कश्मीर में आतंकवाद, अध्याय 14 (ख) 1971 का भारत-पाक युद्ध और शिमला समझौता
1971 का भारत-पाक युद्ध और शिमला समझौता
जब 1971 में भारत-पाक का तीसरा युद्ध हुआ तो उसमें भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कराने में सफलता प्राप्त की। इस युद्ध के पश्चात बांग्लादेश नाम का एक नया देश विश्व मानचित्र पर स्थापित हुआ। इसके पश्चात 1972 में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौता हुआ। जिसमें पाकिस्तान कूटनीतिक दृष्टिकोण से इस बात को मनवाने में सफल हुआ कि कश्मीर समस्या को दोनों पक्ष आपस में बातचीत से सुलझाएंगे।
इसका अर्थ था कि पाकिस्तान भारत को इस बात पर सहमत करने में सफल हो गया कि कश्मीर दोनों के बीच में एक समस्या है और उसे दोनों बातचीत से सुलझाने का अंतहीन क्रम जारी रखेंगे। क्या ही अच्छा होता कि पाकिस्तान के इस प्रस्ताव पर भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी अड़ जातीं और उसके 93000 सैनिकों को उस समय मुक्त करतीं जब उससे यह लिखवा लेतीं कि अब दोनों देशों के बीच कश्मीर को लेकर कोई विवाद नहीं है। उस समय पाकिस्तान अपने 93000 सैनिकों को मुक्त कराने को लेकर दबाव में आ सकता था ।परंतु भारतीय नेतृत्व ने अपनी उदारता का प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान को दबाव में लेना उचित नहीं माना।
1971 के युद्ध में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके बांग्लादेश का जन्म हो जाना 1971 के युद्ध की बड़ी उपलब्धि नहीं थी , जैसा कि कांग्रेस की ओर से प्रचारित किया गया है। इसकी बड़ी उपलब्धि जब होती जब 93000 सैनिकों की मुक्ति के बदले भारत की नेता पाकिस्तान से यह लिखवा लेतीं कि अब कश्मीर को लेकर दोनों देशों के बीच किसी प्रकार का विवाद नहीं है और ना ही भविष्य में होगा।
इंदिरा गांधी की इस भूल ने उनके पिता द्वारा कश्मीर में बोए गए काँटों और झाड़ों को फिर से उगने का अवसर प्रदान किया। इतना ही नहीं, अलगाववाद की लपटें हमारे पंजाब में खालिस्तान के आंदोलन के रूप में भी फैलने लगीं। पंजाब में खालिस्तान के आंदोलन को खड़ा करने में पाकिस्तान का हाथ था। ऐसा करके वह जहां 1971 में हुई अपनी करारी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहता था, वहीं वह यह भी दिखाना चाहता था कि भारत में केवल मुसलमान ही अलगाववादी नहीं होते हैं बल्कि सिक्ख भी अलगाववादी हैं, जिन्हें भारत के हिंदू अपना भाई मानते हैं।
इंदिरा गांधी द्वारा शेख अब्दुल्लाह की मुक्ति
इंदिरा गांधी ने दूसरी भूल उस समय की जब 1974 में उन्होंने शेख अब्दुल्लाह जैसे सबसे बड़े अलगाववादी नेता को जेल से मुक्त किया और उसे राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र भी दे दिया। 24 फरवरी 1975 को कश्मीर को लेकर इंदिरा गांधी और शेख अब्दुल्ला के बीच एक समझौता हुआ। उस समझौते पर इंदिरा गांधी की ओर से जी0 पार्थसारथी और शेख अब्दुल्लाह की ओर से मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग ने हस्ताक्षर किए । तब इंदिरा गांधी ने कहा था कि ‘समय पीछे नहीं जा सकता।’
इंदिरा गांधी ने ऐसा इसलिए कहा था कि उनके द्वारा जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ किए गए समझौते के पश्चात भारत के समाचार पत्रों में कई विदेश नीति के जानकारों के माध्यम से उनकी बड़ी कटु आलोचना हुई थी। उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उन्होंने ऐसा कहकर यह संकेत दिया था कि जम्मू कश्मीर में अब किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं है। कहने का अभिप्राय है कि जिस जम्मू कश्मीर के संबंध में शिमला समझौता करके उसकी अभिन्नता पर उन्होंने स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगाया था, उसके विषय में ऐसा कहकर उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
शेख अब्दुल्लाह और इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी
8 सितंबर 1982 को जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे भारत विरोधी अलगाववादी शेख अब्दुल्लाह का देहांत हो गया। तब उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को उनका उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया। इसके लगभग 2 वर्ष पश्चात ही श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। तब तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया। इस प्रकार जम्मू कश्मीर और नई दिल्ली दोनों में नया नेतृत्व उभरकर सामने आया। यह अलग बात है कि परिस्थितियों में कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं दिया। राजीव गांधी राजनीति में नौसिखिया थे। उन्होंने जम्मू कश्मीर को लेकर ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया , जिसे क्रांतिकारी कहा जा सके । वह परंपरागत ढंग से कश्मीर समस्या को ढोते रहे ।
यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि कश्मीर समस्या को समस्या बनाना के काम नए प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मां और उनके नाना के द्वारा किया गया था। यह राजीव गांधी के वश की बात नहीं थी कि वह उन दोनों की नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर देते। उनका नौसिखियापन भी यह स्पष्ट करता है कि उन्हें कश्मीर समस्या को समझने के लिए भी बहुत कुछ समझने की आवश्यकता थी। जिसे वह समझने को तैयार नहीं थे , क्योंकि उनकी सोच यह थी कि उनके पूर्वजों के द्वारा कश्मीर के संबंध में जो किया गया है, वही ठीक है। जब लोग लकीर के फकीर होकर काम करते हैं तो वह समस्याओं को बोते भी हैं और ढोते भी हैं । बस, यही राजीव गांधी के साथ हो रहा था।
उधर नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला अपने पिता की नीतियों पर यथावत चलने के लिए संकल्पित थे । वह भी यही मानते थे कि उनके पूर्वज शेख अब्दुल्ला के द्वारा कश्मीर समस्या को बढ़ाने की दिशा में जो कुछ भी किया गया है ,वही ठीक है। ऐसी परिस्थितियों में नए इस नेतृत्व ने कश्मीर समस्या को जटिल बनाने की दिशा में तो काम किया और उसे सुलझाने की दिशा में कुछ नहीं कर पाए।
फारूक अब्दुल्लाह की सोच
1987 में जब जम्मू कश्मीर में विधानसभा के नए चुनाव हुए तो नेशनल कांफ्रेंस फिर से सरकार बनाने में सफल रही। इस बार उसके शासनकाल में जम्मू कश्मीर में भारत विरोधी शक्तियों ने मजबूती से उठना आरंभ किया। अपने पिता की नीतियों का अनुसरण करते हुए फारूक अब्दुल्लाह ने ऐसी शक्तियों का दमन करना उचित नहीं माना। इसके विपरीत वह उनको उकसाने की कार्यवाही करते रहे। वह जानते थे कि कश्मीर जितनी सुलगेगी उतनी ही नई दिल्ली झुकेगी और नई दिल्ली के उस प्रकार झुकने का उन्हें राजनीतिक लाभ होगा । फारूक अब्दुल्लाह ने अपने पिता को देखा था कि कश्मीर में आग लगाकर वे किस प्रकार नई दिल्ली से सौदा करने की रणनीति पर काम करते थे? और जिसमें वह कई बार सफल भी हुए थे।
देश के हिंदू जनमानस ने चाहे कश्मीर का पिछला इतिहास पढा हो या न पढ़ा हो, परंतु फारुख अब्दुल्ला परिवार ने कश्मीर के इतिहास को भली प्रकार पढा है। इस परिवार के सभी लोग भली प्रकार जानते हैं कि किस प्रकार यहां से हिंदू राज्य को समाप्त कर मुस्लिम हुकूमत स्थापित की गई थी और उसे चिरंजीवी बनाए रखने के लिए किस प्रकार और कितनी बार यहां से हिंदुओं को या तो पलायन करने के लिए बाध्य किया गया या फिर मारकाट हिंसा से उन्हें समाप्त किया गया या फिर किस प्रकार उनको मुसलमान बनाया गया ?
बड़ी कठिनता से जिस मैदान को साफ किया गया था, (अर्थात कश्मीर को हिंदू मुक्त किया गया था ) उसमें फिर से हिंदुओं का बसना या विकसित होना उन्हें अपने और अपने समाज के लिए खतरनाक दिखाई देता रहा है। इसलिए उनकी सोच रही है कि यहां पर हिंदू स्थापित हो सके।
फारूक अब्दुल्लाह ने इतिहास के गंभीर विद्यार्थी होने का परिचय दिया और अपने पिता की वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उनकी इसी सोच के चलते कश्मीर आतंकवाद के दौर में प्रविष्ट हो गया। ‘द कश्मीर फाइल्स’ में जो कुछ भी दिखाया गया है, उस सबको कराने में फारूक अब्दुल्लाह की इसी सोच का विशेष योगदान रहा है।
मुफ्ती मोहम्मद सईद बने देश के गृहमंत्री
1989 में जब केंद्र में वीपी सिंह की सरकार आई तो उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की सारी सीमाएं लांघते हुए देश के गृह मंत्रालय में मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे व्यक्ति को बैठा दिया । उसके गृहमंत्री बनते ही कश्मीर में आतंकवादियों की मौज आ गई। सुनियोजित ढंग से उस समय आतंकवादियों ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया का अपहरण कर लिया। उस समय की केंद्र सरकार के लिए यह बहुत बड़ी विपत्ति आ गई थी। विपत्ति इसलिए कि उसके पास इस विपत्ति से निपटने का कोई राष्ट्रवादी उत्तम चिंतन नहीं था। उस सरकार के लिए अपने गृहमंत्री की बेटी को बचाना प्राथमिकता हो गई थी । आतंकवादियों ने रूबिया का अपहरण भी इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर किया था कि यदि वह रूबिया को अपहृत करते हैं तो उसका उन्हें मनोवांछित लाभ प्राप्त होगा।
इस अपहरण की जिम्मेदारी उस समय जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने ली थी । 8 दिसंबर 1989 को किए गए इस अपहरण के पश्चात आतंकवादियों ने रूबिया को लौटाने के लिए एक शर्त लगायी कि रुबिया के बदले में उनके पांच आतंकवादी साथियों को रिहा किया जाए। उस समय समाचार पत्रों में इस अपहरण कांड पर बहुत कुछ लिखा गया था। कई जानकारों ने इस बात को सोची समझी साजिश का एक हिस्सा माना था कि यह सब कुछ पांच आतंकवादियों को छुड़वाने के लिए ही किया गया था। यह बहुत ही दुखद तथ्य है कि केंद्र की वी0 पी0 सिंह सरकार को तब आतंकवादियों के सामने झुकना पड़ा था । वास्तव में यह बहुत ही लज्जास्पद स्थिति थी जब संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र की एक चुनी हुई सरकार एक आतंकवादी संगठन के सामने घुटनों के बल चलने को बाध्य हो गई थी। इससे आतंकवादियों का मनोबल बहुत अधिक बढ़ गया था।
परिस्थितियां और भी अधिक विकट हो गईं
इसके साथ ही जम्मू कश्मीर के और विशेष रूप से घाटी के हिंदुओं का मनोबल उतना ही टूट गया था। उन्हें लगा था कि जब देश की सरकार भी इन आतंकवादियों के सामने झुक सकती है तो इनसे लड़ने से उनकी क्या स्थिति हो सकती है ? यही कारण रहा कि 1990 के आरंभ से ही कश्मीर घाटी की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई। 5 जुलाई को सरकार को यहां पर ‘अफस्पा’ लगाकर कानून व्यवस्था को सही करने का दायित्व सेना को देना पड़ा।
इतना होने के उपरांत भी आतंकवादी अपनी गतिविधियों से बाज नहीं आ रहे थे । उन्होंने कश्मीर के हिंदुओं को सुनियोजित ढंग से वहां से भागने के लिए विवश करना आरंभ किया। तब 1990 के अंत होते-होते वहां से लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितों को अपना घर-बार छोड़कर भागने के लिए विवश होना पड़ा। इस समय हिंदुओं पर रोंगटे खड़े करने वाले अत्याचार हुए। जिन्हें लेखनी लिखने में भी काँप उठती है। इस समय कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए कुकुरमुत्तों की भांति कश्मीर में कई मुस्लिम संगठन सक्रियता के साथ कार्य कर रहे थे। उन सबका एक ही उद्देश्य था कि कश्मीर को हिंदू मुक्त कर ‘मुकम्मल आजादी’ प्राप्त की जाए।
कश्मीर घाटी से हिंदुओं के सामूहिक पलायन के पश्चात कश्मीर के आतंकवादी संगठनों की बांछें खिल गईं। उन्हें लगा कि अब अपने लक्ष्य की प्राप्ति से वह बहुत अधिक दूर नहीं हैं। नया पाकिस्तान बनाने के लिए उन्हें उचित परिस्थितियां मिल गई थीं। उस समय केंद्र में कॉन्ग्रेस की सरकार आ चुकी थी। जिसका नेतृत्व पी0वी0 नरसिम्हाराव कर रहे थे। उन्होंने कश्मीरी आतंकवादियों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए गांधी और नेहरू की पुरानी नीतियों पर ही काम करना उचित समझा। उनके बारे में कहा जाता है कि वह कश्मीर समस्या के बारे में लगभग यह मानसिकता बना चुके थे कि यह उनके समय में निपट नहीं सकती। इसलिए इसके प्रति तटस्थ या उदासीन रहना ही उचित है।
इससे आतंकवादियों को लगा कि यदि निरंतर हिंदुस्तान की सरकार की नाक में दम किये रखा गया तो एक दिन वह वैसे ही घुटने टेक देगी जैसे 1947 में जिन्नाह के सामने तत्कालीन कांग्रेसी नेतृत्व ने घुटने टेक दिए थे और जिन्नाह को थाली में सजाकर पाकिस्तान दे दिया था।
पुराने इतिहास से शिक्षा लेकर कश्मीर के आतंकवादी मुस्लिम संगठन नई ऊर्जा और नए उत्साह के साथ कार्य करते जा रहे थे। जबकि भारत की सरकार लगभग असहाय सी बनकर रह गई थी। अपने लिए अनुकूल परिस्थितियां पाकर और अपने लक्ष्य को बहुत अधिक निकट समझकर उस समय 26 इस्लामिक आतंकवादी संगठन कश्मीर में एक हुए और 31 जुलाई 1993 को उन्होंने हुरिर्यत कॉन्फ्रेंस नामक अलगाववादी संगठन बनाया।
मुस्लिम आतंकवादी संगठनों की इस प्रकार की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने या लगाम कसने के स्थान पर केंद्र की पीवी नरसिम्हाराव सरकार घुटने टेकती सी दिखाई देने लगी। यहां तक कि 1995 में प्रधानमंत्री ने इन आतंकवादी संगठनों को प्रसन्न करने के लिए यह भी कह दिया कि धारा 370 को भारत के संविधान से हटाया नहीं जाएगा।
हिंदुओं के पलायन पर मौन रहे फारूक अब्दुल्लाह
फारूक अब्दुल्ला अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए कश्मीर को निरंतर आग में झोंके रखने की गतिविधियों में संलिप्त थे। वह जानते थे कि इसी प्रकार की गतिविधियों में संलिप्त रहने से उन्हें आतंकवादियों का भरपूर समर्थन प्राप्त होगा और मुस्लिम जनता उनकी मुरीद हो जाएगी। हमें यहां पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 1947 में जब देश आजाद हुआ और उसके पश्चात नेहरू ने शेख अब्दुल्लाह की कश्मीर के ‘सुल्तान’ के रूप में ‘ताजपोशी’ की तो उस समय ऐसी परिस्थिति बनाई गई थीं कि कश्मीर में सदा मुस्लिमों (मुस्लिम लीग / नेशनल कॉन्फ्रेंस ) का ही राज रहे। इसके लिए नेहरू शेख की जोड़ी ने विधानसभा सीटों का सीमांकन इस प्रकार किया था कि कश्मीर घाटी में जनसंख्या कम होने के उपरांत भी उसे सीट अधिक दी गईं, जबकि जम्मू क्षेत्र में ( जहां हिंदू बहुल बहुसंख्यक हैं ) वहां जनसंख्या अधिक होते हुए भी सीटें कम दी गयीं।
फारूक अब्दुल्ला इस स्थिति को अपने अनुकूल जानकर अब यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर से जितना हो सके उतना हिंदुओं को भगा दिया जाए। यही कारण है कि हिंदुओं के पलायन पर उन्होंने कभी भी दुःख व्यक्त नहीं किया।
हिंदुओं के पलायन को लेकर उन्होंने अपने शासनकाल में या उसके पश्चात कभी भी यह कहना या करना उचित नहीं माना कि कश्मीर से विस्थापित हुए हिंदू यदि कश्मीर में लौटते हैं तो हम उनका स्वागत करेंगे। वह ‘आपराधिक मौन’ की अवस्था में चले गए।
उन्होंने कभी भी हिंदुओं अर्थात कश्मीरी पंडितों को पुनर्वास के लिए कश्मीर आने का निमंत्रण भी नहीं दिया। उनकी इस प्रकार की दोरंगी नीतियों को कश्मीर का मुसलमान भी समझ रहा था। यही कारण रहा कि 1996 में जब वहां विधानसभा के चुनाव हुए तो फारुख अब्दुल्ला की पार्टी विजयी हो गई और फारूक अब्दुल्ला फिर से जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए। हमें कश्मीर के सन्दर्भ में यह भी समझ लेना चाहिए कि कश्मीर का मुसलमान और सियासत में बैठी कोई भी मुस्लिम पार्टी, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। दोनों एक सांझा कार्यक्रम चलाते हैं कि हिंदू को किस प्रकार वहां से भगा दिया जाए या उसका उत्पीड़न करके किस प्रकार उसे इस्लाम में दीक्षित कर लिया जाए ?
कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी की सरकारों को देखकर पाकिस्तान के शासकों को बड़ी प्रसन्नता होती रही है। क्योंकि वे जानते हैं कि उनके रहते हुए कश्मीर में उपद्रव कराया जाना बहुत सहज होगा। फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के सत्तारूढ़ होने पर पाकिस्तानी शासकों को एक बार फिर प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
केंद्र में बनी अटल जी की सरकार
जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आई तो षड़यंत्र का नया दौर आरंभ हुआ । अटल बिहारी वाजपेयी उस समय पाकिस्तान यात्रा पर गए। 20 फरवरी 1999 को अटल जी ने अपनी यह यात्रा बस से की थी। उस समय उनकी यह बस यात्रा समाचार पत्रों में बहुत चर्चा का विषय बनी थी। इसे इस प्रकार देखा गया था कि जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच मित्रता का एक नया अध्याय आरंभ होने जा रहा है। परंतु विश्वासघाती पाकिस्तान इन अच्छी अनुभूतियों के पीछे विश्वासघात की एक नई कहानी लिख रहा था। अटल जी ने उस समय लाहौर में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात की थी।
उन दोनों नेताओं के बीच हुए समझौते को इतिहास में लाहौर घोषणा पत्र के रूप में जाना जाता है। इस घोषणापत्र में दोनों देशों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की थी कि दोनों ही शांति के प्रति समर्पित रहेंगे और संघर्ष की कोई भी स्थिति पैदा नहीं होने देंगे। पर पाकिस्तान अपनी विश्वासघाती नीतियों से रुकने वाला नहीं था। उसने भारत के नेता के साथ एक बार फिर विश्वासघात करते हुए कारगिल संघर्ष की पृष्ठभूमि बनानी आरंभ कर दी। 8 मई 1999 को कारगिल में पाकिस्तान के सैनिक देखे गए। उस समय पाकिस्तान के सैनिक और कश्मीर के आतंकवादी एक नई कहानी लिखने की तैयारी कर चुके थे।
अंत में भारत के नेतृत्व को कड़े निर्णय लेने पड़े और पाकिस्तान से फिर एक अघोषित युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में भारत की जीत हुई। 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तान पर भारत को विजय मिली। इस युद्ध में भारत के वीर जवानों ने पाकिस्तान के लगभग 3000 सैनिकों को दोजख की आग में फेंक दिया था।
कारगिल का युद्ध ‘द कश्मीर फाइल्स’ का एक अभिन्न अंग है। यह अलग बात है कि इस युद्ध में भारत की जीत हो गई पर कश्मीर के दर्दनाक घटनाक्रमों में से एक कारगिल युद्ध को इसलिए उल्लेखित किया जाना आवश्यक है कि इसके माध्यम से कश्मीर को शेख अब्दुल्लाह वाली ‘मुकम्मल आजादी’ दिलाने की तैयारी की गई थी । जिसमें फारूक अब्दुल्लाह अपने पिता के सपनों को साकार होते देखने के लिए सबसे अधिक लालायित थे। उनका ऊपरी आवरण भारत भक्ति का था और भीतर से पितृभक्ति के वशीभूत होकर वह भारत के टुकड़े टुकड़े करा देने की योजना को फलीभूत होते देखना चाहते थे।
यदि कारगिल युद्ध में पाकिस्तान जीत गया होता तो उन्हें ‘मुकम्मल आजादी’ मिलती और तब वह भारत के विरोध में खुलकर सामने आते। तब वह कह रहे होते कि जन्नत में निश्चय ही आज मेरे अब्बाजान खुश हो रहे होंगे, क्योंकि आज हम उनके सपनों को साकार होते देख रहे हैं। पाकिस्तान की जीत या ‘मुकम्मल आजादी’ की प्राप्ति से पहले फारुख अब्दुल्ला खुलकर सामने नहीं आना चाहते थे। इसका कारण केवल एक था – वह जानते थे कि भारत के विरोध में खुलकर बोलने पर उनके पिता को किस प्रकार जेलों की हवा खानी पड़ी थी ? कहीं उन्हें भी जेलों की हवा खानी न पड़ जाए , इसलिए वह उचित समय तक चुप रहने में लाभ देखते रहे हैं। उनके शब्दों पर बहुत अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए।
उपरोक्त घटनाओं से स्पष्ट होता है कि कश्मीर अभी तक अपने रोग के किसी निदान की ओर नहीं बढ़ रहा था। रोग और भी अधिक घातक होता जा रहा था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत