अपनी जड़ों में लौटना होगा
लोकेन्द्र सिंह
वे लेन्टाइन डे (वीक) के रोज-डे और हग-डे से लेकर किस-डे तक की जानकारी रखने वाले आज के कूल डूड और हॉट बेबीज को भारतीय त्योहारों की न्यूनतम जानकारी है। यदि आप उनसे पूछ लें कि भारतीय नववर्ष कब है तो सबके सब ‘आलिया भट्ट’ नजर आएंगे। अभारतीय संस्कृति और बाजारवाद के ‘डे’ (त्योहार) मनाने में आज की पीढ़ी इतनी व्यस्त है कि अपनी संस्कृति के पन्ने पलटने की फुरसत उन्हें नहीं है। 31 दिसम्बर की रात से ‘हुड़दंग’ के साथ ग्रेगेरियन कैलेण्डर का स्वागत करना ही उनके लिए नववर्ष का उत्सव है। बहरहाल, आज की पीढ़ी को अपने नववर्ष का पता भी कैसे होगा? लम्बे समय से भारतीय मानस सुप्त अवस्था में है। उसे भान ही नहीं है कि उसके पूर्वजों ने भी कैलेण्डर बनाया था, वह भी अन्य की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक। अंग्रेजों की लिखीं इतिहास की किताबों या इन किताबों को पढ़कर तैयार हुए ‘स्वतंत्र इतिहासकारों’ ने हमेशा यही बताया कि विज्ञान का सूरज तो पश्चिम में ही उगा था, भारत के लोग तो सदैव गाय चराने में ही व्यस्त रहे। भारत लम्बे समय तक दासता में रहा है। उसका कुप्रभाव भारतीय मानस पर अब तक है। बार-बार चेताने पर भी वह सजग नहीं हो रहा है। यदि कोई व्यक्ति भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ पलटकर आज की पीढ़ी को अपने अतीत से प्रेरणा लेने की बात करता है तो उस व्यक्ति को ‘स्वतंत्र इतिहासकार’ ढकोसलावादी और भ्रम फैलाने वाला करार दे देते हैं। मुंबई में आयोजित राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में विद्वान कैप्टन आनंद जे. बोडास और अमेय जाधव ने अपने शोधपत्र में तथ्यों के आधार पर बताया कि प्राचीन भारत का विज्ञान बहुत उन्नत था। उस समय की विमान तकनीक के आसपास भी आज की विमान तकनीक पहुंच नहीं सकी है। लेकिन, उनके शोध को वामपंथियों और दूसरी विचारधाराओं के लोगों ने लेख पर लेख लिखकर और भाषण दे-देकर कूड़ा साबित करने का प्रयास किया। बोडास और जाधव के शोध को आगे बढ़ाने की बात किसी ने नहीं की, जिसने की, उसे इन्होंने अवैज्ञानिक करार दे दिया। इसी तरह जब भी भारतीय कैलेण्डर की बात निकलती है, अंग्रेजियत से प्रभावित और भारतीय संस्कृति की चमक से पीडि़त बुद्धिजीवियों की बिरादरी उत्तेजित हो जाती है। वे इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते की भारत का अपना शानदार इतिहास रहा है। वे भारतीय नववर्ष और उसकी वैज्ञानिक गणना पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर देते हैं? भारतीय नववर्ष मनाने का आग्रह करने वालों की हँसी उड़ाने का प्रयास करते हैं।
दरअसल, भारतीय नववर्ष के बहाने यह बात इसलिए निकली है क्योंकि भारत को दुनिया का नेतृत्व करना है तो उसकी ‘कूल डूड और हॉट बेबीज’ पीढ़ी को स्वामी विवेकानन्द का युवा बनना पड़ेगा। अपनी संस्कृति और अपनी परम्पराओं को आगे बढ़ाना होगा। अपनी जड़ों से जुडऩा पड़ेगा। जब भारतीय युवा की जड़ें ही मजबूत नहीं होंगी तो वह क्या खाक दुनिया में अपनी धाक जमाएगा। जबकि सब दूर असभ्यताओं का संघर्ष जारी है, दुनिया के हर कोने में अशांति है। विचारधाराएं एक-दूसरे का रक्त बहा रही हैं। धर्म और पंथ अपने स्वभाव को छोड़कर विकृत होते जा रहे हैं। मानवता जार-जार हो रही है। इन परिस्थितियों में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसे विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। सम्पूर्ण सृष्टि का कल्याण चाहने वाली भारतीय संस्कृति ही दुनिया को धर्म और विचारधाराओं के खूनी संघर्ष से बचा सकती है। दुनिया का नेतृत्व करने में भारत सक्षम भी है। उसके पास विपुल मात्रा में युवा शक्ति है। इस मामले में भारत दुनिया का सबसे सशक्त और समृद्ध देश है। उसके पास युवा धन सर्वाधिक है। बहरहाल, युवा धन तो बहुत है लेकिन, सवाल है कि वह खरा है या खोटा? खोटा धन तो किसी काम का नहीं। खोटे सिक्के का कोई मूल्य नहीं होता। युवा शब्द सुनते ही दो तस्वीरें मस्तिष्क में उभरती हैं। एक, जिस युवा की कल्पना स्वामी विवेकानन्द ने की थी। जिसकी मदद से स्वामीजी भारत को परम वैभव तक ले जाने की बात कहते थे। युवाओं ने अपनी प्रखर ऊर्जा से स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों की चूलें हिला दी थीं। उनके मजबूत कंधों पर ही आजादी की डोली भारत आई। जेपी आंदोलन का ज्वार भी युवाओं के जोश से पूरे देश पर चढ़ा