पटेल बोले-शेख दिल्ली से बाहर नही जा सकता
कश्मीर को लेकर जब-जब चर्चाएं चलती हैं, बहस होती है या राजनीति में गरमाहट आती है तो समय की सुईयां पुन: 1947 की ओर घूम जाती हैं, और हम सबके अंतर्मन पर कुछ परिचित से नाम पुन: घूमने लगते हैं। इन नामों में सरदार वल्लभभाई पटेल, महाराजा हरिसिंह, पंडित जवाहरलाल नेहरू, शेख अब्दुल्ला, लियाकत अली, मौ. अली जिन्नाह, लार्ड माउंटबेटन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारतवर्ष में कश्मीर के संबंध में ही नही, देशी रियासतों को भारत के साथ विलय करने के मुद्दे पर सरदार पटेल का नाम सर्वाधिक सम्मान के साथ लिया जाता है।
निस्संदेह सरदार पटेल ने अपने दृढ़ निर्णयों और स्पष्टवादिता से एक नही अनेक बार सिद्घ किया कि वह इस सम्मान के पात्र भी हैं। उनको पं. नेहरू ने गृह मंत्रालय के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा राज्यों संबंधी विषयों को भी दिया। इन सारे दायित्वों को सरदार पटेल ने जिस कत्र्तव्यनिष्ठा से निर्वाह किया उससे उन्हें ‘भारत का बिस्मार्क’ होने का सम्मान पश्चिमी प्रेस ने दिया।
1947 ई. में लार्ड माउंटबेटन को हमने अपना ‘बादशाह’ बनाकर रख लिया। यह हमारे तत्कालीन नेतृत्व की भूल थी क्योंकि माउंटबेटन के चर्चिल और टोरी पार्टी से बड़े घनिष्ठ संबंध थे। सभी जानते हैं कि चर्चिल एक कट्टर भारत विरोधी नेता था और वह हर स्थिति में भारत को विनष्ट होता देखना चाहता था। इसलिए माउंटबेटन जब भी उससे (स्वतंत्रता के पश्चात भी) भारत और कश्मीर के विषय में परामर्श लिया करता था, तो चर्चिल माउंटबेटन को ऐसे परामर्श ही दिया करता था जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में और आग लगे, और माउंटबेटन उस परामर्श के अनुसार अपनी ‘पत्नी के मित्र पं. नेहरू’ को मोडऩे या तोडऩे का प्रयास करता था। इस प्रकार कश्मीर के संबंध में दिखने वाले मोहरों के स्थान पर पीछे से एकअदृश्य शक्ति (चर्चिल) डोर हिला रही थी, और हम यहां कठपुतलियों को नाचते देख रहे थे।
नेहरू नाम की कठपुतली ने उस अदृश्य शक्ति की परामर्श पर निर्णय लिया और सरदार पटेल से राज्यों संबंधी मामलों में से कश्मीर को अपने पास रख लिया। सरदार पटेल सारे घटनाक्रम पर बड़ी सावधानी से दृष्टि गढ़ाये बैठे थे, उन्होंने कश्मीर को नेहरू को सौंप दिया, परंतु इसके उपरांत भी सावधान और जागरूक बने रहे। क्योंकि वह जानते थे किकश्मीर के विषय में महाराजा हरिसिंह, पं. नेहरू, लियाकत अली, मौ. अली जिन्नाह सभी की मानसिकता दूषित थी। महाराजा हरिसिंह ने 26 सितंबर 1947 को माउंटबेटन को एक पत्र लिखा था और उसमें उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि कश्मीर की सीमाएं सोवियत रूस व चीन से भी मिलती हैं और भारत तथा पाकिस्तान से भी अत: उसे स्वतंत्र राज्य माना जाए। संभवत: यह दोनों देशों (भारत तथा पाकिस्तान) तथा अपने राज्य के हित में रहेगा,-यदि उसे स्वतंत्र रहने दिया। इस प्रकार महाराजा ‘अपना काम’ निकालने की प्रतीक्षा में थे।
सरदार पटेल इस तथ्य को जानते थे, परंतु जब महाराजा भारत के साथ आने पर सहमत हो गये तो सरदार पटेल भी ईमानदारी से और एक रणनीति के तहत महाराजा के साथ हो लिये। वैसे भी कश्मीर के विषय में उस समय महाराजा ही सबसे अधिक विश्वसनीय और मजबूत कड़ी हो सकते थे।
सरदार पटेल शेख अब्दुल्ला को कतई मुंह नही लगाते थे, क्योंकि वह ऐसा व्यक्ति था जो नीचे से ऊपर तक भारत के प्रति विष से भरा हुआ था। इसलिए शेख की हर गतिविधि पर पटेल बड़ी पैनी दृष्टि रखते थे। शेख भी सरदार पटेल के सामने घबराता था और कितने ही अवसरों पर पटेल के सामने उसकी बोलती बंद हो गयी थी। ‘सरदार पटेल : कश्मीर एवं हैदराबाद’ के लेखक द्वय पी.एन. चोपड़ा एवं प्रभा चोपड़ा लिखते हैं कि सरदार पटेल की चेतावनी थोड़े शब्दों में ही होती थी, किंतु वे अपनी बात समझाने में काफी प्रभावकारी होते थे। कश्मीर पर वाद विवाद के समय शेख अब्दुल्ला क्रोधित होकर एक बार संसद से बाहर चले गये। सरदार पटेल ने अपनी सीट से बैठे-बैठे ही उधर देखा। उन्होंने सदन के एक वयोवृद्घ व्यक्ति को बुलाकर कहा-‘(शेख को बता दो कि) शेख संसद से तो बाहर जा सकते हैं, किंतु दिल्ली से बाहर नही जा सकते।’ इस चेतावनी ने शेख को भीतर तक हिला दिया था, और वह तुरंत अपनी सीट पर आकर बैठ गये।
सचमुच सरदार पटेल जैसे नेता किसी देश को सौभाग्य से ही मिलते हैं। आज कश्मीर के संदर्भ में मुफ्ती मौहम्मद को इसी शैली में समझाने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने देश की संसद के भीतर जिन स्पष्ट शब्दों में कहा कि हम देश की जनता के आक्रोश को समझते हैं और इस विषय में हम देश के साथ हैं। हम मानते हैं कि पी.एम. के इन शब्दों में बनावट नही थी और इन शब्दों का प्रभाव भी यह हुआ कि मुफ्ती मौहम्मद सईद ‘अपनी सीट पर बैठता नजर आया।’ यद्यपि श्री मोदी ने मुफ्ती को कश्मीर सौंपकर जो गलती की उससे उन्हें कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा और देश को पर्याप्त क्षति भी उठानी पड़ी है।
सरदार पटेल का ही एक अन्य प्रकरण वर्तमान नेतृत्व का मार्गदर्शन कर सकता है। कश्मीर में सेना भेजने के निर्णय पर बक्शी गुलाम मौहम्मद ने बड़ा रोचक वर्णन किया है। दिल्ली में इस संबंध में होने वाली बैठक में बक्शी गुलाम मौहम्मद के अतिरिक्त लॉर्ड माउंटबेटन, सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमाण्डर इन चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमाण्डर उपस्थित थे। बैठक की अध्यक्षता लार्ड माउंटबेटन कर रहे थे। कश्मीर में सेना भेजने और उसे भारत के साथ रखने पर ही विचार होना था। जनरल बुकर और अन्य सभी लोग अपनी बातों से बैठक में निराशा के परिवेश का निर्माण कर रहे थे। उनकी बातों से लगता था कि जैसे वे कश्मीर की जीती हुई बाजी को हार रहे हैं। बुकर ने कहा कि उनके पास संसाधन इतने थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता दी जानी संभव नही है, लॉर्ड माउंटबेटन ने निरूत्साहपूर्ण झिझक दिखायी। पंडित जी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की। सरदार पटेल सबको मौन रहकर सुनते रहे, किंतु एक शब्द भी नही बोले। वह शांत और गंभीर प्रकृति के थे उनकी चुप्पी पराजय और असहाय स्थिति जो बैठक में परिलक्षित हो रही थी, के बिल्कुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया।
सरदार पटेल ने अपना विचार व्यक्त किया-‘‘जनरल हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करनी होगी। आगे जो होगा देखा जाएगा। संसाधन हैं या नही, आपको यह तुरंत करना चाहिए। सरकार आपकी हर प्रकार की सहायता करेगी। यह अवश्य होना है और होना ही चाहिए। कैसे और किसी भी प्रकार करो, किंतु इसे करो।’’
जनरल के चेहरे पर उत्तेजना के भाव दिखाई दिये, गुलाम बक्शी कहते हैं किमुझमें आशा की कुछ किरण जगी। जनरल की इच्छा आशंका जताने की रही होगी। किंतु सरदार चुपचाप उठे और बोले-‘‘हवाई जहाज से सामान पहुंचाने की तैयारी सुबह तक कर ली जाएगी।’’ इस प्रकार कश्मीर की रक्षा सरदार पटेल के त्वरित निर्णय, दृढ़ इच्छा शक्ति और विषम से विषम परिस्थिति में भी निर्णय के क्रियान्वयन की दृढ़ इच्छा का ही परिणाम थी।
यह सच है कि नेता अपने आभामंडल से राष्ट्र के आभामंडल का निर्माण करता है। इस देश की पुरानी परंपरा रही है कि यहां मुगलों की तोपों का सामना हमारे महान पूर्वजों ने साहस के साथ अपनी छाती तानकर किया है, गुरिल्ला युद्घ अपनाकर मुगलों को छकाने वाले महाराणा प्रताप, शिवाजी, दुर्गादास राठौड, छत्रसाल आज भी हमारे आदर्श हैं। यदि हम अपनी स्वतंत्रता के लिए सैकड़ों वर्ष का संघर्ष बिना निराश हुए लड़ सकते हैं तो कश्मीर के लिए आज दीर्घकालीन युद्घ क्यों नही लड़ सकते? पर यह बात हमें स्मरण रखनी होगी (जो कि सरदार पटेल के ही शब्द हैं) कि कश्मीर के लिए दो तीन युद्घ तो करने ही होंगे।
हम दोषी को दोषी कहना आरंभ कर दें, राष्ट्रद्रोही को राष्ट्रद्रोही कहना आरंभ कर दें, राष्ट्रभक्तों को राष्ट्रभक्त कहना आरंभ कर दें, कश्मीर की रक्षा अपने आप हो जाएगी। अपनी विरासत को राष्ट्र भूले नही, अपितु यह निश्चित कर ले कि उसे अपना नेता सरदार पटेल को बनाना है या नेहरू को? अब छद्मवाद के लिए कोई स्थान नही होना चाहिए। हमारे नेता सरदार पटेल हैं उनकी सबसे ऊंची प्रतिमा मोदी ने यदि बनवाने का निर्णय लिया है तो आवश्यक है कि देश के नेतृत्व की नीतियों में अब पटेलवाद दीखना भी चाहिए। आज के परिवेश में देश के नेतृत्व को पटेल जैसा कड़ा संदेश मुफ्ती मौहम्मद सईद को देने की आवश्यकता है।