श्री लंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेन की चीन−यात्रा ने नरेंद्र मोदी के लिए एक नया सिरदर्द पैदा कर दिया है। चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग से मिलकर श्रीसेन इतने सम्मोहित हो गए हैं कि उन्होंने सब चीनी परियोजनाएं दुबारा शुरु करने की घोषणा कर दी हैं, जिन्हें बंद करने की घोषणा उनकी सरकार ने सत्तारुढ़ होते ही कर दी थी। पूर्व राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने चीन के साथ संबंध बढ़ाने की अपूर्व पेशकश की थी। उन्होंने कोलंबो पोर्ट अथॉरिटी के निर्माण का जिम्मा चीन को सौंप दिया था और चीन उस पर लगभग 7−8 हजार करोड़ रु. खर्च करने वाला था।
इसी प्रकार राजपक्ष ने अपने गृह−नगर हंबनतोता में भी चीन से अनेक निर्माण कार्य शुरु करवा दिए थे। चीनी पनडुब्बियां भी श्रीलंका के तटों पर आकर ठहरने लगी थीं। राजपक्ष ने चीन से व्यापार और अन्य प्रकार का आर्थिक सहयोग भी काफी बढ़ा लिया था। इसका मूल कारण यह था कि भारत सरकार अपने तमिल नेताओं के दबाव के कारण राजपक्ष का अंधाधुंध समर्थन नहीं कर पाती थी। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत−श्रीलंका के पक्ष में मतदान नहीं कर पाता था।
चीन के सामने इस तरह की कोई दुविधा नहीं थी लेकिन श्रीसेन भारतपरस्त नेता माने जाते हैं,इसीलिए उन्होंने जब विदेशी पनडुब्बियों के आने पर रोक लगाई और कोलंबो का चीन−निर्माण कार्य रोका तो भारत में कुछ राहत महसूस की गई थी। मोदी की कोलंबो−यात्रा पर भी यह संदर्भ छाया रहा। लेकिन अब मैत्रीपाल ने सारे पुराने चीनी कार्यक्रम दुबारा शुरु तो कर ही दिए है,उन्होंने उसे चीन की उस सामुद्रिक रेशम−पथ की महत्वाकांक्षी योजना का अंग भी बना दिया है,जो 21वीं सदी का भविष्य तय करेगी। इस योजना का सबसे ज्यादा सामरिक असर दक्षिण एशियाई क्षेत्र पर पड़ेगा। इसीलिए चीनी प्रवक्ता ने चीन−श्रीलंका द्विपक्षीय संबंधों को भारत−चीन−श्रीलंका संबंधों के त्रिपक्षीय ढांचे में रखने की कोशिश की है।
भारत सरकार इस चीनी पैंतरे का न विरोध कर सकती है और न ही समर्थन! पिछले दिनों हुई भारत−चीन सीमांत−वार्ता के भी कोई ठोस निष्कर्ष सामने नहीं आ सके हैं। ऐसी स्थित में जब मोदी मई में चीन जाएंगे तो उन्हें काफी दूरंदेशी और धीरज से काम लेना होगा।