हवन-यज्ञ पर्यावरण शुद्धि की पूर्णत: वैज्ञानिक प्रक्रिया है


लेखक : डॉ० रामप्रकाश [पूर्व प्रोफेसर रसायनविज्ञान, पंजाब विवि; पूर्व प्रो० वाइस चांसलर, कुरुक्षेत्र विवि; यूनेस्को फैलो (१९७१-७२) फुल ब्राइट स्कालर (१९८९); पूर्व विज्ञान व तकनीकी मंत्री, हरयाणा]
“उत्तम पदार्थों को खाने की अपेक्षा अग्नि में जलाकर नष्ट कर देना उचित नहीं।”
महर्षि दयानन्द ने इस शंका का समाधान करते हुए लिखा है, ‘जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते, क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता।’ यह उत्तर स्पष्टतया वैज्ञानिक है। जैसे अभाव से भाव की उत्पत्ति सम्भव नहीं वैसे ही भाव को भी अभाव में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। इसका समर्थन आधुनिक विज्ञान ने द्रव्य अविनाश नियम (Law of Conversation of Mass) के द्वारा किया है। इस नियम के अनुसार ‘किसी भी रासायनिक प्रतिक्रिया में भाग लेने वाले पदार्थों के भार का योग अपरिवर्तित रहता है।’
अग्नि में आहुति देने से हानि तो कोई नहीं, लाभ अवश्य है। जब अग्नि में कोई वस्तु डाली जाती है तो अग्नि उसके स्थूलरूप को तोड़कर सूक्ष्म बना देती है। यजुर्वेद (1/8) में अग्नि को धूरसि कहकर इसी सत्य को प्रतिपादित किया गया है। धूरसि का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है, ‘भौतिक अग्नि सब पदार्थों का छेदन और अन्धकार का नाश करने वाला है।’ ‘भौतिक अग्नि इसलिए है कि वह उन होम-द्रव्यों को परमाणुरूप करके वायु और जल के साथ मिलकर शुद्ध कर दे।’ यह है भी दैनिक अनुभव की बात। एक मन दाल में एक ग्राम हींग का कुछ प्रभाव नहीं होता; परन्तु वही हींग भूनकर छौंक लगाने से सारी दाल को सुगन्धित कर देता है। मिर्च खाने से केवल खाने वाले व्यक्ति पर ही उसका प्रभाव पड़ता है, किन्तु इसे भली प्रकार पीसकर उड़ा देने से आस-पास बैठे व्यक्ति खाँसने लगते हैं। उसी मिर्च को जलाने से बहुत लोगों पर उसकी तीक्ष्ण गन्ध का प्रभाव होता है, अत: अग्नि में डाल देने से पदार्थ हल्का होकर शीघ्र सारी वायु में फैल जाता है। उसकी भेदक शक्ति बढ़ जाती है। यह तथ्य ग्राम के गैसीय व्यापनशीलता के नियम (Grahm’s Law of Diffusion of Gases) का आधार है। इस नियम के अनुसार ‘निश्चित ताप और दबाव पर गैसों की व्यापन गतियाँ उनके घनत्वों के वर्गमूल की विपरीत अनुपाती होती हैं।’ अत: जो गैस जितनी हल्की होगी, वह उतनी ही शीघ्र वायु में मिल सकेगी। ऐसा ही यजुर्वेद (6/16) में कहा है- स्वाहाकृतेऽऊर्ध्वनभसं मारुतं गच्छतम्।
‘यज्ञ में स्वाहापूर्वक आहुति देने से वायु ऊपर आकाश में जावे।’
प्राचीन भारतीयों को अर्द्ध-शिक्षित मानने वालों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान तथा अंग्रेजी पढ़े बिना भी ऋषि दयानन्द ने लिखा है, ‘अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होके, फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।’ ऋषि आगे लिखते हैं, ‘सुगन्ध (केसर, कस्तूरी, पुष्प, इत्र आदि की सुगन्ध) का वह सामर्थ्य नहीं कि गृहस्थ वायु को बाहर निकालकर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके; क्योंकि उसमें भेदक शक्ति नहीं है; और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकालकर पवित्र वायु का प्रवेश करा देती है।’ ‘अतर और पुष्प आदि का सुगन्ध तो उसी दुर्गन्ध वायु में मिलकर रहता है, उसमें छेदन करके बाहर नहीं निकाल सकता, और न वह ऊपर चढ़ सकता है, क्योंकि उसमें हल्कापन नहीं होता। उसके उसी अवकाश में रहने से बाहर का शुद्ध वायु उस ठिकाने में जा भी नहीं सकता, क्योंकि खाली जगह के बिना दूसरे का प्रवेश नहीं हो सकता।’ अत: स्पष्ट है कि यदि ऋषियों ने वायुशुद्धि के लिए अग्निहोत्र को अपनाया है तो किसी अन्धविश्वास के कारण नहीं, अपितु वैज्ञानिक आधार पर।
हव्य के जलने पर उत्पन्न होने वाली गैसों पर विचार
कपूर : कपूर आसानी से जलता है, अत: यज्ञाग्नि कपूर जलाकर प्रज्वलित की जाती है। यह जलते समय धुआँ उत्पन्न करता है। इसका कुछ भाग बिना किसी रासायनिक परिवर्तन के उड़ जाता है जो वायु में मिलकर उत्तम सुगन्धि उत्पन्न करता है। वस्तुत: यह दुर्गन्ध को नष्ट नहीं कर पाता, अपितु उसे अपनी सुगन्ध से मात्र छिपा लेता है। कपूर के शेष भाग का एक तैल बन जाता है जिसमें पाइनीन, डाइपैण्टीन, सीनिओल, युजिनॉल, सैफ्रोल और टर्पिनिऑल आदि होते हैं।
लकड़ी : अग्निहोत्र में जो द्रव्य डाले जाते हैं उनका लगभग 75 प्रतिशत भाग लकड़ी होती है। इसका मुख्य प्रयोजन अग्नि प्रज्वलित रखना है, अत: आवश्यकता से अधिक समिधाएँ डालने का विशेष लाभ नहीं है। इसके जलने से लगभग 500° सेल्सियस तापांश हो जाता है। लकड़ी के मुख्य भाग सेलुलोस तथा लिग्नोसेलुलोस में लगभग 47.62 प्रतिशत हाइड्रोजन, 28.57 प्रतिशत कार्बन तथा 23.81 प्रतिशत ऑक्सीजन होती है। लकड़ी के जलने का अभिप्राय सेलुलोस तथा लिग्नोसेलुलोस का ऑक्सीकृत हो जाना है। फिर धीरे-धीरे जो हाइड्रोकार्बन बनती है, वे 400- 600° सेल्सियस के बीच जल जाती हैं। सेलुलोस तथा लिग्रोसेलुलोस ऑक्सीजन के साथ मिलकर कार्बन डाइऑक्साइड तथा पानी बनाते हैं- (C6H10O5)n + 6nO2 -> 6nCO2 + 5nH2O। पानी भाप बनकर उड़ जाता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड वायु में मिल जाती है। यदि वायु का प्रवेश कम हो तो कुछ कार्बन मोनोऑक्साइड गैस (C6H10O5)n + 3nO2 -> 6nCO + 5nH2O तथा कार्बन की धूल (C6H10O5)n -> 6nC + 5nH2O भी बन सकती है, परन्तु यज्ञवेदी खुला स्थान होने से वायु भली प्रकार आती रहती है; अत: कार्बन मोनोऑक्साइड बननी भी नहीं चाहिए, क्योंकि यह विषैली गैस है। हाँ, कार्बनधूलि हानिकारक नहीं है; अपितु यह वर्षा में सहायक है।
यज्ञकुण्ड की बनावट, समिधाओं की लम्बाई तथा उनके रखने की विधि, तापांश और वायु-मात्रा निर्धारित कर देती है कि हवन के समय लकड़ी की आसवन-क्रिया हो जाने की पूरी सम्भावना है। आसवन-क्रिया के कारण अनेक पदार्थ पैदा होते हैं। फिर ये पदार्थ आपस में मिलकर कई अन्य पदार्थ बना लेते हैं। हाले और पामर का विचार है कि आसवन-क्रिया के आरम्भ होते ही लकड़ी सूखना प्रारम्भ कर देती है। इस समय अधिक मात्रा में पानी तथा थोड़ा-सा ऐसीटिक ऐसिड और मैथेनॉल भी बनता है। उसके पश्चात् कई गैसें उत्पन्न होती रहती हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक बुग ने लकड़ी की आसवन-क्रिया के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। वह इस प्रकार पैदा होने वाली गैसों में एक सौ से भी अधिक पदार्थों की पहचान करने में सफल रहे हैं। उनके अनुसार इस क्रिया के कारण कई हाईड्रोकार्बन (मेथैन, बैजीन आदि), ऐल्डिहाइड (फार्मेल्डी हाइड, ऐसीट ऐल्डिहाइड, फरफ्युरल, प्रोपिओन ऐल्डिहाइड आदि), कीटोन (ऐसीटोन, मेथिल एथिल कीटोन आदि), अम्ल (फार्मिक अम्ल, ऐसीटिक अम्ल, प्रोपिऑनिक अम्ल एवं नार्मल कैप्रोइक अम्ल आदि), एल्कोहॉल (मेथिल एल्कोहॉल, एथिल एल्कोहॉल आदि), फीनोल, कार्बन डाइऑक्साइड तथा पानी उत्पन्न होते हैं। कौन-सा पदार्थ कितनी मात्रा में उत्पन्न होता है, यह लकड़ी की बनावट, तापांश, दूसरे पदार्थों की विद्यमानता आदि पर निर्भर करता है। उत्पन्न द्रव्यों में एल्कोहॉल तथा कार्बनिक अम्ल भी हैं, अत: वे परस्पर मिलकर एस्टर बना लेंगे।
रालयुक्त लकड़ी के जलने तथा आसवित हो जाने पर मुख्यत: फार्मेल्डीहाइड की उत्पत्ति होती है, किन्तु कुछ मात्रा में टर्पिनिऑल, टर्पिन, सीनिओल तथा अन्य उड़नशील पदार्थ भी बनते हैं।
हवन की राख : लकड़ी के जलने पर बची राख की मात्रा कम से कम 0.2 प्रतिशत तथा अधिकाधिक 4 प्रतिशत होती है। साधारणतया राख 1 प्रतिशत से कम ही बनती है। इसमें मुख्यत: कैल्सियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम तथा थोड़ी मात्रा में ऐलुमिनियम, लोहा, मैंगनीज, सोडियम, फॉस्फोरस तथा गन्धक आदि होती हैं। पोटैशियम ऑक्साइड की विद्यमानता के कारण खाद के रूप में भी राख का प्रयोग किया जा सकता है। किसी समय राख को पौटेश-प्राप्ति का मुख्य साधन समझा जाता था।
घृत जलाना : कपूर द्वारा अग्नि प्रदीप्त कर समिधाओं पर घृत की आहुतियाँ देनी प्रारम्भ की जाती हैं। घी अग्नि को प्रज्वलित रखता है, परन्तु यदि इसका मात्र यही एक प्रयोजन होता तो किसी भी तेल या घी का प्रयोग किया जा सकता था; किन्तु शास्त्रों में गोघृत का विधान किया गया है। ऐसा क्यों? इसका कारण है कि शुद्ध गोघृत जलने पर कोई हानिकारक पदार्थ उत्पन्न नहीं करता जबकि वनस्पति घी को जलाने का स्वास्थ्य पर सुखद प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रसङ्ग में डॉक्टर फुन्दनलाल अग्निहोत्री एम०डी० ने कुछ कार्य किया है। उन्होंने टी०बी० सेनेटोरियम जबलपुर में टी०बी० के रोगियों की यज्ञ के द्वारा चिकित्सा करने का प्रयास किया। उनके अनुभवानुसार गाय के घी से यज्ञ करने पर रोगी शीघ्र आरोग्य हुए। भैंस के घी से बहुत देर में लाभ हुआ, परन्तु वनस्पति घी के प्रयोग से रोग बढ़ना प्रारम्भ हो गया, अत: वैदिक शास्त्रों में यज्ञ के लिए गोघृत प्रयोग करने का विधान है। घी ग्लिसरॉल तथा कार्बोक्सिलिक अम्लों के मेल से बना है। घी में पाये जाने वाले अम्लों में पामिटिक अम्ल, ओलीक अम्ल, मिरिस्टिक अम्ल, स्टिऐरिक अम्ल तथा लिनोलीइक अम्ल मुख्य हैं। वैसे इसमें थोड़ी मात्रा में ब्यूटिरिक अम्ल, लौरिक अम्ल, कैप्रिलिक अम्ल तथा कैप्रोइक अम्ल आदि भी होते हैं। अत: घृत के जलने से वही पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जो ग्लिसरॉल तथा उपर्युल्लिखित अम्लों की दहन क्रिया पर बनते हैं, इसलिए इन पदार्थों के ऑक्सीकरण आदि पर विचार करना उचित है-
ग्लिसरॉल : ग्लिसरॉल का जलना कुछ जलहरण तथा कुछ ऑक्सीकरण है। यह मान लेने से फार्मेल्डीहाइड की उत्पत्ति सम्भव हो जाती है; क्योंकि ग्लिसरॉल के परमाणु में से पानी निकलने पर ऐक्रोलीन बन जाती है जो ऑक्सीकृत हो जाने पर फॉर्मेल्डीहाइड बना देती है-
HOCH2CH(OH)CH2OH
-2H2O> H2O=CHCHO
O2> 2CO2+HCHO+H2O
ग्लिसरॉल के ऑक्सीकरण पर कई पदार्थ बनते हैं। डॉक्टर फीनार ग्लिसरॉल के ऑक्सीकरण पर ग्लिसर ऐल्डिहाइड, ग्लिसरिक, अम्ल, टार्टरोनिक अम्ल तथा मीसोऑक्सैलिक अम्ल की उत्पत्ति मानते हैं। इनके अतिरिक्त ग्लाइकोल ऐल्डिहाइड, ग्लाइऑक्सल तथा ऑक्सैलिक भी बन सकते हैं। इस प्रकार कई पदार्थों के बनने की सम्भावना है। वास्तविक परिवर्तन तो वायु की मात्रा तथा तापांश आदि पर निर्भर करते हैं।
अम्ल : घृत में सन्तृप्त तथा असन्तृप्त दोनों प्रकार के अम्ल होते हैं। ऑक्सीकरण के समय सन्तृप्त वसीय अम्लों के परमाणु टूटकर कुछ ऐल्डिहाइड बना देते हैं। फिर ये ऐल्डिहाइड ऑक्सीजन के साथ मिलकर अम्ल में परिवर्तित हो जाते हैं। इन द्यह्य से हाइड्रोकार्बनों की उत्पत्ति होती है।
यह आवश्यक नहीं कि यज्ञ के समय उपर्युल्लिखित सभी क्रियाएँ पूर्ण हों, क्योंकि कई बार पदार्थ ऑक्सीकरण से पूर्व ही वायु में मिल जाता है। उदाहरणार्थ अकेले घी को अग्रि में जलाइए। सुगन्धि उत्पन्न होगी, अत: स्पष्ट है कि यहां ऑक्सीकरण पूर्ण नहीं हुआ अन्यथा गन्धरहित कार्बन डाइऑक्साइड गैस बन जाती। यज्ञ के समय पूर्व-उल्लिखित सभी या उनमें से कुछ पदार्थ बनते हैं। घी के जलने से जो सुगन्ध उत्पन्न होती है, उसका कारण कैप्रोनिक ऐल्डिहाइड, नार्मल औक्टीलिक ऐल्डिहाइड, नार्मल नॉनलिक ऐल्डिहाइड, वैलेरिक ऐल्डिहाइड तथा कई अन्य उड़नशील ऐल्डिहाइड व वाष्पशील वसीय अम्ल होते हैं। ये सभी वायु में मिल जाते हैं, जिससे सर्वत्र सुगन्धि फैल जाती है।
घी के जो कण बिना जले ही वायु में उड़ जाते हैं, वे अतिसूक्ष्म होते हैं, ये अग्निहोत्र से उत्पन्न गैसों को स्वयं में लीन करके वायुमण्डल को अधिक समय तक पवित्र रखते हैं। घृत के ये कण वर्षा के लिए धूलिकणों का कार्य भी करते हैं। घी की आहुति देने से जो पदार्थ उत्पन्न होते हैं उनमें हाइड्रोकार्बनों की मात्रा पर्याप्त है। ये हाइड्रोकार्बन यज्ञकुण्ड के तापांश (450-550° सेल्सियस) पर ऑक्सीजन से मिलकर कुछ अन्य पदार्थ बना लेते हैं। उदाहरणार्थ- व्हीलर तथा ब्लेयर के अनुसार मेथैन ऑक्सीकरण पर मेथिल एल्कोहॉल तथा फार्मेल्डीहाइड आदि बना देती है। क्योंकि ये सभी पदार्थ वायु में मिलते रहते हैं, इसलिए फार्मेल्डीहाइड के ऑक्सीकृत हो जाने की बहुत कम सम्भावना है। इसी प्रकार एथेन, फार्मेल्डीहाइड, ऐसीट ऐल्डिहाइड, मेथिल एल्कोहॉल, एथिल एल्कोहॉल, फार्मिक ऐसिड आदि अनेक पदार्थ बना देती है।
हव्य सामग्री : जब अग्नि अच्छी प्रकार प्रज्वलित हो जाए तो सामग्री की आहुतियाँ दी जाती हैं।
