जीवन को पढ़कर भी जीना ना आया*

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शायद ही भारत या दुनिया का मॉलिक्यूलर बायोलॉजी, जेनेटिक्स के क्षेत्र से जुड़ा कोई वैज्ञानिक, छात्र अध्यापक प्रख्यात अमेरिकी जीव वैज्ञानिक जेम्स वाटसन के नाम व काम से परिचित ना हो.. जब हमारा देश चीन से जंग लड़ रहा था उस समय इन्हें डीएनए की संरचना के रहस्य को सुलझाने के लिए हम कह सकते हैं जीवन के रहस्य को समझने के लिए बायोलॉजी का नोबेल मिला था 1962 ईस्वी में|

अनुवांशिकी में उनके योगदान के कारण आज जन्मजात बीमारियों का इलाज संभव हो सका है यही नहीं कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का इलाज भी इन्हीं के कार्य के परिणाम स्वरुप निकलेगा बलात्कार हत्या जैसे जघन्य तम अपराध के अपराधी को इन्हीं की खोज के कारण आज पकड़ना संभव है.. Dna टेस्टिंग के कारण ही किसी संतान की जैविक पैतृकता सुनिश्चित होती है.. लावारिस विकृत लाश व अग्नि कांड प्लेन क्रैश में शवों की पहचान भी संभव हो पाई है|

दुनिया की सैकड़ों यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए हैं विभिन्न मानद उपाधियां सम्मान मिले हैं…|

लेकिन अपने एक गलत बयान , धारणा के कारण.. 91 वर्षीय इस शीर्ष वैज्ञानिक की जीवन की पूंजी मान-सम्मान ,कीर्ति ,अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक बिरादरी में सम्मान सब कुछ मिट्टी में मिल गया है…..|

न्यू यॉर्क टाइम्स को दिए गए अपने इंटरव्यू में इन्होंने कहा था कि गोरे अमेरिकी यूरोपिय लोगों की अपेक्षा अफ्रीकी काले लोग कम बुद्धिमान होते हैं… उनके इस बयान की संयुक्त राष्ट्र सहित अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रबल विरोध हुआ.. विरोध स्वरूप कोल्ड स्प्रिंग हार्वर प्रयोगशाला न्यू यॉर्क स्टेट के डायरेक्टर से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा जिस पद को उन्होंने 40 वर्षों तक सुशोभित किया था… दुनिया की शीर्ष वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान विश्वविद्यालय जो कभी इनकी खुशामद करते थे गेस्ट लेक्चर के लिए उन्होंने इन्हें बुलाना बंद कर दिया है…|

विधाता का खेल तो देखिए.. वर्ष दिसंबर 2007 में जब खुद उनके डीएनए के जेनेटिक परीक्षणों के परिणाम सामने आए तो उनमें से 16 जीन अफ्रीकी पूर्वजों से आए थे जबकि यूरोपीय अमेरिकी समुदाय में ऐसे जिन की संख्या सामान्य तौर पर 1 से अधिक नहीं पाई जाती यह लगभग ऐसा ही था जैसे कि उनके परदादा अफ्रीकी रहे हो |

लेकिन जीव विज्ञान का यह जीनियस लेकिन अड़ियल नस्लवादी मानसिकता से ग्रस्त यह वैज्ञानिक आज भी अपने उस बयान पर कायम है.. इतना खामियाजा चुकाने के बावजूद वर्ष 2014 में अपनी माली हालत ठीक ना होने पर इन्हें अपना नोबल पुरस्कार नीलाम तक करना पड़ा|

आप कुछ भी हो कितने ही बड़े वैज्ञानिक अनुसंधान करता हो.. किसी वाक्य को बोलने से पहले हजार बार सोच लो यही व्यवहार शास्त्र है अन्यथा आप जीवन में दुखी रहेंगे.. भारत में भी उच्च शिक्षित होकर भी लोगों की जातिवादी मानसिकता आज तक नहीं छूट रही है यही सबसे बड़ा रोग है.. बहुत ही अजीबो गरीब रोग हैं । क्या दलित क्या पिछड़े क्या स्वर्ण सभी मिलकर इस को फैला रहे है यह और अधिक संक्रामक घातक हो गया है पूरी सामाजिक व्यवस्था को जकड़ लिया सोशल मीडिया का साथ पाकर तो यह और अधिक तेजी से फैलता है। यह ऐसा रोग है जो राष्ट्र की उन्नति के पथ पर सबसे बड़ी बाधा बना हुआ। क्षेत्रीय जातीय अस्मिता पर आधारित संगठन महासभा राजनीतिक दलों नेताओं ने इसे खाद पानी दिया है। भारत में वैदिक नैतिक शिक्षा में ही इन सभी समस्याओं का समाधान व्याप्त है|

आर्य सागर खारी ✒✒✒

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