आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने मनुष्य समाज की सेवा में सत्यार्थ प्रकाश नामक पुस्तक की रचना करके मानव जाति को ढकोसला, मूर्ति पूजा, पाखंड व असत्य से बचाकर भारी उपकार किया था। सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करने के लिए स्वामी दयानंद जी ने अपने द्वारा निर्भीक रूप से लिखे गए इस ग्रंथ में मनुष्य जाति का उपकार किया है।
दयानंद जी के अनुसार सत्योपदेश के बिना मनुष्य जाति का विकास संभव नहीं है। स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा रचित ग्रंथों में सत्यार्थ प्रकाश प्रधान ग्रंथ है। इसमें स्वामी दयानंद जी के सभी ग्रंथों का सारांश प्राप्त होता है। यह ग्रंथ 14 समुल्लास अर्थात 14 विभागों में रचा गया है। जो इस प्रकार हैं :-
1 प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओंकार आदि नामों की व्याख्या की गई है।
2- द्वितीय समुल्लास में संतानों की शिक्षा का उल्लेख किया गया है।
3 – तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठन-पाठन व्यवस्था, सत्यासत्य ग्रंथों के नाम और पढ़ने – पढ़ाने की रीति का उल्लेख किया गया है।
4,- चतुर्थ समुल्लास में विवाह और गृहस्थ आश्रम का वर्णन किया गया है।
5- पांचवें समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की विधि बताई गई है।
6- षष्टम समुल्लास में राजधर्म की बहुत ही मनोहारी व्याख्या की गई है।
7- सप्तम समुल्लास में वेदेश्वर विषय को लिया गया है।
8- अष्टम समुल्लास में जगत की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय पर सटीक वर्णन किया गया है।
9- नवम समुल्लास में विद्या अविद्या, बंध और मोक्ष की व्याख्या की गई है।
10- दसवें समुल्लास में आचार अनाचार, और भव्याभव्य विषय को प्रकट किया गया है।
11 – एकादश समुल्लास में आर्यवर्त के यह मत मतांतर का खंडन किया गया है। 12 – द्वादश समुल्लास में चार्वाक, बौद्ध और जैन मत का विषय उठाया गया है।
13 – तेरहवें समुल्लास में ईसाई मत का विषय लिया गया है।
14 – इस समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय लेकर उसका खंडन किया गया है।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपने इस महान ग्रंथ के अंत में आर्यों के सनातन वैद्युत मत की विशेष व्याख्या की है। स्वामी दयानंद जी के इस ग्रंथ को बनाने का मुख्य उद्देश्य सत्य और असत्य का प्रकाश व प्रचार करना था। जिससे कि सत्य व असत्य की जानकारी जनसाधारण को हो सके। स्वामी जी ने अपने इस ग्रंथ की भूमिका के तीसरे पृष्ठ की दसवीं पंक्ति के पैरा में स्पष्ट रूप से लिखा है कि – ‘ यद्यपि आज कल बहुत से विद्वान अनेक मतों में हैं। वह पक्षपात छोड़कर सर्व तंत्र सिद्धांत अर्थात जो जो बातें सबके अनुकूल सबमें सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध पाते हैं उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से बरतें तो जगत का पूर्ण हित हो जाए। क्योंकि विद्वानों के विरोध से विद्वानों में विरोध बढ़कर अनेक विधि दु:ख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हनी ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है ।सब मनुष्यों को दुख सागर में डूबा दिया है। स्वामी दयानंद जी ने अपने इस ग्रंथ के अंत में स्वयं मंतव्यामंतव्य प्रकाश में सनातन वैदिक मत की विशेष व्याख्या में पैरा 24 में ‘तीर्थ’ के विषय में कहा है कि – तीर्थ जिससे दुख सागर से पार उतरने की जो सत्य भाषण ,विद्या, सत्संग आदि योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्या ,दान आदि शुभ कर्म हैं, उसी को तीर्थ समझता हूं। जल, स्थल आदि को नहीं।
3 गुरु माता- पिता और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे वह भी गुरु कहलाता है। यहां यह लिखना भी बहुत जरूरी है कि महर्षि दयानंद जी के गुरु स्वामी विरजानंद जी महाराज थे। जिन्होंने स्वामी दयानंद जी को सत्य, असत्य का प्रकाश व प्रचार करने के लिए गहनता से तैयार किया था। यह गुरु जी का ही प्रताप है कि समाज में फैली कुरीतियों, सत्य असत्य का भान महर्षि दयानंद जी ने समाज को कराया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विषय में अल्प जानकारी देने के पश्चात हम अब मूल विषय ‘ दिन की शुरुआत ‘ विषय पर पुनः आना चाहते हैं । आर्य समाज के प्रर्वतक महर्षि जी ने भी ‘ मन्त्र ‘ का जाप तथा ओंकारादि शब्दों के जाप के लिए बहुत कुछ लिखा है । सूफ़ी सन्त व अन्य सन्त महात्माओं ने भी ‘नाम’ या ‘शब्द’ का जाप सुमिरन के लिए काफी कहा है या लिखा है , जो कि इसी विषय (अध्याय) के शुरू में बयान किया या लिखा गया है। मनुष्य को चाहिए कि वह दिन की शुरुआत प्रातः या भोर में या जब भी समय मिले उस मालिक का भजन, सुमिरन, जप या इबादत करें। उस परमपिता परमात्मा या प्रभु है – अल्लाह खुदा God या मालिक के नाम से दिन की शुरुआत करें।
उसके अलावा जो 24 घन्टा में सोने या आराम करने तथा व्यवसाय के लिए काफी समय बचता है , उसका उपयोग नीति- नियम अनुसार बरतना उपयुक्त माना गया है। समाज में अपना जीवन जीने के लिए तथा अपनी आत्मोन्नाति के लिए हमें एक जीवित माता – पिता या जीवित गुरु की अत्यन्त आवश्यकता पडती है,इस विषय के लिए अगले चेप्टर में उल्लेख जरूरी है।
ऋषिराज नागर एडवोकेट