यज्ञ-सामग्री की वस्तुओं में कार्बोहाइड्रेट भी विद्यमान है। शर्करा तथा स्टार्च इसी कार्बोहाइड्रेट के दो प्रकार हैं। चावल, गेहूं, जौ, उड़द, कपूरकचरी, तगर आदि में स्टार्च होता है। ऋषि दयानन्द ने यज्ञ में स्टार्च वाले द्रव्यों के भी डालने का विधान किया है। शर्करा वाले द्रव्यों में खांड मुख्य है। यह यज्ञ-सामग्री में पर्याप्त मात्रा में डाली जाती है। इसके अतिरिक्त शहद, दुग्ध, तगर, गेहूँ, लौंग, दाख, छुहारे, नरकूचर आदि में भी पर्याप्त मात्रा में शर्करा होती है। इनके जलने से स्वास्थ्य के लिए हितकर गैसें उत्पन्न होती हैं। फ्रांस के विज्ञान के एक भूतपूर्व अध्यापक टिलवर्ट का विचार है कि खाँड के तेजी से जलने पर (अग्निहोत्र में ऐसा ही होता है) फार्मेल्डीहाइड की उत्पत्ति होती है। यह गैस कृमियों का नाश करके वायु को मनुष्योपयोगी बना देती है। यज्ञ के द्वारा वायु सुगन्धित हो जाती है; क्योंकि अग्निहोत्र में कस्तूरी, केसर, अगर, श्वेत चन्दन, जायफल, जावित्री, लौंग, कुलञ्जन, बालछड़, इलायची और कपूर आदि भी डाले जाते हैं। ये द्रव्य कुछ वाष्पशील सौरभिक पदार्थ उत्पन्न करते हैं।
आर०एन० चोपड़ा ने लिखा है कि प्राय: चन्दन की लकड़ी को खूब बारीक रगड़कर भाप के साथ गर्म करने पर इसमें से तेल निकलता है जिस में लगभग 90 प्रतिशत सेण्टालोल होता है। यज्ञ में भी चन्दन का चूरा ही प्रयोग किया जाता है। अग्निहोत्र के समय भाप भी काफी बनती रहती है, अत: इस तेल का बनना सम्भव है। लकड़ी के टुकड़ों के स्थान पर चूरे का प्रयोग किया जाना विज्ञान-संगत है। जे०एफ० दस्तूर के अनुसार ‘चन्दन का यह सुगन्धित तेल अपवित्रता-नाशक, कीड़ों को परे भगाने तथा मारने वाला है।’ देवदार के तेल में पाइनीन तथा हाइड्रोकार्बन होते हैं। यह तेल कृमिरोधक है। बड़ी इलायची सीनिऑल तथा टर्पिनिऑल और बालछड़ बोर्निओल को उत्पन्न करती है। जो पदार्थ इस प्रकार उत्पन्न होते हैं वे 200-400° सेल्सियस तापांश पर उड़ जाते हैं तथा वायु में मिलकर सुगन्धि पैदा करते हैं। यज्ञ के समय जो धुआँ और भाप बनता है वह इन पदार्थों को बहुत दूर तक फैला देता है। इस प्रकार इन पदार्थों को वायु में मिलने में सुविधा हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जलाने से किसी वस्तु का नाश नहीं होता, केवल रूप बदल जाता है। आहुति देने के पश्चात् भी पदार्थों का उपयोगी भाग ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वे पदार्थ केवल सूक्ष्म हो जाते हैं। इनका सूक्ष्म आकार इन्हें वायु में मिलने एवं फैलने में सुविधा प्रदान करता है। उड़ने वाले तेलों के परमाणुओं का व्यास लगभग 1×10-2 से 1×10-7 मिमी होता है। ये परमाणु श्वास के द्वारा रोगी के फेफड़ों में पहुंचकर क्षत को भर देते हैं।
