शिंदे की बगावत और महाराष्ट्र की राजनीति
जब आप किसी के साथ छल बल का प्रयोग करते हुए अनैतिक आचरण अपनाकर बेईमानी से कोई सफलता प्राप्त करते हैं तो ऐसी सफलता बहुत अधिक दिनों तक नहीं चल पाती है। कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से महाराष्ट्र में जब शिवसेना ने सत्ता प्राप्ति की जल्दबाजी दिखाते हुए अनैतिक गठबंधन कर उद्धव ठाकरे का राजतिलक करवाया था तो उसी समय यह स्पष्ट हो गया था कि यह सरकार उथल-पुथल और राजनीतिक अस्थिरता देने वाली सरकार होगी। बात स्पष्ट है कि महाराष्ट्र के लोगों ने विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस और एनसीपी को सत्ता से दूर रखने का जनादेश दिया था। जबकि शिवसेना को भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने की अनुमति प्रदान की थी। परंतु इन तीनों दलों ने जनादेश के साथ छल करते हुए लोकतंत्र का मजाक बनाया और भाजपा से सत्ता छीन ली।
उसी का परिणाम आज हम देख रहे हैं कि शिवसेना के वरिष्ठ नेता और मंत्री एकनाथ शिंदे ने पार्टी से बड़ी बगावत करते हुए महाराष्ट्र में महाविकास आघाडी वाली उद्धव ठाकरे की सरकार को खतरे में डाल दिया है। महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में सत्तारूढ़ महाराष्ट्र सरकार के मंत्री एकनाथ शिंदे और शिवसेना के कुछ अन्य विधायक खुलकर अपनी पार्टी के विरोध में आ गए हैं।
हमें यह समझना होगा कि महाराष्ट्र में वर्तमान में जो राजनीतिक संकट दिखाई दे रहा है इसके कारण क्या हो सकते हैं? यदि इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाए तो कई बातें इस संकट के लिए जिम्मेदार ठहराई जा सकती हैं। पहली बात तो यह है कि भाजपा अभी अपने उस अपमान को भूली नहीं है जब शिवसेना ने उसे धोखा देकर महाराष्ट्र में अपने विरोधी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की थी। भाजपा शिवसेना के नेतृत्व में काम कर रही गठबंधन सरकार को गिराने की हर संभव कोशिश करती रही है। भाजपा के नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अपने पराक्रमी स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। वह पहले दिन से ही चुपचाप नहीं बैठे थे बल्कि शिवसेना के आचरण का लेने के भाव से मौन साधे बैठे थे ।
दूसरी बात यह है कि ‘हिंदूद्रोही’ शिवसेना के प्रति महाराष्ट्र की जनता में अब उतना उत्साह नहीं रहा है जितना विधानसभा चुनाव के समय भाजपा शिवसेना को सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश देते समय रहा था। उद्धव ठाकरे के द्वारा बरती गई ‘राजनीतिक अनैतिकता’ से महाराष्ट्र के मतदाता खुश नहीं हैं। मैं स्वयं अब से लगभग 2 वर्ष पहले जब मुंबई गया था तो वहां के रिक्शा चालकों तक में उद्धव ठाकरे के प्रति सम्मान में गिरावट होती मैंने स्वयं ने अनुभव की थी। लोगों का स्पष्ट कहना था कि हमने हिंदुत्व के नाम पर उद्धव को अपना समर्थन दिया था पर उन्होंने हमारी उस भावना के साथ खिलवाड़ किया है, जो हमें स्वीकार नहीं है और आने वाले चुनावों में इसका प्रतिशोध उद्धव ठाकरे की शिवसेना से अवश्य लेंगे।
महाराष्ट्र के हिंदू मतदाताओं के मानस की इस बात को बागी नेता शिंदे भली प्रकार समझ रहे हैं। उनके साथी विधायक भी यह भली प्रकार समझ रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों में उन्हें या तो टिकट नहीं दिया जाएगा और यदि टिकट दे दिया गया तो इस बार बहुत संभव है कि वह भाजपा के सामने हार जाएं। यही कारण है कि वे इस बार पहले की किसी भी प्रकार की राजनीतिक नौटंकी से अधिक मजबूती के साथ अपने गेम को खेलने का प्रयास करेंगे। इस सारे गेम में शिवसेना के आम कार्यकर्ता का समर्थन भी एकनाथ शिंदे के साथ जाना निश्चित है । शिंदे ने यह समझ लिया था कि यही सही समय है जब उद्धव ठाकरे को उनकी करनी का सही पर फल चखाया जा सकता है। उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनने की शीघ्रता थी। इसके लिए उन्होंने अपने पिता के आदर्शों और सिद्धांतों को ताक पर रख दिया। संजय राउत की भाषा इतनी खराब हो गई कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षता जैसी हिंदू द्वेषी मानसिकता और सोच को भी वैसे ही प्रकट करने लगे जैसे अन्य छद्म धर्मनिरपेक्ष नेता प्रकट करते रहे हैं।
उद्धव ठाकरे राजनीतिक व्यतताओं में व्यस्त रहे और अपनी ही पार्टी के छाते को उतना विस्तार नहीं दे पाए जिसके नीचे उनके अपने विधायक आराम से रह पाते। उन्हें यह आभास नहीं था कि जब नेता शिथिलता प्रकट करने लगता है तो समर्थकों में बेचैनी बढ़ती है, क्योंकि वह नेता की निष्क्रियता से अपने भविष्य पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता हुआ देखते हैं। माना कि उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने के बाद वहां के मुख्यमंत्रियों की पट्टिका पर अपना नाम लिखवाने में सफलता प्राप्त कर ली, परंतु उनके साथी विधायकों को तो अपनी राजनीतिक यात्रा अभी बहुत दूर तक तय करनी है। उन्हें अपना भविष्य सुरक्षित चाहिए जो अब उद्धव ठाकरे के साथ उन्हें सुरक्षित दिखाई नहीं दे रहा था।
उधर भाजपा को न केवल संसद के ऊपरी सदन अर्थात राज्यसभा में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए विपक्ष के विधायकों के मतों की आवश्यकता थी बल्कि उसे नए राष्ट्रपति के चुनाव के समय भी विपक्ष के खेमे में सेंध लगानी ही थी। ऐसे में ‘घोड़ों की चोरी’ होना कोई बड़ी बात नहीं थी। यह सही हो सकता है कि चोर चोरी करे तो उसके ऐसे कार्य को अनैतिक कहा जाए, परंतु माल के मालिक को भी अपने माल की रखवाली करनी चाहिए। दोषी चोर ही नहीं होता है बल्कि दोषी वह भी होता है जिसने अपने माल को खुले में छोड़ दिया। बात उस समय दूसरी हो जाती है जब घोड़े स्वयं ही खुल कर भागने को तैयार हों। ऐसे में चोर को कभी भी चोर नहीं माना जा सकता।
एकनाथ शिंदे की यह बगावत शिवसेना के लिए कितनी घातक हो सकती है यह तो भविष्य बताएगा , परंतु एक बात निश्चित है कि श्री शिंदे का मुंबई के कुछ उपनगरों में काफी प्रभाव है। शिंदे शिवसेना के शीर्ष नेताओं में गिने जाते रहे हैं। वह एक संघर्षशील व्यक्तित्व के स्वामी हैं। उनसे किसी भी प्रकार के छिछोरेपन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अपनी छवि के दृष्टिगत वह लिए गए निर्णय से पीछे हटेंगे, यह भी नहीं कहा जा सकता।
वह फिलहाल उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी की सरकार में शहरी मामलों के मंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं। एकनाथ शिंदे वर्ष 2004, 2009, 2014 तथा 2019 में लगातार चार बार महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में अपनी जीत दर्ज करा चुके हैं। लगातार चार बार की इस जीत से उनकी लोकप्रियता सिद्ध होती है । साथ ही इतनी देर जब कोई राजनीतिक व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व किसी विधानमंडल में कर लेता है तो उसके भीतर आत्मविश्वास के साथ-साथ महत्वाकांक्षा और राजनीतिक इच्छा भी जागृत हो जाती है। बस, यही एकनाथ शिंदे के साथ हुआ है । ऊपर से उन्हें भाजपा का समर्थन भी किसी न किसी प्रकार से प्राप्त हो गया है। परिस्थिति अनुकूल देखते ही उन्होंने अपनी बगावत को प्रकट कर दिया है। उन्होंने सही समय पर लोहे पर चोट की है। इस समय सारी स्थिति उनके अनुकूल है। ऐसे में उनका पीछे हटना आत्महत्या के समान होगा। तब उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता भी भंग हो जाएगी और कमजोरी प्रकट होगी। इसलिए उन्हें अंतिम क्षणों तक मैदान में डटे रहकर अपने आप को एक शक्तिशाली नेता के रूप में स्थापित करना चाहिए। वैसे भी पूर्व में वह महाराष्ट्र में उद्धव सरकार के विरुद्ध कई राजनीतिक नौटंकियों को होते देख चुके हैं। उन राजनीतिक नौटंकियों का क्या हश्र हुआ था ? और उन नौटंकियों के पात्रों को भी किस प्रकार उपहास का पात्र बनना पड़ा था ? यह भी श्री शिंदे भली प्रकार जानते हैं। उन्होंने राजस्थान में सचिन पायलट द्वारा अशोक गहलोत के खिलाफ की गई बगावत का परिणाम भी देखा है। हमें यह भी पता है कि 2014 में श्री शिंदे को शिवसेना विधायक दल का नेता चुना गया था। वह महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के दायित्व का भी सफलता पूर्वक निर्वाह कर चुके हैं। ऐसे में राजनीतिक परिपक्वता भी उनके पास है।
महाराष्ट्र में शिंदे ने अपनी बगावत के माध्यम से भाजपा के लिए राह आसान कर दी है। इस राजनीतिक बगावत का आगामी विधानसभा चुनाव पर निश्चित ही प्रभाव पड़ेगा। बहुत संभव है कि उस समय भाजपा और श्री शिंदे मिलकर चुनाव लड़ें । उस समय कुछ ऐसे घटनाक्रम भी हमको देखने को मिल सकते हैं जिनकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती।
डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत