में बसे रस्मों रिवाजों से आरूढ़ इस क्षेत्र ने रीतियों को प्रतीकात्मक रूप से अनुकरणीय बनाया है। लोक रवायतों के वैभव के प्रतीक बिहार में वैवाहिक उत्सव किसी बड़े सांस्कृतिक अनुष्ठान से कम नहीं। बिहार ने कई परंपराएं देखी पर जनमासे की रीत ने इसे भीड़ से अलग एक सांस्कृतिक सौष्ठव प्रदान किया। अलहदा और पवित्र मानी जाने वाली यह रीत सदियों से लोक उत्सव का हिस्सा रही है।उत्तर भारत में विवाह मात्र रस्म अदायगी नहीं अपितु संस्कारों का एक लोकपर्व है।लेकिन कालक्रम में इसने अपना लालित्य खो दिया। जनमासा वो स्थान था जहां विवाह में आए बारातियों को पूरे मान सम्मान और व्यवहार कुशलता से विवाह संपन्न होने के बाद भी ठहराया जाता था।
बारातियों के स्वागत का जिम्मा घरातियों के कंधे से होता हुआ इसी जन्मासे में पूर्णता पाता ।विवाह संपन्न हो जाने और अगले एक दो दिनों तक रुकने और ठहरने की समूची व्यवस्था का दारोमदार इसी जनमासे रूपी गृह के कंधे पर होता। विवाह की तारीख तय होने के साथ ही प्रायः जन्मासे के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढने की कवायद शुरू हो जाती।कोशिश की जाती की दुल्हन के घर से एकाध किलोमीटर की दूरी पर ही जनमासा स्थल का चयन किया जाए ताकि विवाह स्थान से जन मासे तक का सफ़र आसानी से पूरा किया जा सके।इसके लिए अक्सर किसी स्कूल या सामुदायिक केंद्र को वरीयता दी जाती जहां आसानी से बारातियों के स्थानापन्न होने तक उनके रहने ठहरने की समुचित व्यवस्था की जा सके। हालांकि कई बार इसी जनमासे में न केवल बारातियों और घरातियों के बीच घमासान की खबरें अतीत के पन्नों में दर्ज है बल्कि दोनों पक्षों के संबंधों में पड़े मतभेद की दरार को भरने के लिए दूल्हा और दुल्हन पक्ष के फूफा, ताऊ और मौसे को बुलाये जाने की औपचारिकताये भी यहां कैद है।
ठहराव के इस केंद्र पर बारातियों के जलपान की व्यवस्था के साथ साथ आमोद प्रमोद के साधनों की भी खूब व्यवस्था होती। खाने से लेकर सोने तक की एक एक गतिविधि को दोनों पक्षों द्वारा उनके अनुभवों में संजोया जाता। उबासी भरे जीवन से अलग अपने समकक्षों के साथ आनंद से भरपूर अल्हड़ भरे परस्पर बेतुके संवादों का भी जरिया होते थे ये जनमासे। चूंकि उस दौर में मरजाद रखने की वैवाहिक परंपरा अपने चरम पर थी इस लिहाज से इन जनमासो की भूमिका बढ़ जाती थी।
उत्तर भारत में विवाह एक बड़ा समाजिक उत्सव और वृहत्तर लोक अनुष्ठान माना जाता रहा है। तब उस दौर में जब तक बारात विदा नहीं होती थी तब तक जन मासे की महत्ता और सम्पर्क स्निग्धता बनी रहती।यह केवल रुकने का स्थान नहीं था बल्कि दो गांवों,दो भिन्न समुदायों और कई अजनबी चेहरों के एक हो जाने का प्रतीक भी था।खान पान का सौहार्द, अभिनंदन, परस्पर सत्कार,दो परिवारों के मतैक्य , रीति रिवाज़ो की आजमाइश और आपसी स्नेह का केंद्र था जनमासा।
वर्षों पहले जनमासे की इस परंपरा ने आधुनिकता की आंधी में दम तोड़ दिया। न अब बरातियों के लिए किसी जन मासे की कोई टोह है, न मरजाद की कोई रीत।
समय के साथ सब फना हो गए। पांच सितारा होटलों के छोटे छोटे वातानुकूलित कमरों ने जनमासे का स्थान ले लिया।भागती पिसती जिंदगी में बरातियों के पास जलपान के सिवा किसी दूसरे रस्म अदाएगी के लिए कोइ वक्त नहीं, न घरातियों के पास दो दिन के सत्कार वाला जज़्बा। अब न स्कूलों के खुले प्रांगण जैसा कोई जन मासा है न बरातियों की गहमागहमी और चिरौरी। कुछेक घंटों की वैवाहिक रस्म अदायगी और अनुष्ठान खत्म। समय के साथ सब रिवाज़ रीत गए।
जनमासे की पवित्रता और सात्विकता वैवाहिक उत्सव को गरिमामयी बनाते थे।इस परंपरा ने सदियां देखीं है संभवतः तब से जब जनकनंदनी सीता के पिता ने श्री राम के साथ विवाह में आए बरातियों का अभिनंदन और सत्कार बड़े आदर भाव से किया था। परंपराएं यूहीं प्रस्फुटिक नहीं होती इनके उदगम के पीछे एक भरी पूरी सांस्कृतिक विरासत होती है।
विडंबना है रीतों के ये बीज उपेक्षा की दंश से अब सूखने लगे है। पूरे मनोयोग से सींची गई इसकी जड़े भौतिकता की मार से ज़मीन छोड़ने लगी है। रवायतों के इन वृक्षों को फिर से सींचना होगा। बेशक बड़े और व्यापक रूप में न सही व्यवहार्य और प्रासंगिक रूप में ही इनका परिवर्धन और संवर्द्धन जरुरी है।
रीत रिवाज़ हमारी सांस्कृतिक विरासत है और इस थाती को सहेजना व संरक्षित करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेवारी। समाज लोक परंपराओं से सृजित होता है रवायते उन्हें पालती है, और समय उन्हें प्रश्रय देता है।
वृहत्तर सांस्कृतिक महत्व के इस अनुष्ठान को केवल कार्य की अधिकता और समय की अल्पता का हवाला देकर बिसारा नहीं सकता।
परम्पराएँ जिंदा रहेंगी तो लोक संस्कार जीवित रहेंगे और सजीव सामाजिक संस्कार उम्दा नस्लें पैदा कर राष्ट्र निर्माण के नैतिक बोध का अहसास कराएंगी। मौलिकता ही सर्वश्रेष्ठ है, अनुकरण अधोगति।