आहुति का परिमाण : ये परिवर्तन तभी फलदायक हो सकेंगे जब घी और सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात् प्रज्वलित अग्नि पर डाले जाएंगे। यदि सभी द्रव्यों की आहुति एकदम, बिना किसी विधि के दे दी गई तो अग्नि भी बुझ जाएगी तथा क्रियाएं पूर्ण न होने के कारण वाञ्छित गैसें उत्पन्न न हो सकेंगी। यदि सामग्री देर में डाली जाए तो गर्मी का उचित लाभ न उठाया जा सकेगा, अत: बिना विधि के किया गया अवैज्ञानिक कार्य यज्ञ नहीं कहलाएगा। ऋषि दयानन्द ने पूना में सातवें दिन का व्याख्यान देते हुए ठीक ही कहा था, ‘योग्य रीति से यथाविधि होम करना चाहिए। एकदम मन भर घी जला दिया वा चम्मच-चम्मच करके मनभर घृत को वर्ष भर जलाते रहे तो भी होम नहीं होगा।’ महर्षि के इन वचनों के वैज्ञानिक महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। ऋषिवर दयानन्द ने आहुति के सामान्य परिमाण के विषय में लिखा है, ‘कम-से-कम छह मासा भर घृत व अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो, अधिक-से-अधिक छटाँक भर की आहुति देवें।’ यह परिमाण साधारण यज्ञों के लिए है। बड़े यज्ञों में अधिक आहुति देने का विधान है। देव दयानन्द आगे लिखते हैं- ‘छह-छह मासे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून-से-न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा।’
मंत्र क्यों? : प्रत्येक आहुति देने से पूर्व उस आहुति के लिए निश्चित किए मन्त्र का उच्चारण करने का विधान है। इससे हवन-सामग्री अर्पित करने का समय व्यवस्थित हो जाता है तथा क्रिया सुविधापूर्वक चलती रहती है। साथ ही वेद की रक्षा तथा समय का सदुपयोग भी हो जाता है। मन्त्रों से यज्ञ के प्रत्येक अङ्ग का साथ-साथ ज्ञान होता जाता है; क्योंकि उस क्रिया से सम्बन्धित मन्त्र ही तत्-तत् क्रिया के अवसर पर उच्चारित किया जाता है। यही मन्त्रों का विनियोग कहलाता है। सारा कार्य बोझ न बनकर पवित्र, धार्मिक कृत्य बन जाता है। इसी धार्मिक भावना के कारण यज्ञ के समय कितने ही नर-नारी केवल दर्शक के रूप में बैठे रहते हैं। उन्हें भी सुगन्धित वायु में सांस लेकर निज स्वास्थ्य की रक्षा करने का अवसर प्राप्त होता है।
प्रकाश-संश्लेषण : यज्ञ में सूर्य की किरणों का बहुत महत्त्व है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है, ‘सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का समय है।’ वैसे भी यज्ञवेदी खुला स्थान होता है, जहाँ प्रकाश सुविधा से पहुंच सके। सूर्य के प्रकाश को इतना महत्त्व देने का कारण यह है कि यज्ञ के समय उत्पन्न हुए पदार्थों में सूर्य के प्रकाश की विद्यमानता में कई प्रकार के रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं। कुछ ऐल्डिहाइड और एल्कोहॉल ऑक्सीकृत हो जाते हैं। हाइड्रोकार्बन तथा फीनोल का बहुलीकरण हो जाना संभव है। पराबैंगनी प्रकाश में कुछ कार्बन डाइ ऑक्साइड पानी के साथ मिलकर फार्मेल्डीहाइड भी बना लेती है। फार्मेल्डीहाइड अन्य कई परिवर्तनों के द्वारा भी बनता रहता है।
सूर्य के प्रकाश का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य प्रकाश-संश्लेषण है। हरे पौधों में क्लोरोफिल होता है। पौधे धूप की विद्यमानता में क्लोरोफिल की सहायता से कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बोहाइड्रेट में बदल देते हैं। इस क्रिया को प्रकाश-संश्लेषण कहते हैं। क्लोरोफिल के बिना यह परिवर्तन नहीं हो सकता। भारतीय शास्त्रकारों ने भी यज्ञवेदी के चहुँ ओर हरी लताएँ तथा पौधे लगाने का विधान किया है। इससे जहाँ स्थान की शोभा और रमणीयता बढ़ती है, वहीं प्रकाश-संश्लेषण भी होता रहता है। प्रकाश-संश्लेषण केवल धूप में ही सम्भव है। यही कारण है कि दिन की अपेक्षा रात्रि में वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 12 प्रतिशत बढ़ जाती है। यदि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा वायु में 0.6 प्रतिशत हो तो पता नहीं चलता। 1.5 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड से सिरपीड़ा आदि होती है। वैसे सिरपीड़ा एवं मूर्छा आदि का कारण कार्बन डाइआक्साइड नहीं, अपितु ऑक्सीजन का अभाव होता है। यदि 7.5 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड हो तो वायु विषाक्त बन जाती है, अत: यज्ञ के लिए सूर्योदय के पश्चात् तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय निश्चित करना वैज्ञानिक महत्त्व रखता है।
प्रकाश-संश्लेषण के लिए पानी की विद्यमानता भी आवश्यक है। यज्ञ के समय पानी कई रासायनिक परिवर्तनों से बनता रहता है। हव्य पदार्थों में भी पर्याप्त मात्रा में पानी होता है। यही जल भाप बनकर उड़ जाता है तथा वायु में रहता है। इस प्रकार अग्निहोत्र प्रकाश-संश्लेषण की सारी शर्तें पूरी करता है।
यज्ञ के द्वारा उत्पन्न हुई कार्बन डाइआक्साइड हानि नहीं पहुँचाती, अपितु पौधों के लिए भोजन देती है। पौधे कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन के बिना जीवित नहीं रह सकते। वनस्पति जगत् प्रतिवर्ष 60×1012 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड को निज भोजन में परिवर्तित कर रहा है। भूमि पर पड़ने वाली सूर्य की शक्ति का 1×10-4 भाग केवल इसी क्रिया में व्यय हो रहा है, अत: कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में किञ्चित् वृद्धि से अधिक प्रकाश-संश्लेषण होगा जिसका फसल पर सुखद प्रभाव पड़ेगा। मैक्समोव इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ‘खाद की गर्म तह से आच्छादित पौधों की तेज वृद्धि केवल इस प्रकार उत्पन्न अधिक तापांश के कारण ही नहीं अपितु कार्बन डाइ आक्साइड की अधिक मात्रा के कारण भी होती है।’ इसका प्रमाण एक वैज्ञानिक ने सन् 1904 में CO2 की मात्रा बढ़ाकर अधिक फसल उत्पन्न करके दिया है।
ऐसा समझा जाता है कि चूने की भट्ठियों में काम करने वालों को कार्बन डाइऑक्साइड की विद्यमानता के कारण फेफड़ों का क्षयरोग नहीं होता। इसी आधार पर एक फैंच डॉक्टर ने क्षयरोग की एक चिकित्सा निकाली थी। विधि इस प्रकार है कि कार्बन डाइऑक्साइड से युक्त वायु में कैल्सियम धूल पर शुष्क गर्मी का प्रयोग किया जाये। फिर इस वायु में रोगी लम्बे लम्बे साँस ले। यह प्रयोग इनके द्वारा कई रोगियों पर एक-दो दिन में बारह-2 बारह बार किया गया। इससे क्षय के चिह्न दूर होने शुरू हो गए तथा रोगियों का भार भी बढ़ने लगा।
सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणें तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं। अथर्ववेद (2-32-1) में कहा गया है-
उद्यन्नादित्य: क्रिमीहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभि:। ये अन्त: क्रिमयो गवि।।
‘उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटों का नाश करता है।’ सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। राबर्ट कौच ने सन् 1890 में अनेक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया कि क्षयरोग (फेफड़ों के क्षयरोग को छोड़कर) के कीटाणु इस प्रकाश में दस मिनट से अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते। इसीलिए क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति को धूप सेंकनी चाहिए। सम्भवत: जनसाधारण में इसको यह कहकर मान्यता प्रदान की जाती है कि अंधेरे में क्षयरोग बढ़ता है तथा प्रकाश में दुम दबाकर भाग जाता है। अत: यज्ञ के लिए सूर्योदय के बाद तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय ही ठीक है।
[सम्पादकीय टिप्पणी : यह लेख श्रद्धेय डॉ० रामप्रकाश जी की पुस्तक ‘यज्ञ-विमर्श’ के एक अध्याय का सम्पादित अंश है। अविकल अध्ययन के लिए सत्यार्थ प्रकाशन (डा० राजेन्द्र विद्यालंकार) कुरुक्षेत्र से प्रकाशित यह पुस्तक पढ़नी चाहिये। -सहदेव समर्पित, सम्पादक- शांतिधर्मी]
द्रष्टव्य:
1. सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास, तुलना : ऋषि दयानन्द सरस्वती के पूना प्रवचन (व्याख्यान सात)
2. In all chemical and physical changes, the total mass of the system remains constant or “Matter can neither be created nor destroyed by any physical or chemical means though it may changes its form.”
3. ऋषि दयानन्द सरस्वती, यजुर्वेदभाष्य, (1/8)
4. At certain temperature and pressure, the rates of diffusion of gases are inversely proportional to the square roots of their densities.
5. दयानन्द सरस्वती, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषयविचार
6. Hawley and Palmer, U.S. Department Agr. Bull., 129 (1914)
7. G.Bugge, Industrie der Helzdistillations Produkta. Theeder Steinkoff, Dresden & Leipzig (1927)
8. Satya Prakash, Agnihotra, The Sarvadeshik Arya Pratinidhi Sabha, Delhi (1937), 130-31
9. डॉक्टर फुन्दनलाल ‘अग्निहोत्री’, हवन-यज्ञ द्वारा क्षयरोग की चिकित्सा (1956)
10. I.L. Finar, Organic Chemistry, Longman, London (1973)
11. T.S.Wheeler and E.W. Blair, J. Soc.Chem. Ind., 42, 421 (1923)
12. Bone and Andrew. J.Chem. Soc., 87, 1232 (1905)
13. G. Eglff and R.E. Schaad, Chem. Revs., 9, 91-141 (1929)
14. R.N. Chopra, I.C.Chopra, K.L. Handa and L.D. Kapur, Indigenous Drugs of India, Dhur & Sons, Calcutta (1958)
15. J.E. Dastur, Medicinal Plants of India and Pakistan, D.B. Taraporewala & Co. Ltd., Bombay (1977)
16. ऋषि दयानन्द सरस्वती, पूना- प्रवचन, व्याख्यान सात
17. N.A. Maximov, Plant Physiology, McGraw Hill, New York (1938)
18. देवयज्ञ प्रदीपिका में ‘हिन्दू मैसेज’ के ‘मैडिकल सप्लीमैण्ट’ से उद्धृत
साभार शांतिधर्मी हिंदी मासिक पत्रिका, जींद हरियाणा से पिछले 23 वर्षों से लगातार प्रकाशित हो रही है।

Comment: