फूटने लगा ‘आप का गुब्बारा

सुरेश हिन्दुस्थानी

वर्तमान में आम आदमी पार्टी में जिस प्रकार के स्वर उभर रहे हैं, उससे ऐसा तो लगता ही है कि कहीं न कहीं इस पार्टी में भी सत्ता का स्वाद पाने के लिए स्वार्थ जाग्रत होता हुआ दिखाई दे रहा है। दिल्ली की सत्ता प्राप्त करने से पूर्व जिस प्रकार से आम आदमी पार्टी में यारों वाली दोस्ती दिखाई देती थी, अब वह दोस्ती, दुश्मनी में बदलने की ओर जाती हुई दिखाई देने लगी हैं। आम आदमी पार्टी के लिए सब कुछ माने जाने वाले अरविन्द केजरीवाल और उनके समर्थक जैसे मन में आता है, पार्टी को चलाने का प्रयास करते हैं। आसानी से नहीं तो जबरदस्ती। सभी इस बात से परिचित हैं कि अरविन्द केजरीवाल ने अपने बचपन के चार दोस्तों को लेकर इस पार्टी को स्थापित किया था। वर्तमान में यही चार दोस्त ही पूरी पार्टी कर रीति नीति का निर्धारण करते हुए दिखाई देते हैं। प्रशांत भूषण ने तो अब यह बात खुलेआम रूप से कहना शुरू कर दी है कि पार्टी में केवल केजरीवाल की ही चलती है।

प्राय: कहा जाता है कि कड़ी मेहनत के बाद जो सफलता प्राप्त होती है, वह लम्बे समय तक रहती है। इसके अलावा जिस व्यक्ति या संगठन को छोटे मार्ग या सरलतम मार्ग से बहुत जल्दी बहुत बड़ी सफलता मिल जाए तो अनुभवहीनता का संत्राश भी दिखाई देता है। आम आदमी पार्टी की सरकार को अनुभवहीनों की सरकार माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। आज अरविन्द केजरीवाल के चारों दोस्त अनुभवहीनों की तरह बचपन जैसे खेल खेलकर ही दिल्ली की सत्ता का संचालन करते दिखाई दे रहे हैं। संभवत: इनको इस बात की जानकारी नहीं है कि राजनीतिक दल के संचालन और सत्ता चलाने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन करना अत्यंत आवश्यक है।

भारत की राजनीति में एक गुब्बारे की तरह उदित हुई आम आदमी पार्टी अपनी सफलता को पचाने का सामथ्र्य रखने में नाकाम साबित होती दिख रही है। सारे अनुमानों को गलत सिद्ध करते हुए दिल्ली में आप पार्टी को सफलता प्राप्त हुई। इस सफलता से आम आदमी पार्टी के नेताओं में खुशी के साथ एक विशेष प्रकार का भय भी दिखाई दे रहा था। वह डर दिल्ली की जनता की अपेक्षाओं का था। अपेक्षा से अधिक किए गए वादे भी आज सरकार की जान का दुश्मन बन कर उभरे हैं। दिल्ली की जनता ने तात्कालिक परिणाम की अपेक्षा में अरविन्द केजरीवाल को एक गुब्बारे की भांति फुला दिया। इस गुब्बारे में जितनी हवा भरे जाने की क्षमता थी, उससे दुगुनी हवा जनता ने भर दी। इस सफलता के लिए आम आदमी पार्टी को एक और अरविन्द केजरीवाल की तलाश करना थी, कहने का तात्पर्य वैसा ही नेता एक और बनाने का काम करना था, लेकिन वैसा नेता नहीं बनाया, केवल केजरीवाल पर ही पूरी पार्टी का दारोमदार तय कर दिया। केजरीवाल के दोस्त पार्टी का विकेन्द्रीकरण करने के खिलाफ हैं, तत्पश्चात आज जो भी दृश्य दिखाई दे रहा है, यह उसी का परिणाम है।

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में तेजी से उभरी आम आदमी पार्टी का यही हश्र होना था। दिल्ली विधानसभा चुनाव में ही आप के भीतर फूट के बीज पड़ गए थे और अब इसकी परणिति देश के सामने है। पिछले कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी में घमासान का जो दौर चल रहा है, उसने यह साफ कर दिया है कि पार्टी में शुरू हुई वर्चस्व की लड़ाई आप को रसातल में ही ले जाएगी। राजनैतिक विचार और संस्कार के जन्म लेने वाले राजनैतिक दल से यही उम्मीद की जा सकती है। बहरहाल आप में वर्चस्व की लड़ाई अब नर्णायक मोड़ पर है। पार्टी संस्थापकों में शामिल प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से निकाले जाने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया है। हालांकि, योगेंद्र यादव ने अपने व प्रशांत भूषण के इस्तीफे की बात को झूठ करार देते हुए चुनौती दी है कि यदि किसी के पास इस्तीफे की प्रति है तो उसे सार्वजनिक करे। यादव ने इस दावे को भी हास्यास्पद बताया कि उन्होंने और भूषण ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा देने के लिए केजरीवाल को पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक पद से हटाने का कोई प्रस्ताव रखा था। केजरीवाल और यादव व भूषण समर्थक अब आमने-सामने हैं और पार्टी स्तर पर हुए सुलह के प्रयास भी विफल हो गए हैं। जिस तरह के हालात बने हैं उससे नहीं लगता कि शुक्रवार को होने वाली राष्ट्रीय परिषद की बैठक में आप  को टूटने से रोका जा सके। पार्टी ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को भले ही पीएसी से निकाल दिया हो, राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी इस्तीफा देने को मजबूर किया हो और उन्हें पार्टी से निकालने की भी तैयारी चल रही हो, लेकिन दोनों इस दौरान पार्टी का असली चेहरा उजागर करने में कामयाब जरूर हो गए हैं।

गैर सरकारी संगठनों के गठजोड़ से अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी के कर्ता धर्ता अभी भी पार्टी को एनजीओ की तरह चला रहे हैं। आप के नेता दिल्ली की सत्ता हासिल करने के बाद भी यह नहीं समझ पाए कि राजनैतिक दल और एनजीओ के चरित्र और कार्यशैली में बहुत फर्क होता है। राजनैतिक दलों का अपना आंतरिक लोकतंत्र होता है और उन्हें अनुशासन के दायरे में रहते हुए दल की रीति-नीति के तहत काम करना होता है। यही नहीं कार्यकर्ताओं को दल का जनाधार बनाने के लिए संघर्ष के लम्बे दौर से गुजरना पड़ता है। आम आदमी पार्टी में तो हर कोई अपनी ढपली बजा रहा है और हरेक अपना राग सुना रहा है। पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल हों या योगेन्द्र यादव या फिर प्रशांत भूषण, वर्चस्व की लड़ाई में यह भी भूल गए हैं कि उनके इस कदम से उन मतदाताओं के विश्वास को ठेस पहुंचेगी जिन्होंने उन्हें दिल्ली की सरकार चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है। देश और राजनैतिक हालात को बदलने की वकालत करने वाली आम आदमी पार्टी अपनी ही उलझनों से बाहर नहीं आ पा रही है, ऐसे में उससे दिल्ली की सरकार चलाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

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