था। हाल के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलनों पर नजर डालें तो उनमें भी युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन की ताकत युवा ही थे। स्वामी विवेकानन्द उन सौ युवाओं की खोज में थे, जो अपनी संस्कृति से परिचित हों, अपनी परम्पराओं को समझते हों, जिनमें राष्ट्रबोध हो। अपने परिवेश, अपने समाज और अपने देश को समझने वाले युवा सदैव एक ताकत हैं। जिनमें राष्ट्रबोध नहीं, वे युवा राष्ट्र की ताकत नहीं बन सकते। दिग्भ्रमित युवा किसी काम के नहीं होते। युवाओं की दूसरी तस्वीर देखें तो मन निराश होता है। आज की युवा पीढ़ी खोटे सिक्के की तरह नजर आती है। हाल की अनेक घटनाओं और अपने व्यवहार के जरिए वर्तमान युवा पीढ़ी ने स्वयं को गैर-जिम्मेदार साबित करने की कोशिश की है। भौतिकवाद और उपभोगवाद की गिरफ्त में युवा फंस-सा गया है। ‘खाओ-पिओ और मौज करो’ उसके जीवन का फण्डा हो गया है। पब जाना, नशा करना, हुड़दंग करना, युवाओं को गैर-जिम्मेदार ही तो साबित कर रहा है। ‘रोमांसवादी’ यह पीढ़ी सार्वजनिक स्थल पर जिस तरह का आचरण करती दिखती है, उससे कोई भी लजा जाए। इन ‘कूल डूड’ को अपने से उम्र में बड़े लोगों से संवाद करने का शऊर तक नहीं है। अपनी जड़ों से कट रहे ये युवा पश्चिम से आई हवा में बिना पंख तौले उड़ रहे हैं। भारतीय मूल्य, संस्कार, परंपराएं और उत्तरदायित्व उसके लिए महत्वहीन हो गए हैं। अधिकतर युवा अपने परिवार के प्रति ही जिम्मेदारियों का निर्वाहन ठीक से नहीं करते दिख रहे हैं। फिर, समाज और देश के लिए वे कुछ करेंगे, इसकी उम्मीद करना बेमानी है। इस तरह की युवा पीढ़ी से क्या कोई उम्मीद की जा सकती है? इस बात से कोई इनकार नहीं कि ये तकनीक के बड़े जानकार हैं, अधिक पढ़े-लिखे हैं, ज्यादा स्मार्ट हैं, दुनियाभर में भारतीय युवाओं की मांग भी है। लेकिन, इस बात से भी कोई इनकार नहीं करेगा कि जिस युवा में राष्ट्र और समाज के प्रति अपने दायित्व का बोध नहीं होगा, वह युवा देश की ताकत नहीं हो सकते। उनकी योग्यता और कौशल का लाभ देश को नहीं मिलेगा। जब युवा देश की ताकत नहीं बन सकता तो उनका देश दुनिया का नेता कैसे बन सकता है?
किसी भी समाज और देश की रीढ़ होती है युवा शक्ति। उस देश की पहचान और विश्वसनीयता बनाने में युवाओं की अहम भूमिका होती है। इसलिए अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर हो रहे युवाओं को अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी ध्यान करना होगा। अपनी मर्यादा को समझना होगा। अपनी सभ्यता और संस्कृति का भान उन्हें होना ही चाहिए। जोश के साथ होश भी उन्हें रखना होगा। जवानी अल्हड़ तो हो लेकिन उपद्रवी नहीं। युवा अपनी मौज में तो बहे लेकिन किनारे न तोड़े। इसलिए युवा अपने नायक स्वामी विवेकानन्द को याद करें, उनके विचारों को आत्मसात करें। विपरीत परिस्थितियों के बीच जिस तरह स्वामीजी ने भारतीय संस्कृति का डंका दुनिया में बजाया था, युवाओं को उस अद्वितीय घटना को बार-बार याद करना चाहिए। स्वामीजी दुनिया को इसलिए प्रभावित कर सके क्योंकि उन्होंने भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर रखा था। उन्हें भारतीय होने पर गर्व था। उनकी जड़ें भारतीय संस्कृति में थीं। वे अपनी परम्पराओं को जीते थे। जब हमारा नायक ‘सम्पूर्ण भारतीय’ था तो फिर हम क्यों दूसरों के पिछलग्गू बने हुए हैं। अपने आदर्श का अनुकरण क्यों नहीं कर सकते? जब तक हम दम भरकर ‘भारतमाता की’ जयकारा नहीं लगाएंगे तो प्रतियुत्तर में ‘जय’ का सामूहिक घोष नहीं होगा। बात बस इतनी-सी है कि दुनिया की तमाम संस्कृतियों और त्योहारों के बीच समन्वय बनाते हुए अपनी संस्कृति और त्योहारों को भी याद रखिए। ध्यान रखें कि जिन लोगों ने अपना इतिहास भुलाया है, उनका वर्तमान कुछ भी नहीं है, वे खत्म हो गए हैं। उज्ज्वल भविष्य उन्हीं का होता है, जिन्हें अपना इतिहास मालूम होता है और अपने इतिहास से सबक लेते हुए आगे बढ़ते हैं। एक जनवरी से अधिक उल्लास के साथ अपना नववर्ष मनाइये। अपने नववर्ष के संबंध में शोध कीजिए। देखिए कि हमारे पूर्वजों की गणना का स्तर क्या था? अधिक वैज्ञानिक कौन था, हमारे पूर्वज या पश्चिम के विद्वान? अपने ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन करने से निश्चित ही नये रास्ते मिलेंगे और भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि ये रास्ते भारत को शिखर की ओर ले जाने वाले साबित होंगे।