योगेश कुमार गोयल
विगत कुछ ही वर्षों में बोरवेल के ऐसे अनेक दर्दनाक हादसे सामने आ चुके हैं, जिनमें इन बोरवेलों ने कई मासूम बच्चों को जिंदा निगल लिया। हालांकि ऐसे हादसों में कड़ी मशक्कत के बाद कुछ बच्चों को बचा भी लिया जाता है लेकिन अधिसंख्य मामलों में बच्चे बोरवेल के भीतर दम घुटने से मौत की नींद सो जाते हैं।
10 जून को छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में 80 फीट गहरे बोरवेल में गिरे 11 साल के राहुल को आखिरकार 104 घंटे के अब तक के सबसे लंबे रेस्क्यू ऑपरेशन के बाद सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया है। उल्लेखनीय है कि राहुल 80 फीट की गहराई वाले बोरवेल में गिरकर 65 फीट की गहराई पर फंस गया था, जिसे निकालने के लिए सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, पुलिस, जिला प्रशासन, स्वास्थ्य, बिजली विभाग सहित कुल 500 लोगों की टीम जुटी थी। रेस्क्यू के पहले दिन 10 जून की रात को राहुल को मैनुअल क्रेन के माध्यम से रस्सी से बाहर लाने की कोशिश की गई लेकिन बोरवेल के भीतर से बच्चे द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं दिए जाने पर अलग-अलग मशीनों से खुदाई प्रारंभ की गई और करीब 60 फीट की खुदाई के बाद पहले रास्ता तैयार किया गया। बच्चे को निकालने के लिए बोर के समानांतर गड्ढा खोदकर 20 फीट सुरंग बनाकर बच्चे का रेस्क्यू किया गया। सुरंग बनाने के काम में पत्थर की वजह से रेस्क्यू टीम को भारी मशक्कत करनी पड़ी और रेस्क्यू ऑपरेशन 104 घंटे तक चला। अभी चंद दिनों पहले 22 मई को पंजाब के होशियारपुर जिले के गढ़दीवाला के समीप बहरामपुर में भी बोरवेल हादसा हुआ था, जिसमें एक छह वर्षीय बच्चा ऋतिक 300 फीट गहरे बोरवेल में करीब 95 फुट नीचे फंसकर मौत की नींद सो गया था। हालांकि सेना और एनडीआरएफ की टीम ने आठ घंटे के बचाव अभियान के बाद उसे बोरवेल से बाहर तो निकाल लिया था लेकिन अस्पताल पहुंचाने से घंटे भर पहले ही बच्चे की मौत हो गई थी।
विगत कुछ ही वर्षों में बोरवेल के ऐसे अनेक दर्दनाक हादसे सामने आ चुके हैं, जिनमें इन बोरवेलों ने कई मासूम बच्चों को जिंदा निगल लिया। हालांकि ऐसे हादसों में कड़ी मशक्कत के बाद कुछ बच्चों को बचा भी लिया जाता है लेकिन अधिसंख्य मामलों में बच्चे बोरवेल के भीतर दम घुटने से मौत की नींद सो जाते हैं। विड़म्बना है कि ऐसे हादसों पर पूर्णविराम लगाने के लिए कहीं कोई कारगर प्रयास होते नहीं दिखते। पिछले कुछ वर्षों से बोरवेल हादसों को लेकर लोगों में जागरूकता पैदा करने के प्रयासों के बावजूद ऐसे हादसे निरन्तर सामने आ रहे हैं किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि लोग बार-बार होते इस तरह के हृदयविदारक हादसों से सबक ही नहीं सीखना चाहते। ऐसे मामलों में अक्सर सेना-एनडीआरएफ की बड़ी विफलताओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं कि अंतरिक्ष तक में अपनी धाक जमाने में सफल हो रहे भारत के पास चीन तथा कुछ अन्य देशों जैसी वो स्वचालित तकनीकें क्यों नहीं हैं, जिनका इस्तेमाल कर ऐसे मामलों में बच्चों को अपेक्षाकृत काफी जल्दी बोरवेल से बाहर निकालने में मदद मिल सके। सवाल यह भी हैं कि आखिर बार-बार होते ऐसे दर्दनाक हादसों के बावजूद देश में बोरवेल और ट्यूबवैल के गड्ढे कब तक इसी प्रकार खुले छोड़े जाते रहेंगे और कब तब मासूम जानें इनमें फंसकर इसी प्रकार दम तोड़ती रहेंगी। आखिर कब तक मासूमों की जिंदगी से ऐसा खिलवाड़ होता रहेगा? कोई भी बड़ा हादसा होने के बाद प्रशासन द्वारा बोरवेल खुला छोड़ने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर सख्ती की बातें तो दोहरायी जाती हैं लेकिन बार-बार सामने आते ऐसे हादसे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि सख्ती की ये सब बातें कोई घटना सामने आने पर लोगों के उपजे आक्रोश के शांत होने तक ही बरकरार रहती हैं।
ऐसे हादसों के लिए बोरवेल खुला छोड़ने वाले खेत मालिक के साथ-साथ ग्राम पंचायत और स्थानीय प्रशासन भी बराबर के दोषी होते हैं। कई साल पहले हुए प्रिंस हादसे के बाद से लेकर अब तक अनेक मासूम जिंदगियां बोरवेल में समाकर जिंदगी की जंग हार चुकी हैं किन्तु विड़म्बना है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों के बावजूद कभी ऐसे प्रयास नहीं किए गए, जिससे ऐसे मामलों पर अंकुश लग सके। विड़म्बना है कि देश में प्र्रतिवर्ष औसतन 50 बच्चे बेकार पड़े खुले बोरवेलों में गिर जाते हैं, जिनमें से बहुत से बच्चे इन्हीं बोरवेलों में जिंदगी की अंतिम सांसें लेते हैं। ऐसे हादसे हर बार किसी परिवार को जीवनभर का असहनीय दुख देने के साथ-साथ समाज को भी बुरी तरह झकझोर जाते हैं। भूगर्भ जल विभाग के अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 2.7 करोड़ बोरवेल हैं लेकिन सक्रिय बोरवेलों की संख्या, अनुपयोगी बोरवेलों की संख्या तथा उनके मालिक का राष्ट्रीय स्तर का कोई डाटाबेस मौजूद नहीं है।
बोरवेलों में बच्चों के गिरने की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में ऐसे हादसों पर संज्ञान लेते हुए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे। 2013 में कई दिशा-निर्देशों में सुधार करते हुए नए दिशा-निर्देश जारी किए गए थे, जिनके अनुसार गांवों में बोरवेल की खुदाई सरपंच तथा कृषि विभाग के अधिकारियों की निगरानी में करानी अनिवार्य है जबकि शहरों में यह कार्य ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग तथा नगर निगम इंजीनियर की देखरेख में होना जरूरी है। अदालत के निर्देशानुसार बोरवेल खुदवाने के कम से कम 15 दिन पहले डी.एम., ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम को सूचना देना अनिवार्य है। बोरवेल की खुदाई से पहले उस जगह पर चेतावनी बोर्ड लगाया जाना और उसके खतरे के बारे में लोगों को सचेत किया जाना आवश्यक है। इसके अलावा ऐसी जगह को कंटीले तारों से घेरने और उसके आसपास कंक्रीट की दीवार खड़ी करने के साथ गड्ढ़ों के मुंह को लोहे के ढ़क्कन से ढ़कना भी अनिवार्य है लेकिन इन दिशा-निर्देशों का कहीं पालन होता नहीं दिखता। दिशा-निर्देशों में स्पष्ट है कि बोरवेल की खुदाई के बाद अगर कोई गड्ढ़ा है तो उसे कंक्रीट से भर दिया जाए लेकिन ऐसा न किया जाना हादसों का सबब बनता है।
ऐसे हादसों में न केवल निर्बोध मासूमों की जान जाती है बल्कि रेस्क्यू ऑपरेशनों पर अथाह धन, समय और श्रम भी नष्ट होता है। प्रायः होता यही है कि तेजी से गिरते भू-जल स्तर के कारण नलकूपों को चालू रखने के लिए कई बार उन्हें एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करना पड़ता है और पानी कम होने पर जिस जगह से नलकूप हटाया जाता है, वहां लापरवाही के चलते बोरवेल खुला छोड़ दिया जाता है। कहीं बोरिंग के लिए खोदे गए गड्ढ़ों या सूख चुके कुओं को बोरी, पॉलीथीन या लकड़ी के फट्टों से ढ़ांप दिया जाता है तो कहीं इन्हें पूरी तरह से खुला छोड़ दिया जाता है और अनजाने में ही कोई ऐसी अप्रिय घटना घट जाती है, जो किसी परिवार को जिंदगी भर का असहनीय दर्द दे जाती है। न केवल सरकार बल्कि समाज को भी ऐसी लापरवाहियों को लेकर चेतना होगा ताकि भविष्य में फिर ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो। देश में ऐसी स्वचालित तकनीकों की भी व्यवस्था करनी होगी, जो ऐसी विकट परिस्थितियों में तुरंत राहत प्रदान करने में सक्षम हों।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा कई पुस्तकों के लेखक हैं, उनकी हाल ही में पर्यावरण संरक्षण पर 190 पृष्ठों की पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ प्रकाशित हुई है)