(कुछ दिन पहले गौहत्या बंदी के पक्ष में श्री आनंद कुमार जी का लेख ब्लॉग पर लिया था. आज इस समस्या का दूसरा पक्ष भी प्रस्तुत है. बेहद तर्कसंगत पद्धति से जमीनी हकीकत को एक गौपालक के नज़रिए से समझाया गया है. आशा करता हूँ कि सभी मित्र पूरे लेख को ध्यान से पढ़ेंगे, गौहत्या बंदी जैसे मुद्दे को सिर्फ भावनात्मक नज़रिए की बजाय व्यावहारिक एवं वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करेंगे, ताकि एक समुचित चर्चा हो, दोनों पहलुओं का विस्तृत अध्ययन हो और सरकार तथा गौपालक मिलकर इसका समाधान खोजें). पेश है गौहत्या बंदी कानून का दूसरा पहलू… अपनी राय अवश्य दें एवं शेयर करके सम्बन्धित नेताओं-अधिकारियों तक पहुँचाने की कोशिश करेंगे)… अनाद्य प्रकाश त्रिपाठी जी (https://www.facebook.com/AnadyaPrakashTripathi) का यह लेख निश्चित ही विचारणीय है…
गाँव के जितने किसानो के गायों को बछड़ा होता है वो दूध दुहने के बाद बछड़े को गाँव के बाहर छोड़ देते हैं. उत्तर प्रदेश देवरिया जिला गाँव सिरजम में मेरे गाँव के बाहर के दो एकड़ खेत में मटर बोया गया था, इन लावारिस बछड़ो ने पूरा सत्यानाश कर दिया, भाई इसका क्या हल है, मुझ जैसे सैकड़ो किसानो को इन लावारिस बछड़ो के आतंक से मुक्ति दिलाने का कोई तो मार्गदर्शन करे? महाराष्ट्र में गौहत्या बंद होने पर जश्न मनाने वालो में से है कोई बताने वाला, मेरे इस समस्या का हल…….
प्रथम बार जब मैंने फेसबुक पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा उठाया, तो मुझे जबाब दिया गया की गौशालो से संपर्क करो। मै अपनी सोच पुनः आप लोगो के साथ शेयर करना चाहूँगा. “वाह भैया, दुनिया अपने बछड़े मेरे खेतो में छोड़ जाये और मैं गौशाला- खोजता फिरूं?” इतना उत्तम तरीका सुझाने के लिए धन्यवाद, मास्टर डिग्री धारक मेरे दिमाग में भूसा भरा था जो इतना भी नहीं समझ सकता की आवारा बछड़ो को गौशाला में भेजो, अरे भाई साहब अब यह राय दे दिए हो तो उत्तर प्रदेश में स्थित कुछ गौशालाओं के नाम पता भी बता दीजिये, ये भी बता दीजिये के उनके पास अभी और कितने बिना दूध देने वाले बछड़ो के रखने की कैपिसिटी है. हाँ, साथ में ये भी बता देते की बछड़ो को मेरे गाँव से गौशाला भेजने का लेबर चार्ज और ट्रांसपोर्टेशन चार्ज का बंदोबस्त कौन सा गौशाला दे रहा है। वास्तव में ये संवाद हमारी मूर्खता को परिलक्षित कर रहा है कि आज भी हम उचित और ब्यवहारिक मुद्दो नजरअंदाज करते हुए भावनाओ और वोट बैंक के लिए कैसे काम करते है, हँसी आती है उन लोगो द्वारा गाय पालने के फायदे सुन कर जिनको गाय के गोबर की गंध से ही उलटी आने लगती है.
सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले के कई दूरगामी परिणाम सामने आएँगे…
(१) आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) के द्वारा होने वाले फसल बर्बादी का मुद्दा भी एक गंभीर प्रश्न है
(२) सीमा पर (बंगाल और पाकिस्तान) पशु तस्करी बहुत बढ़ जाएगी
(३) अप्रत्यक्ष रूप से हम बंगाल और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में मदद के जिम्मेदार होंगे
(४) जो जॉब और आमदनी अभी भारतीयों और भारत सरकार को हो रही है उसको खुले हस्त से हम बंगाल और पाकिस्तान को दे देंगे
(५)पशु तस्करी के माध्यम से पुलिस और कस्टम के अधिकारियों को भ्रस्टाचार करने का खुला न्योता
(६) अब तक इतने कत्लखानो के सञ्चालन के बाद भी बाद भी गायों और शहरों की सडको पर आवारा पशुओं (लोगो द्वारा छोड़े गए बिना दूध देने वाले जानवर ) द्वारा फैलाई जाने वाली गन्दगी और झुण्ड द्वारा किया जाने वाला अतिक्रमण.
(७) और हाँ, एक बात तो बताना भूल गया, जो लोग मांसभक्षी है, जब उनके मुँह से माँस छिन जायेगा तो वो सब्जी खाएंगे, अब सब्जियों की पैदावार बढ़ने के लिए अलग से जमीनें तो पैदा होने वाली नहीं है, सो “डिमांड एंड सप्लाई” के साधारण अर्थशास्त्र से सब्जियों के दाम दोगुने होने की पूर्ण संभावना है, जो हर भारतबासी चाहे उसका संप्रदाय जो भी हो के जेब पर भरी पड़ने वाला है.
राजनीती में वोट बैंक के लिए नब्य भारत के सृजन में लोगो को अपने पैर पे कुल्हाड़ी मारते हुए देख और उससे होने वाले जख्म के दर्द से अनजान लोगो को उल्लास मानते हुए देख के मन में पीड़ा हो रही है। धर्म अपनी जगह है आस्था अपनी जगह है. लेकिन धर्म के नाम पर अपने भविष्य को बिगड़ना किसी भी लिहाज़ से समझदारी भरा कदम नहीं हो सकता है।
फेसबुक पे संदीप बसला जी दूध के अर्थशास्त्र को भारतीय बिजली कंपनियो के अर्थ शास्त्र से तुलना करते हुए बहुत अच्छे से इस समस्या के आर्थिक पहलू को उजागर करते है. संदीप जे कहते है :
“दूध का अर्थ शास्त्र को ऐसे समझो: नाकारा बिजली अधिकारी, नेताओं का तुष्टिकरण, पुलिस की कमी, और बेईमान जनता की वजह से अब आप जो बिजली के पैसे चुका रहे हो उसमे उस चोरी हुई बिजली का मूल्य भी शामिल है जबकि वो बिजली आपने उपभोग नहीं की उसका दंड भुगत रहे हम सब दूसरों पर खर्च हुई बिजली के मूल्य का – यही है बिजली का अर्थ शास्त्र.
ठीक इसी तरह से अब जब दूध देने वाले पशु तो दूध उतना ही देंगे पर दूध ना देने वाले पशु को भी चारा तो चाहिए ही उसकी लागत कहाँ से आएगी ? जो दूध बेचा जा रहा उसी से. तो जो दूध 40 rs लीटर है वो 100 rs मिलेगा. और रहने के लिए जगह ? सच्चाई ये है कि रहने के लिए जिन्दा लोगों के लिए नहीं है, पशुधन कहाँ रहेगा ? सिर्फ भावनाओं से काम नहीं चलता। देश पर बहुत भारी पड़ेगा ये फैसला।” अगर भावनाओ से ऊपर उठकर विचार करें तो इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है, कि इस निर्णय से लोगो को लाभ तो कुछ भी नहीं होगा लेकिन हर ब्यक्ति को इसकी कीमत जरूर चुकानी पड़ेगी.
कहने का तात्पर्य ये है की जब तक किसी भी योजना का व्यावहारिक लाभ और सामाजिक समरसता सुनिश्चित नहीं किया जायेगा तब तक वह सिर्फ विद्वानों के लिए वादविवाद का विषय भर रहेगा. फेसबुक पर नितिन त्रिपाठी जी कहते है कि “सोशल मीडिया पर चाहे जो कोई जो कुछ कहे, कटु सत्य है कोई किसान बैल या बछड़े को नहीं पालता, सरकार गौशाला के लिए ऋण दे यह भी समाधान नहीं क्योंकि गौशाला के नाम पर तो सबसे ज्यादा फ्रॉड होता है| वित्तीय फ्रॉड की चर्चा किये बगैर केवल कार्य पद्धति में ही जाऊं तो मैंने लगभग सौ गौशालाएं देखीं और ज्यादातर में बैल या बछड़े नहीं दिखाई दिए. इतना ही नहीं गाय भी केवल वही ही दिखाई दीं जो दुध देती हैं. बात बिल्कुल साफ़ है, कोई भी मॉडल जब तक वित्तीय तरीके से लाभ दायक नहीं होगा तब तक उसे कोई भी किसान या व्यवसाई नहीं अपनाएगा. कृषि मेले में गौ मूत्र का खेती में उपयोग आदि की खूब चर्चा की जाती है| पर इन सबका प्रैक्टिकल इम्प्लीमेंटेशन दिखाई नहीं देता असल जिंदगी में बैल आधारित खेती भी असंभव है प्रैक्टिकली आधुनिक युग में, अगर सम्भव भी है तो प्रैक्टिकल में कहीं दिखती नहीं. इन सब परिस्थितियों में मुझे नहीं लगता की किसान या व्यवसाई को मजबूर किया जाना चाहिए बैल पालन हेतु.
नितिन जी का ये तथ्य हमे सोचने पे मज़बूर कर रहा है की क्या समर्थ और उन्नत भारत की कल्पना के साथ हम सही दिशा में चल रहे है या भावनाओ में बह कर राजनीतिक लाभ के लिए पिचले ६५ साल से जो कोंग्रेस कराती आई है, हम भी वही कर रहे है. देश के विकास और जन कल्याण की योजनाओं को टाक पर रख कर कांग्रेस एक समुदाय विशेष को लाभ पहुचाने का काम कर रही थी. नयी सरकार दुसरे समुदाय की भावनाओ से खेल रही है, महाराष्ट्र सरकार के इस निर्णय से मुझे किसी भी समुदाय या ऐसा कहें कि भारत के किसी भी ब्यक्ति को कोई लाभ होते हुए नहीं दिख रहा है. हाँ दूरगामी दुष्परिणाम सब को भोगना होगा.
जब किसानी पारम्परिक तौर तरीको से की जाती थी तब गौ पालन इतना खर्चीला नहीं होता था आप के ज्ञानवर्धन के लिए कुछ तथ्य : आज कम्बाइन हार्वेस्टर जमाना है, जब ये नहीं था, तब गेहूँ और धान की कटाई हाथो से होती थी. फसल से गेहू और धान निकलने के बाद जो बाई-प्रोडक्ट बचता था वो भूसा होता था, मुफ्त में मिल जाता था गेहू और धान की मड़ाई के साथ साथ.. अब कम्बाइन हार्वेस्ट से गेहूँ और धान की बालियां ऊपर ऊपर चुन लिया जाता है, कोई भूसा नहीं मिलता है, शेष खेत में आग लगा के उसे पुनः जुताई योग्य बनाया जाता है. अब भूसा चाहिए वो भूसा वाला हार्वेस्टर ले के उसी खेत की पुनः मड़ाई करे, प्रोसेस कॉस्ट दोगुना, और भूसा का खर्च ६-१० रुपये प्रति किलो।
एक गाय (दूध दे या न दे ) प्रति दिन ५-८ किलो भूसा खायेगी, मतलब ८० रुपये रोज, महीने के २४००। बाकि दाना पानी अलग से. इस खिलाने-पिलाने के दौरान लगाने वाला मानव संसाधन का महत्व हीं नहीं है. अब आप खुद अंदाज़ा लगाओ की एक दूध न देने वाली गाय को पालने का खर्च कितना है ? गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करने वाला किसान जो अपना पेट पालने में असमर्थ है वो इनका क्या करेगा ? और हाँ… डेरी इंडस्ट्री वालो से कोई उम्मीद ही ना रखो, आत्मा काँप उठेगी आप की अगर एक बार भारत के किसी डेयरी में जा के देख लो, कि दूध न देने वाली गाय का ये लोग कैसे पालन पोषण करते है? और मर जाने पर क्या करते है? किसी ने सुझाव दिया कि राजीव दीक्षित जी ने बताया है की गाय दूध ने देते हुए भी लाखो का फायदा करा सकती है!!!!!! बताया गया है कि ८० लाख तक की आमदनी हो सकती है. मैंने कहा जी भैया ४०० क्विंटल गोबर हर महीने उत्पादन होता है मेरे यहाँ… पूरा का पूरा गाँव वाले फ्री में उठा के ले जाते है, जरा पता तो बता दीजिये उस इंडस्ट्री का, जो इस गोबर का व्यावसायिक उपयोग कर सके? हवा में बातें बनाना अलग बात है और धरातल पर कर्तब्य करना और बात. हाँ जिस दिन ऐसे इंडस्ट्री भारत के कोने-कोने में होगी, चाहे कोई कानून हो या न हो, कत्लखानो को गायें नहीं मिलेंगी कटाने के लिए, वो वैसे ही बंद हो जाएँगी।
किसी ने सुझाव दिया, आप गोबर गैस प्लांट क्यों नहीं लगा लेते? आइये आपको गोबर गैस प्लांट की व्यावहारिक हकीकत से रूबरू करते है. गोबर गैस प्लांट एलपीजी सिलेंडर जैसा नहीं होता। पहले गोबर गैस प्लांट के निर्माण के लिए लगभग २ लाख की पूंजी चाहिए। फिर उसमे गोबर डालना और हर १५ दिन बाद उसमे से सड़ चुके गोबर को बाहर निकालने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन जुटाना मुस्किल है, भारत में कोई भी ऐसे काम को करने के लिए तैयार नहीं है, अगर कोई मिल भी गया तो काम १५-२० हज़ार रुपए महीने से काम ना लेगा। अब आते है गैस पर, गोबर गैस का व्यावसायिक उपयोग न के बराबर है, घरेलू उपयोग खाना बनाना और प्रकाश की व्यवस्था तक ही सीमित है. खाना बनाने के लिए एलपीजी ५०० प्रति सिलिंडर में मिलेगी, महीने भर के लिए पूर्ण है. प्रकाश के लिए LED लाइट कही ज्यादा सुभिधाजनक सस्ता और उपयोगी है. अब आप सोच के बताइये कि गोबर गैस सयंत्र बना कर, उसमे इतना निवेश कर के मै कितनी बुद्धिमानी का परिचय दूंगा ? जब तक गैस के बारे व्यावसायिक उपयोग के लिए हर गाँव में प्लांट नहीं लगेंगे, और जब तक इस गैस को बॉटलिंग कर के एलपीजी के बराबर का व्यावहारिक दर्ज़ा नहीं मिलता, ये सारी बातें बस कोरी कल्पना मात्र रह जाएँगी।
इस क़ानून का सबसे निर्मम पक्ष ये है कि गाँव में जब लोग बछड़ो और दूध न देने वाली गयो को बहार जा के छोड़ देते है तो वो गाये किसानो की फसल बर्बाद कराती है. किसान अपनी फसल रक्षा के लिए बड़े पैमाने पर कीटनाशको का इस्तेमाल करते हैं, ये कीटनाशक खाकर गायें तड़प तड़प कर मरती है. शहरों की स्थिति और भी खतरनाक है, लोग गायों को खाना पानी भी नहीं देते. सुबह दूध दुहने के बाद गाय के बच्चे को बांध लेते है और गाय को सड़को पर छोड़ आते हैं. प्लास्टिक कचरा और विषैले पदार्थो को खा कर वह गाय शाम के पुनः दूध देने आ जाती है, बाद में इसका जो दुष्परिणाम होता है वह यह कि इन गायों को कैंसर और Gastrointestine की बीमारियाँ हो जाती है और ये गाएँ तिल-तिल कर मरने के लिए मज़बूर हो जाती है.
समाधान यही है कि हम अपनी भावनाओ में बहने से बाहर निकलें हिन्दू धर्म में हर जीव को समान सत्ता माना गया है, मुर्गिया और बकरिया कटे तो कटे, और गाय कटे तो वो हमारी माता। दोनों के जीवात्मा में फर्क क्या है? कोई है हिन्दू तत्व दर्शन की व्याख्या के साथ इस रहस्य को समझने या समझाने वाला? हिन्दू धर्म तो ये भी कहता है जीव कभी नहीं मरता, उसका तो बस चोला बदल जाता है. फिर ये स्यापा रोना क्यों? ईश्वर ने सृष्टि बनाई तो पालक विष्णु और संहारक महेश (शंकर) दोनों को बनाया। सृष्टि को संतुलित बनाये रखने में पालक और संहारक दोनों का योगदान है, ऐसा तो नहीं की हम विष्णु को माने और शंकर की पूजा छोड़ दे. हर कोई गाय को अपनी माता मानना चाहता है, लेकिन कोई नहीं चाहता की एक बिना दूध देने वाले गाय को पालने की जिम्मेदारी उसके ऊपर डाल दी जाये। पैसा लगता है ना गाय के पोषण में और दूध भी नहीं मिलेगा। फिर इस स्वार्थ के रिश्ते को माता कह के बदनाम क्यों किया जा रहा है।
आप जिस धर्म को मानते हो, उस धर्म के भगवान के खातिर इस मुद्दे में धर्म को मत घुसेडिये, गाय को पालना हो पालिए, खाना हो खाइए, आप की अंतरआत्मा आप को जो भी करने को कहे करिए लेकिन बीच में धर्म को मत लाईये. कभी भारत कृषि प्रधान देश होता था गोवंश भारतीय अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग था. समाज धर्म के आधार पर चलता था, इसी लिए गाय को भी उच्च धार्मिक दर्जा प्राप्त था, आज समाज बदल रहा है, अर्थव्यवस्था का संचालन स्रोत बदल रहा है. हम एक ऐसे समय से गुजर रहे है जो संक्रांति काल है, हम अपने सोच में अभी इतने परिपक्व नहीं हो पाए है की धर्म और अर्थ के सोच को समानांतर बिना एक दुसरे को बाधित किये सोच सके. ऐसे परिस्थिति में एक बैकल्पिक रास्ते की जरूरत है जहाँ धर्म और अर्थ को निर्बाध गति से बिना किसी की भावनाओ को ठेस पहुचाये गति प्रदान कर सके. अर्थ या धर्म दोनों में किसी की भी अति किसी अवस्था में समाज के लिए आदर्श परिस्थिति नहीं उत्पन्न कर सकती. ये एक गंभीर विषय है, अर्थ को प्रधान मान के या धर्मान्ध हो अगर हम कोई निर्णय लेते है तो आने वाला भविष्य उसके दुष्परिणाम को भोगेगा, और जीवन भर हमे कोसेगा कि सही समय में हम ने सही फैसला नहीं लिया. इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए हमे सभी पहलुओं और वैकल्पिक रास्तो पर विचार करना चाहिए.
मेरा मानना है कि जो भी गौ पालक है उनको एनिमल हसबेंडरी की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये, उनके सामने आने वाली हर समस्या के निदान के लिए आर्थिक और सामाजिक माहौल मुहैया कराया जाये, अपनी माता (गाय ) के पालन पोषण में उनको खुद सक्षम बनाने पर बल दिया जाये. फेसबुक पर ही स्वाति गुप्ता जी कहती हैं कि “विदेशों मे काउ-फार्मिंग (गोपालन) होती है, जिसमें दो तीन लोग मिलकर दो हज़ार गाएँ मैनेज करते है । इन गायों का खाना भी अच्छा होता है और दूध भी अच्छा देती है । इधर उधर भी नहीं फिरती”. सोचने वाली बात ये है कि हम वो टेक्नोलॉजी भारत में क्यों नहीं ला रहे है? गौपालकों को गौशाला के नाम पर सब्सिडी के वकालत करने वाले लोग इस दिशा में क्यों नहीं सोचते कि ये सब्सिडी काउ फार्मिंग (गोपालन) टेक्नोलोजी में लगे और हम उन्नत तरीके से गौपालन करे.
अगर वास्तविक रूप से इस समस्या के समाधान के लिए अगर किसी चीज के जरूरत है तो वो यह है कि उन्नत टेक्नोलॉजी और सरकारी सामाजिक सहयोग से एक इण्डस्ट्रियल विकास की, जिससे गैस, पावर, मिल्क प्रोडक्ट और बहुत से चीजों का व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है। जब तक ये व्यवस्था गाँव गाँव में नहीं कर दी जाती तब तक समस्या जस की तस बनी रहेगी. पहले गौ आधारित इण्डस्ट्रियल विकास करना होगा, फिर एक-एक गोपालक को कच्चा मॉल सप्लाई के लिए इस चेन से जोड़ना होगा
इस मुद्दे पे अतुल दुबे जी कहते है के “भाई लोग जो गाय दूध नहीं देती उनकी रक्षा हो सकती है, जिसके लिए आप को दान देने की भी जरूरत नहीं / गौ मूत्र और गोबर से बहुत सारे समान ( मंजन से मच्छर मार अगरबत्ती तक) बनते है अगर हम ईस्तेमाल करे तो गौ रक्षा हो सकती है. बस जरूरत है लोगो तक इसकी अच्छाई पहुँचाई जाए”. मै अतुल जी के इस सोच से काफी हद तक सहमत हूँ, पर मुख्य समस्या वही है जो चूहों के एक मीटिंग में चूहों के सरदार के सामने थी, बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? आप गोपालक से ये उम्मीद नहीं कर सकते की गोबर और मूत्र का व्यावसायिक उपयोग के लिए संसाधन पूंजी निवेश और बने सामानों की मार्केटिंग खुद करे. ये अन्याय होगा. हाँ एक और सच्चाई यह है कि मै अब तक अपने संपर्क में किसी को नहीं जानता जो मंजन में गोमूत्र और गोबर से बना प्रोडक्ट प्रयोग करते हो, और मच्छर मार में आलआउट और मार्टिन छोड़ कर कुछ दूसरा प्रयोग करते हो. बात कड़वी हो सकती है लेकिन सच्चाई से हम मुह नहीं मोड़ सकते. व्यापारी को जब तक शुद्ध मुनाफा नहीं होगा, वो ऐसी कोई भी इंडस्ट्री लगाने वाला नहीं. तो बात वहीं आ कर रुक जाती है, ऐसी योजना का विकास कैसे किया जा सके, कि गौसेवक गाय के मूत्र और गोबर को उन कंपनियों तक पंहुचा सके जो इसका व्यावसायिक उपयोग कर सके… और साथ में इतनी कमाई भी पा सके कि उनकी लागत मूल्य निकल सके? बिना दूध देने वाले एक गाय को पालने में लगने वाला मासिक खर्च ४-५ हज़ार पड़ता है, वास्तविक धरातल पर रहते हुए अगर बात करें तो क्या हम ऐसे इंडस्ट्री का विकास कर सकते हैं, जो गाय का गोबर और मूत्र के बदले गोपालक को प्रति माह ५-६ हज़ार रूपये दे सकती है ? वर्त्तमान में तो ये असंभव ही प्रतीत हो रहा है.
साथ में जो लोग बीफ (गौ मांस) के उद्योग से जुड़े हैं, उनको भी स्लाटर हाउस की एडवांस टेक्नोलॉजी के बारे में जागृत किया जाये और उनको इस उद्योग से अधिकतम मुनाफा कैसे बनाये इस बात की सीख दी जाये. इस मामले में राजकीय हस्तक्षेप करने की बजाय पालक और संहारक को अपना संतुलन बनाने के लिए स्वंत्रता प्रदान की जाये। क्योंकी पालक है, तो ही संहारक है, संहारक अपने उद्योग के फायदे के लिए पालक को ज्यादा गोबंश उत्पादन के लिए प्रेरित करे, इसी प्रकार पालक स्वय निश्चित करे की उसके हित में क्या है, ये समन्वय ही सृष्टि को अब तक चला रहा था और इसमें हस्तक्षेप सृष्टि श्रृंखला में परिवर्तन लाएगा जिसके दुष्परिणाम भयानक हो सकते है.
जैसा कि सब जानते है की मदिरा-गुटखा-बीड़ी-सिगरेट खतरनाक और नुकसानदेह है, सिवाय नुकसान के इन से कोई फायदा नहीं है, फिर भी सरकार इनके फैक्ट्री को बंद नहीं कराती है, बस जागरूकता अभियान चलती है. क्यों? ऐसे ही कत्लखाने बंद करना समस्या उपाय नहीं है, समुचित और सही उपाय तो तब होगा जब इन कत्लखाने के मालिको को कोई गौवंश बेचने वाला ही नहीं मिलेगा, जब गोपालकों को गौवंश का सही और फायदेमंद उपयोग (बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि ) करने का टेक्नोलॉजी किफायती मूल्य पर उपलब्ध होगा तो वो इन्हे बेचेंगे क्यों? हमारा दुर्भाग्य ये है कि हमारी सरकारे मूल समस्या का इलाज ना कर के बस भावनाओ के साथ खेलना जानती है. वोट बैंक का सवाल है न. अगर आज बायोगैस, जैविक फ़र्टिलाइज़र, आदि टेक्नोलॉजी और इंस्ट्रूमेंट गौ-पालकों को मिल जाये, तो मै दावे साथ कह सकता हूँ कि ये कत्लखाने अपने-आप बंद हो जायेंगे. आज जो समस्या गौपालकों के सामने है, कल को इन स्लाटर हाउस मालिको के सामने भी वही समस्या होगी। उम्मीद करता हूँ कि सरकार जनभावनाओं से खेलने के जगह गौपालकों के लिए कुछ ठोस बंदोबस्त करने की दिशा में कदम उठायेगी…