अमरनाथ श्राइन बोर्ड पर विवाद
आतंकवादियों ने अपनी आतंकी घटनाओं को निरंतर जारी रखा। वे स्थानीय हिंदुओं के अतिरिक्त देश के दूसरे प्रांतों से आने वाले हिन्दू यात्रियों पर भी हमला करने पर उतारू हो गए थे। ऐसा वह इसलिए कर रहे थे कि कश्मीर में देश के बाहर के हिंदू यात्रियों को बिना परमिट के न आने दिया जाए। कहने का अभिप्राय है कि वह दो विधान दो निशान तो प्रधान से आगे बढ़कर अर्थात कश्मीर की ‘मुकम्मल आजादी’ की स्थिति में खड़े होकर यात्रियों पर हमला करके उन्हें यह संदेश देना चाहते थे कि तुम्हें यहां आने का कोई अधिकार नहीं है।
2008 में जब श्राइन बोर्ड को लेकर कश्मीर घाटी में हिंसक घटनाएं घटित हुईं तो उन घटनाओं का यही उद्देश्य था कि भारत की मान्यताओं को कश्मीर में लागू न किया जाए। अमरनाथ श्राइन बोर्ड के लिए कश्मीर में कोई स्थान उपलब्ध नहीं हो सकता। यह बहुत ही दु:ख का विषय है कि उस समय अमरनाथ श्राइन बोर्ड के लिए आवंटित की गई 100 एकड़ जमीन के निर्णय को सरकार ने आतंकवादियों के दबाव में आकर वापस ले लिया था। इस प्रकार के निर्णय से आतंकवादियों को कश्मीर की ‘मुकम्मल आजादी’ की ओर एक और कदम बढ़ने का अवसर मिला। जबकि भारत सरकार का कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने का दावा उतना ही कमजोर पड़ा।
2010 में पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों से टकराव जैसी घटनाओं के क्रम में उछाल आया । 112 लोगों की जान चली गई। केंद्र की मनमोहन सरकार ने 2010 में 13 सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति का उद्देश्य भी कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के कारणों का पता लगाकर उसका निवारण करने के उपाय खोजना था। इस 3 सदस्यीय समिति में दिलीप पड़गांवकर, एमएम अंसारी और राधा कुमार को सम्मिलित किया गया था।
इस समिति ने भी कश्मीर को और अधिक अधिकार देने की बात केंद्र सरकार के समक्ष रखी। यह एक अच्छी बात रही कि केंद्र की मनमोहन सरकार ने इस समिति के इस प्रकार के सुझाव को मानने से इनकार कर दिया।
उमर अब्दुल्लाह और ‘मुकम्मल आजादी’
2011 में एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई । आजादी के बाद कश्मीर को आतंकवाद के दौर में प्रविष्ट करने के सबसे अधिक जिम्मेदार शेख अब्दुल्लाह के पौत्र उमर अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री रहते हुए कश्मीर के नौजवानों को ‘मुकम्मल आजादी’ का एक विशेष उपहार प्रस्तुत किया। उमर अब्दुल्ला ने 1200 पत्थरबाजों को एक साथ माफी देने का राष्ट्रघाती कार्य किया। उनके विरुद्ध जितने भी मुकदमे न्यायालय में विचाराधीन थे, वे सब वापस ले लिए गए।
हमको चीजों को कुछ इस प्रकार समझाया बताया जाता है कि जो कुछ किया जा रहा है ,उसका कोई विशिष्ट और गुप्त उद्देश्य नहीं है, बल्कि स्थिति को सामान्य करने के उद्देश्य से ऐसा किया जा रहा है । इससे भारत का बहुसंख्यक वर्ग धोखे में आ जाता है और वह मान लेता है कि सचमुच करने वाले की दृष्टि और दृष्टिकोण में कोई दोष नहीं है। जबकि करने वाला अपने आचरण और व्यवहार से राष्ट्र की आत्मा के साथ छल कर रहा होता है। हमें छल को भी एक ‘अनिवार्य आवश्यकता’ के रूप में ऐसे दिखाया जाता है कि जैसे वह उन परिस्थितियों में राष्ट्रहित में सबसे अधिक आवश्यक था। भारत में ऐसा होना इसलिए संभव है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
शेख अब्दुल्लाह के द्वारा भी जो कुछ किया जा रहा था उसे भी हमें इसी दृष्टिकोण से बताया समझाया गया। बाद में शेख अब्दुल्ला को राष्ट्रभक्त मानने वालों को ही पता लग गया था कि वह राष्ट्रभक्त नहीं था। उसी के नक्शे कदम पर चलने वाले उसके बेटे और पोते के बारे में भी हमें चीजों को कुछ इसी प्रकार बताया व समझाया गया । जबकि सच यह था कि अब्दुल्लाह परिवार का प्रत्येक सदस्य कश्मीर के इस्लामीकरण का पक्षधर रहा है और उसने एक दिन भी यह नहीं चाहा कि वहां पर हिंदू नाम की चिड़िया खुली हवा में सांस ले सके। फारूक अब्दुल्लाह के बेटे उमर अब्दुल्लाह ने मुख्यमंत्री के रूप में 1200 पत्थरबाजों को एक साथ माफी देकर अपने गुप्त उद्देश्य को प्रकट किया कि वे कश्मीर के आतंकवादियों को आतंकवादी न मानकर ‘मुकम्मल आजादी’ के लिए संघर्ष कर रहे योद्धा मानते हैं। इसलिए वह माफी के हकदार हैं।
केंद्र सरकार रही मौन
उस समय केंद्र सरकार को चाहिए था कि फारूक अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला के इस निर्णय को पलट दिया जाता। क्योंकि जिन आतंकवादियों ने आजादी के बाद के दशकों में निरंतर हमारे देश को क्षति पहुंचाने का काम किया या हमारे सुरक्षा सैनिकों पर प्रहार किया, उनको देशद्रोही ही माना जाना चाहिए था। कश्मीर की शांत वादियों में आग लगाने का काम करने वाले माफी के हकदार नहीं बल्कि फांसी के हकदार होने चाहिए थे। ऐसी व्यवस्था केंद्र सरकार यदि करती तो कश्मीर की आग शांत हो सकती थी।
कहने का अभिप्राय है कि आतंकवादी को केवल आतंकवादी माना जाना चाहिए। उसके मानवाधिकार समाप्त जाते हैं और यह उसी समय समाप्त हो जाते हैं जब वह हथियार लेकर निरपराध लोगों को मारने के लिए चलता है या देश के विरुद्ध कोई भी काम करने के लिए संकल्पित होता है। आतंकवादी या देशद्रोही या ऐसे किसी भी समाजद्रोही व्यक्ति के बारे में हमें यह समझ लेना चाहिए कि वह जिस समय अपने कार्य को कर रहा होता है उस समय हो सकता है कि वह उन्मादी हो गया हो , पर जिस समय वह अपने कार्य को करने का संकल्प लेता है उस समय वह बहुत ही शांतमन से अपनी योजना को सिरे चढ़ाने का प्रयास कर रहा होता है। कोई भी व्यक्ति किसी समसामयिक घटना से उग्रवादी नहीं बनता है। बहुत सोच समझकर धीरे-धीरे और समाज व शासन की आंखों में धूल झोंकते हुए वह उग्रवाद की नीति पर जाता है।
थोड़ी देर के उन्माद के चेहरे को देखकर और यह कहकर कि वह उन्मादी या उग्रवादी नहीं था, उसके दीर्घकालिक शांति काल के देशविरोधी प्रयासों की अर्थात दुराचरण की उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्योंकि हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि दीर्घकालिक शांति काल के उग्र प्रयास ही उस क्षणिक उन्मादी चेहरे का कारण बने थे । अतः दंड के पात्र दीर्घकालिक शांतिकाल के राष्ट्र विरोधी प्रयास ही होते हैं। जिनमें व्यक्ति पूर्ण विवेक और मानसिक संतुलन बनाकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य कर रहा होता है। उस समय वह स्थिरचित्त की दशा में होता है । उसे पता होता है कि वह जो कुछ कर रहा है उसके क्या परिणाम होंगे ? और जिसे परिणामों की जानकारी है, वह दंड से बच नहीं सकता।
कुल मिलाकर उमर अब्दुल्ला ने जो कुछ भी किया वह आतंकवादियों के लिए एक ‘स्वर्णिम अवसर’ बन गया । उन्हें पुनर्जीवन प्राप्त हुआ और वह भारत के विरुद्ध कार्य करने के लिए और भी अधिक मनोयोग से जुट गए। उमर अब्दुल्ला के निर्णय ने उन्हें पौष्टिक आहार प्रदान किया। आज उमर अब्दुल्ला चाहे अपने आपको कितना ही निर्दोष सिद्ध कर लें, पर उनका कलुषित और पापी मन कश्मीर की वादियों में आग लगाने के लिए बहुत अधिक जिम्मेदार है।
9 फ़रवरी 2013 को जैश ए मोहम्मद का आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरु फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। इस आतंकवादी ने ही भारत के लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद पर हमला करने की योजना का नेतृत्व किया था। इसे केंद्र की मनमोहन सरकार आतंकवादी के रूप में नहीं अपितु दामाद के रूप में खिला-पिला रही थी। उस समय आतंकवादी अफजल गुरु को फांसी पर चढ़वाने के लिए अनेक हिंदू संगठनों ने प्रदर्शन किए थे। अनेक स्तंभकारों के लेख समाचार पत्र पत्रिका में प्रकाशित हुए थे कि इस प्रकार आतंकवादियों को दूध पिलाना ठीक नहीं है। मीडिया जगत ने भी उस समय देश का जनमत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिससे केंद्र की मनमोहन सरकार को इस आतंकवादी को शीघ्र फांसी पर चढ़ाने का निर्णय अनमने मन से लेना पड़ा।
देश की राजनीति में आया नया मोड़
सन 2014 में देश की केंद्रीय राजनीति में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। देश के धर्मनिरपेक्ष और आतंकवादियों का पक्ष पोषण करने वाले राजनीतिक दलों के देशद्रोही आचरण से देश का जनमानस दु: खी हो चुका था । उसे एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी। एक ऐसी सरकार की आवश्यकता थी जो समय पर कठोर निर्णय लेने की क्षमता रखती हो और देश के हितों से खिलवाड़ करने वाले प्रत्येक व्यक्ति , संगठन या संस्थान के विरुद्ध निर्णय लेने में जिसे तनिक भी संकोच ना हो। देश का जनमानस इस्लामिक आतंकवाद और राजनीतिक लोगों के द्वारा धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किए जा रहे मुस्लिम तुष्टिकरण से दुखी हो चुका था। इन सब परिस्थितियों ने देश के राजनीतिक व सामाजिक परिवेश को चुनौतीपूर्ण बना दिया था। फिजाओं में एक पुकार थी। एक ललकार थी। एक मौन आवाहन था। जिसे राष्ट्र की आत्मा की पीड़ा भी कहा जा सकता था। दिव्य शक्तियों ने राष्ट्र की आत्मा की पीड़ा को सुना। जिसके निदान के लिए क्रांति का परिवेश बना।
देश उस समय गुजरात से उठते हुए एक महान नक्षत्र को देख रहा था, जिसका नाम नरेंद्र मोदी था। देश के प्रत्येक क्षेत्र के लोगों ने इस महान नक्षत्र का तेजी से स्वागत करना आरंभ किया। जैसे – जैसे राजनीतिक क्षितिज पर यह नक्षत्र उभरता गया, वैसे-वैसे ही राक्षसों और देश विरोधी शक्तियों का मनोबल टूटने लगा। यह कुछ उसी प्रकार था जिस प्रकार प्रातःकाल में सूर्योदय के होने से पूर्व जब पौ फ़टती है तो उस समय ही अंधकार दुम दबाकर भागने की तैयारी कर लेता है।
सचमुच कई पापी तो नरेंद्र मोदी की पौ फ़टाव के उन क्षणों में ही बोरिया बिस्तर भाग गए। 2014 के आम चुनाव हुए तो देश के लोगों ने नरेंद्र मोदी की झोली वोटों से भर दी। उन्हें स्पष्ट और शानदार बहुमत देकर देश का प्रधानमंत्री बनाया। नरेंद्र मोदी जब देश के लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर अर्थात संसद में पहली बार प्रविष्ट हुए तो उन्होंने उसकी देहरी को झुक कर नमन किया। उसका अर्थ था कि आज जब मैं लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर में प्रविष्ट हो रहा हूं तो यहां बैठकर मुझे राष्ट्र साधना की कठोर तपस्या करनी है। देश की स्थिति को सुधारने के लिए कठोर निर्णय लेने हैं । नरेंद्र मोदी समझ रहे थे कि देश के लोगों ने उन्हें किन अपेक्षाओं के साथ इतना स्पष्ट बहुमत दिया है ?
जम्मू कश्मीर में बनी भाजपा पीडीपी की सरकार
जब 2014 में जम्मू कश्मीर में चुनाव कराए गए तो चुनावों के परिणाम स्वरूप पीडीपी को 28, बीजेपी को 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस को 15 और कांग्रेस को 12 सीट प्राप्त हुईं। इन चुनाव परिणामों से कोई भी दल या गठबंधन जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था। आंकड़े कुछ इस प्रकार फँस गए थे कि कोई भी राजनीतिक दल किसी दूसरे के साथ मिलकर सरकार बनाने की सोच भी नहीं सकता था। तब 1 मार्च 2015 को भाजपा और पीडीपी ने मिलकर कश्मीर में सरकार बनाने का निर्णय लिया। मुफ्ती मोहम्मद सईद को इस नई सरकार का नेतृत्व करने का दायित्व दिया गया। भाजपा के निर्मल कुमार सिंह को इस सरकार में उप मुख्यमंत्री बनाया गया।
भाजपा के इस निर्णय की उसके विरोधियों ने आलोचना की। उनकी आलोचना का आधार यह था कि राजनीतिक विचारधारा के दृष्टिकोण से भाजपा और पीडीपी का कोई मेल नहीं था। भाजपा जहां जम्मू कश्मीर में अपने राष्ट्रवादी चिंतन के कारण स्थान बनाने में सफल हुई थी। वहीं पीडीपी का दृष्टिकोण कुछ दूसरा रहा था। वह नेशनल कांफ्रेंस की ही ‘बी टीम’ के रूप में काम करने वाली पार्टी थी, अर्थात उसका कश्मीर के भारत में विलय पर वैसा ही दृष्टिकोण था जैसा नेशनल कांफ्रेंस का था।
कट्टर राष्ट्रवाद की समर्थक भाजपा का इस प्रकार की दोगली विचारधारा के राजनीतिक दल के साथ समन्वय जम्मू कश्मीर जैसे सीमावर्ती राज्य की राजनीति के संदर्भ में उचित नहीं था।
इसके उपरांत भी राजनीति में अनेक प्रकार के प्रयोग किए जाने की संभावनाएं सदा बनी रहती हैं।
प्रत्येक नया शासक अपनी नीतियों को अपने दृष्टिकोण से लागू करने के लिए अवसरों को खोजने का काम कुछ उसी प्रकार करता है जैसे एक नया पहलवान अखाड़े में उतरे हुए किसी नामी गिरामी पहलवान को चित करने के लिए अपना नया दांव चलने की तैयारी करता है। प्रत्येक नए शासक का प्रयास होता है कि नए अवसर पैदा कर उन्हें अपने अनुकूल बनाने का प्रयास किया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी दृष्टिकोण से पीडीपी को साथ लेकर जम्मू कश्मीर में नया इतिहास लिखने की तैयारी करने लगे थे। सचमुच उनका यह प्रयोग बहुत ही अजीब था क्योंकि वह अपने राष्ट्रवादी चिंतन को एक राष्ट्रघाती दल के चिंतन के साथ समन्वित करने का निर्णय ले चुके थे। इसके उपरांत भी यदि उन्होंने यह निर्णय लिया तो उनके विषय में हमें यह मानना चाहिए कि वे ऐसा निर्णय लेते समय यह भली प्रकार समझ रहे थे कि पीडीपी और उसके नेताओं की नीतियों के दृष्टिगत उसके नेताओं की नियत पर और नीतियों पर भी ध्यान रखना है। प्रधानमंत्री जागरूक थे और आंखें खोलकर पूर्ण विवेक के साथ कार्य कर रहे थे । उनका मानना था कि पीडीपी के साथ काम करते हुए उसे अपनी शर्तों के अनुसार काम करने के लिए भी प्रेरित करना है। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी अपनी नीतियों को दांव पर लगाकर भी उन्हें गिरवी रखने की स्थिति में नहीं थे।
मुफ्ती के बाद महबूबा
अभी यह तैयारी चल ही रही थी कि 2016 की 7 जनवरी को पीडीपी नेता और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का देहांत हो गया। उनके बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती को जम्मू कश्मीर का नया मुख्यमंत्री बनाया गया। मुफ्ती मोहम्मद सईद की सोच कहीं ना कहीं फिर भी एक वरिष्ठ नेता की थी, यद्यपि वह आतंकवादियों के उतने ही हितचिंतक थे जितने शेख अब्दुल्ला और उसके खानदान के लोग रहे। पर उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती तो आतंकवादियों को यथाशीघ्र लाभ पहुंचाकर और बीजेपी से पिंड छुड़ाकर एक स्वतंत्र कश्मीर की कल्पना करते हुए स्वतंत्र मुख्यमंत्री ( और भी स्पष्ट शब्दों में कहें तो कश्मीर की प्रधानमंत्री ) के रूप में काम करने की कल्पनाओं में खो गईं। उनका लक्ष्य कश्मीर की ‘मुकम्मल आजादी’ के बाद एक स्वतंत्र देश की शासन अध्यक्ष बनने का रहा। वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पाकिस्तान से भी बात कर रही थीं। आतंकवादियों से ही बात कर रही थीं और भारत की केंद्र सरकार की आंखों में धूल झोंकने का काम भी अपने विशिष्ट अंदाज में कर रही थीं। इन तीनों बिंदुओं पर एक साथ काम करने का अर्थ था कि वह अधिक चतुर राजनीतिज्ञ बनकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहती थीं।
यही कारण रहा है कि वह कश्मीर समस्या के समाधान की बात आने पर भारत सरकार के साथ बातचीत में पाकिस्तान और आतंकवादियों को भी सम्मिलित करने की वकालत आज तक करती रही हैं। ऐसा कहते समय महबूबा मुफ्ती यह भूल जाती हैं कि देश की सरकार की बात तो छोड़िए उनकी इस प्रकार की मांग का अर्थ तो देश का आम नागरिक भी जानता है कि पाकिस्तान और आतंकवादियों को कश्मीर समस्या के समाधान में बातचीत का एक अंग बनाकर समस्या को और भी अधिक जटिल बना देना है । वैसे भी जब कश्मीर हमारा निजी और घरेलू मामला है तो इसमें पाकिस्तान का सम्मिलित होने का औचित्य क्या है ? साथ ही जिन आतंकवादियों ने देश के साथ घात किया है उनको लोकतांत्रिक मान्यता प्रदान करना भी पूर्णतया असंवैधानिक ही होगा।
महबूबा मुफ्ती की कुटिल राजनीति
मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने काम करना आरंभ किया तो उनके आचरण और कार्यशैली से यह स्पष्ट दिखाई देने लगा कि वह जम्मू कश्मीर से नेशनल कांफ्रेंस की राजनीति को विदा करके आतंकवादियों की पूरी सहानुभूति प्राप्त कर बीजेपी को दफन कर देने की योजनाएं बना रही थीं। उनके लिए पाकिस्तान निकट का संबंधी था और भारत दूर का सम्बंधी भी नहीं।
इस समय केंद्र की नीतियां सुरक्षाबलों को अधिक शक्ति संपन्न करने की थीं। केंद्र की मोदी सरकार चाहती थी कि सुरक्षाबलों के हाथ खोल देने चाहिएं । जिससे कि देश विरोधी शक्तियों का दमन करने में उन पर किसी प्रकार का दबाव नहीं हो। हमारे देश के सुरक्षा बल बहुत देर से इस बात की प्रतीक्षा में थे कि कश्मीर घाटी से आतंकवादियों के सफाये के लिए उनके हाथ खोल दिए जाएं । वह इस बात से भी बहुत दुखी हो चुके थे कि आतंकवादियों को मारने पर भी उन्हें ही दंडित किया जाता है । पूर्व की सरकारें आतंकवादियों को भी उतने ही मानवाधिकार देकर चलती थीं जितने एक आम नागरिक को प्राप्त होते हैं। अतः आतंकवादी की मौत को भी उस समय की सरकारें एक आम नागरिक की मौत ही समझती थी। यदि ऐसा कोई आतंकवादी हमारे सैन्य बलों या सुरक्षाबलों के माध्यम से मारा जाता था तो उसके लिए उनके विरुद्ध ही कार्यवाही होती थी।
केंद्र की आतंकवादियों के सफाये के लिए सुरक्षाबलों के हाथ खुले करने की नई नीति हमारे रक्षा बलों को बहुत ही पसंद आई। इससे प्रोत्साहित होकर 8 जुलाई 2016 को सुरक्षाबलों द्वारा हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी को समाप्त कर दिया गया। जम्मू कश्मीर से उसका अन्त करना कितना आवश्यक था ? – इसका पता इस बात से चलता है कि इस आतंकवादी के अन्त के पश्चात कश्मीर में अगले 7 महीने तक निरंतर हिंसा होती रही अर्थात उसके समर्थक आतंकवादी इस बात की अनुभूति कराते रहे कि यदि उनके नेता का अंत कर दिया गया है तो अभी उसके नाम लेने वाले और उसके सपने को साकार करने वाले कश्मीर में बहुत हैं।
7 महीने तक निरंतर हिंसा में लिप्त रहे इन आतंकवादियों के कार्यों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि हिजबुल मुजाहिदीन के इस कमांडर ने अपने आतंकी संगठन को कितना विस्तार दे दिया था और वह किस सीमा तक भारत के इस सीमावर्ती राज्य में अराजकता फैलाने की क्षमता रखता था ? इस दौरान जम्मू कश्मीर में बहुत लंबा कर्फ्यू जारी रहा। 84 लोगों को अपने प्राण गंवाने पड़े।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत