अंकित सिंह
महाराजा का निधन लक्ष्मी बाई के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। बावजूद इसके लक्ष्मीबाई घबराई नहीं, उन्होंने अपना विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवन काल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजों को सूचना दे दी थी।
भारत का इतिहास महान विभूतियों की अमर गाथाओं से भरा पड़ा है। ये विभूतियां हमें समय-समय पर प्रेरित और प्रोत्साहित करती रहती हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि इन विभूतियों में सिर्फ पुरुष ही थे, महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर इतिहास में कई साहसिक और बड़े कार्य किए हैं। ऐसी ही एक महिला थी महारानी लक्ष्मी बाई। ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पंक्तियां जब जब हमारे कानों में जाती है, रानी लक्ष्मीबाई की महानता और उनकी अदम्य साहस से हम सभी को परिचित कराती हैं। रानी लक्ष्मीबाई भारतीय इतिहास में अमर हैं। जब-जब भारतीय इतिहास में वीरांगनाओं की बात होगी तो उसमें रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे ऊपर की सूची में होगा। रानी लक्ष्मीबाई भारतीय नारी की आदर्श प्रतिमूर्ति थी तो इसके साथ ही वे महिला सशक्तिकरण की प्रतीक भी थीं। अपने जीवन काल में रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ ऐसे कार्य किए हैं, जो उनके जाने के 150 से ज्यादा साल के बाद भी हम सब के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनु व मणिकर्णिका के नाम से जानी जाती थीं। जब वह चार साल की थी तब उसकी मां की मृत्यु हो गई। सन् 1850 में मात्र 15 वर्ष की आयु में लक्ष्मीबाई का झांसी के महाराजा गंगाधर राव से मणिकर्णिका का विवाह हुआ। एक वर्ष बाद ही उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन चार माह पश्चात ही उस बालक का निधन हो गया। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे।
महाराजा का निधन लक्ष्मी बाई के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। बावजूद इसके लक्ष्मीबाई घबराई नहीं, उन्होंने अपना विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवन काल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेजों को सूचना दे दी थी। लेकिन अंग्रेजों की सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया था। इसके साथ ही लॉर्ड डलहौजी ने झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। यह खबर जब रानी लक्ष्मीबाई के पास पहुंची तो वह गुस्से से भर उठी थीं। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मैं अपनी जान दे दूंगी, लेकिन झांसी नहीं दूंगी। यह वही क्षण था जब भारत के प्रथम स्वाधीनता क्रांति का पीस प्रस्फुटित हुआ था। 1857 की लड़ाई पूरे उत्तर भारत सहित झांसी में भी धधक रही थी। महारानी लक्ष्मीबाई पर विषेश निगरानी रखी जा रही थी। रानी लक्ष्मीबाई में राष्ट्र के लिए गजब का प्रेम था। उनमें राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। यही कारण था कि वे अंग्रेजों से भी लोहा लेने में पीछे नहीं हटीं। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं।
हालांकि यह बात भी सच है कि ऐसे युद्ध को बहुत दिन तक चलना असंभव था। यही कारण था कि उन्होंने सरदारों का आग्रह मानकर कालपी प्रस्थान किया। लेकिन वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं। उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया। और आखिरकार 18 जून को वह दिन आ ही गया, जब रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया। झांसी ही नहीं अपितु पूरा भारत रानी लक्ष्मीबाई को नमन करता है।