लक्ष्मीबाई बहुत ही अद्भुत और बहादुर महिला थी। बात 15 मार्च 1854 की है वो धुंधली सी शाम जब एक शाही सफेद हाथी घुड़सवार दस्तों के साथ राजमहल की तरफ बढ़ रहा था। यह शख्स थे मशहूर ऑस्ट्रेलियन वकील लैंग जॉन जो रियासत की कर्ता-धर्ता और महाराज गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई के विशेष आग्रह पर आगरा से झांसी आये थे। लैंग को हिंदुस्तान में कंपनी शासन की तानाशाही के खिलाफ मुखर रुप से लगातार आवाज उठाने वाले अफसर के रुप में जाना जाता था। महारनी लक्ष्मीबाई लैंग के साथ बातचीत करना चाहती थीं कि वह लंदन की अदालत में डॉक्टराइन ऑफ लैप्स (गोद निषेध कानून) के विरोध में झांसी का पक्ष प्रस्तुत करे। ब्रिटिश सरकार की यह नीति दत्तक पुत्रों को रियासतों का वारिस मानने से इनकार करती थी।
मनु बचपन से ही होनहार, बहादुर और अदभुत क्षमता की धनी थी। हिन्दु धार्मिक नगरी बनारस में जन्मी मनु विलक्षण थी पिता मोरोपंत तांबे पेशवा बाजीराव के परिवार में खिदमतगार थे जो बिठूर रियासत के पेशवा के यहां काम करते थे। मां भागीरथी बाई बचपन में ही स्वर्ग सिधार गई थी परिणामतः मनु का अधिकांश समय पिता के साथ पेशवा दरबार में ही गुजरता था। जहां मनु नाना साहेब और तात्या टोपे की संगत में जंग के हुनर सीखते-सीखते बड़ी हो गई। 1842 में मनु का विवाह झांसी नरेश गंगाधर राव नेवलकर के साथ हुआ। विवाह के साथ ही मनु को लक्ष्मीबाई नाम मिला। 1851 में रानी ने राजकुंवर दामोदर राव को जन्म दिया। दुर्भाग्य से राजकुंवर चार माह ही जी पाए। पुत्र की मृत्यु के साथ ही जैसे लक्ष्मीबाई के जीवन में संकटों का सैलाब आ गया। अब इसी सदमें में महाराजा गंगाधर राव की सेहत भी गिरती चली गयी। यह ध्यान में रखते हुए 1853 में महाराज ने अपने दूर के भाई आनंद राव को गोद ले लिया जिसे वे दिवंगत कुंवर की याद में दामोदर राव नाम से ही पुकारते थे। उधर राजे-रजवाड़ों को लेकर ब्रिटिश हुकुमत लगातार सख्त कानून बना रही थी। सरकार ने रियासतों और राजे-रजवाड़ों द्वारा संतान गोद लेने की प्रथा को लेकर बेहद सख्त रुख अपना लिया। गोद लेने की पूरी रस्म झांसी में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक एजेंट मेज़र एलिस की मौजूदगी में पूरी की गयी। एलिस के जरिए महाराज ने रस्म से जुड़े सारे दस्तावेज और अपनी वसीयत तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को भिजवाए। इस वसीयत के मुताबिक वयस्क होने के बाद दत्तक पुत्र दामोदर राव झांसी का अगला महाराज बनेगा तब तक लक्ष्मीबाई को उनकी और रियासत की सरपरस्त रहना था। वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी जॉन मैल्कॉम महारानी को इस पद पर नहीं देखना चाहता था। उसने लार्ड डलहौजी को झांसी पर कब्जे की सलाह दी। परिणाम लॉर्ड डलहौजी ने वसीयत को मानने से इनकार कर दिया और नए कैप्टन अलैक्जेंडर स्कीन को झांसी की जिम्मेदारी सौंप दी।
अब कुंवर के अधिकारों को लेकर चिंतित लक्ष्मीबाई ने तीन दिसंबर 1853 को एक बार फिर मेजर एलिस के माध्यम से मैल्कॉम तक दरख्वास्त भिजवाई। मैल्कॉम ने वह खत आगे नहीं बढ़ाया। महारानी ने दो महीने बाद फिर 16 फरवरी 1854 को इस बाबत आख़री प्रयास किया पर कोई सुनवायी नहीं हुई। उल्टा मार्च, 1854 को कंपनी ने रानी लक्ष्मीबाई को किला छोड़कर नगर में स्थित अन्य महल में जाने का आदेश भिजवा दिया और उनकी 5000 रुपए प्रति माह की पेंशन का उल्लेख इस आदेश में किया गया। महारानी ने लैंग जॉन को बुलावाया और स्पष्ट कर दिया ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’
लैंग जॉन ने रानी लक्ष्मीबाई के साथ अपनी इस मुलाकात का जिक्र अपनी किताब ’’वांडरिंग्स इन इंडिया एंड अदर स्केचेज ऑफ लाइफ इन हिंदुस्तान” में विस्तार से किया है। लैंग ने महारानी से अपनी मुलाकात को अदभुत बताते हुए महारानी के साहस और हिम्मत की प्रशंसा करते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि मै मजबूर हूं गवर्नर जनरल के अलावा किसी को अधिकार नहीं है कि वह रियासत को लेकर निर्णय कर सकें। मेरी सलाह आपको एक शुभ चिंतक के तौर पर यही है कि आप महारानी दत्तक पुत्र के साथ हो रहे इस अन्याय के खिलाफ याचिका दायर करें और फिलहाल अपनी पेंशन का प्रस्ताव स्वीकार कर ले। लैंग लिखते हैं कि ‘इस बात पर लक्ष्मीबाई गुस्सा गई और उन्होनें तीखी प्रतिक्रिया दी। कड़ी और तेज आवाज से दरवार गूंज उठा ’’मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी” । लैंग ने पुनः बहुत ही विनम्रतापूर्वक महारानी को समझाया कि इस विद्रोह का कोई अर्थ नहीं है। ब्रिटिश सेना झांसी को चारों तरफ से घेरे खडी है। यह बगावत आपकी कानूनी कार्यवाही से उपजी आख़री उम्मीद को भी भी खत्म कर देगी। महारानी लैंग की ज्यादातर बातों से सहमत थी। बस अंग्रेज सरकार से पेंशन लेने की बात को छोड़कर। 22 अप्रैल 1854 को लैंग जॉन ने लंदन की अदालत में महारानी का पक्ष रखा भी पर असफल ही रहे। अब महारानी लक्ष्मीबाई समझ गई थी कि यदि झांसी का आत्मसम्मान बचाना है तो देर-सवेर युद्ध तो करना ही होगा। इसी दूर-दृष्टि के साथ महारानी ने रियासत की सेना के साथ आम पुरुषों और महिलाओं को भी युद्ध के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। समय इसी उहापोह में बीच रहा था और कुंवर दामोदर भी सात वर्ष के हो गए थे। महारानी ने कुवंर का उपनयन संस्कार करवाने का निश्चय किया। इस आयोजन की आड़ में लक्ष्मीबाई झांसी के सभी मित्र राजाओं, दीवानों और नवाबों को बुलाकर आगे की रणनीति तय करना चाहती थी। उपनयन कार्यक्रम में नाना साहेब, राव साहेब, दिल्ली के सुल्तान बहादुर शाह और अवध के नवाब तक को आमंत्रित किया गया। बैठक में हिंदू और मुसलमान सैनिकों की फौज के प्रति नाराज़गी पर विस्तार से चर्चा हुई।
उधर फरवरी 1857 में तात्या टोपे चोरी-छिपे लक्ष्मीबाई को एक ख़त भिजवा चुके थे जिसमें क्रांति का आह्वान था। जिस पर महारनी कि प्रतिक्रिया यह थी कि अभी क्रांति करने का सही समय नहीं आया है। सबकी सहमति यह बनी कि बग़ावत का बिगुल 31 मई 1857 को फूंका जाएगा जिसके लिए रोटी और कमल के फूल को क्रांति का निशान माना गया। समय से थोड़ा पहले ही मेरठ से 10 मई को ही कोतवाल धनसिंह गुर्जर ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया। सात जून को ये क्रांतिकारी मेरठ से संघर्ष करते-करते झांसी पहुंचे गए। जहां रानी ने इनको तीन लाख रुपए की मदद की और अंग्रेजों को पत्र से सफाई दी कि विद्रोहियों की मांग को इसलिए स्वीकार कर लिया ताकि नगरवासियों के साथ किले में मौजूद ब्रिटिश औरतों और बच्चों की जान-माल की रक्षा की जा सके और शांति व्यवस्था बनाए रखी जा सके। जबकि क्रांतिकारियों को दी गयी यह मदद रानी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थी।
क्रांतिकारियों के डर से अधिकांश अंग्रेज अफ़सरों ने झांसी छोड़ दिया था और रियासत एक बार फिर रानी के कब्जे में आ गई थी। इसी बीच महाराष्ट्र के सदाशिव राव ने झांसी से तकरीबन 30 मील दूर कथुरा के किले पर कब्जा कर लिया और घोषणा करवा दी कि अब से इलाके का प्रत्येक गांव उसके अधीन होगा। इस संकट के साथ ही झांसी के कुछ सरदारों ने रानी की सत्ता पर उंगली उठाना शुरू कर दिया। इससे पहले कि रियासत में बगावत होती, रानी ने सदाशिव को खदेड़ते हुए उसके कब्जे से कथुरा के किले को छुड़वा लिया। लेकिन कुछ समय बाद सदाशिव फिर आया। इस बार रानी ने उसे बंदी बना लिया। इन युद्धों से झांसी उभर ही रही थी कि अक्टूबर 1854 में ओरछा का एक सिपहसालार साथे खान अपनी टुकड़ियों को लेकर झांसी की तरफ बढ़ने लगा। अपने घायल सिपाहियों और नागरिकों को इकठ्ठा कर लक्ष्मीबाई साथे खान पर टूट पड़ीं और उसे खदेड़ दिया। इन लड़ाइयों ने झांसी को कमजोर जरूर बनाया, लेकिन लक्ष्मीबाई के नेतृत्व और युद्ध कौशल में काफी इजाफा कर दिया। इस संकट का लाभ उठाकर 6 जनवरी 1858 को हैमिल्टन के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजे जब झांसी पर आ चढ़ी। अंग्रेज महारानी को बगावत में हिस्सेदार मान रहे थे। सात फरवरी को हैमिल्टन द्वारा भेजी गई एक रिपोर्ट में कहा गया कि ‘रानी ने ब्रिटेन के खिलाफ लड़ने की इच्छा तो जाहिर नहीं की है, लेकिन इशारे कुछ ठीक भी नहीं हैं। किले में छह नयी बड़ी बंदूकें बना ली गई हैं जिनके लिए बारूद तैयार किया जा रहा है और महारानी ने कुछ बागियों को भी शरण दे रखी है। परिणामतः ब्रिटिश शासन ने 14 फरवरी को महारानी के नाम एक पत्र भेजा जिसमें उनसे स्पष्टीकरण मांगा गया। 15 मार्च तक रानी इस खत का जवाब नहीं सोच पायी थीं। वे जानती थीं कि युद्ध का अंजाम क्या होने वाला है पर जनमानस की मंशा महारानी समझती थी कि झांसी फिरंगियों के अधीन नहीं जानी चाहिए। वहीं लक्ष्मीबाई के पिता सहित तमाम सरदार भी अब युद्ध के पक्षधर थे। कई बागी भी अब महारानी की शरण में थे। अंततः इन तमाम स्थितियों में युद्ध का निर्णय ले लिया गया।
अंग्रेज अधिकारी भी अब महारानी के तेवर भांप चुके थे। ब्रिटिश अधिकारियों ने एक बार फिर रानी के सामने निहत्थे मुलाकात की पेशकश रखी। महारानी ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और स्पष्ट संदेश दे दिया कि अब अगली भेंट सेना के साथ युद्ध के मैदान में ही होगी। अंग्रेज महारानी के साहस और सैन्य दक्षता को समझते थे साथ ही महारानी द्वारा जुटायी गई समर्थन प्रणाली का भी सरकार को पता था। इसलिए झांसी को एक बार फिर आत्मसमर्पण का संदेश भिजवाया गया लेकिन महारानी लक्ष्मीबाई ने उसे भी ठुकरा दिया। फिर तो जो होना था 23 मार्च 1858 को ब्रिटिश फौजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। 30 मार्च को भारी बमबारी कर अंग्रेज किले की दीवार में सेंध लगाने में सफल हो गये। इसी बीच अपनी 20,000 की फौज के साथ तात्या टोपे झांसी पहुंच गए। 3 अप्रैल तक तात्या की सेना ने ब्रिटिश सैनिको को उलझाए रखा पर अंतत ब्रिटिश सेना झांसी में प्रवेश कर ही गयी।
लड़ते-लड़ते महारानी हिम्मत और साहस के साथ आगे बढ़ती रही। अपनी घटती शक्ति को देखकर विशाल अंग्रेज सेना के सामने रानी ने दामोदर राव को अपनी पीठ पर बांध छोटी सैन्य टुकड़ी के साथ झांसी से निकलने का निर्णय लिया और झांसी से लगभग सौ किमी0 से भी दूर काल्पी पहुंचीं। जहां महारानी ने नाना साहेब पेशवा, राव साहब और तात्या टोपे से मुलाकात की। वहां से 30 मई को ये सब बागी एक साथ ग्वालियर पहुंच गए। ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया अंग्रेजों के समर्थन में काम कर रहे थे। इन सबने वहां पंहुचकर जन विद्रोह का नेतृत्व किया और महाराजा ग्वालियर की फौज को अपने बागियों के साथ लेकर आगे बढ़ने और बिटिश हुकुमत के खिलाफ संगठित ढंग से लडने की रणनीति बनायी। 16 जून तक अंग्रेज फौजें भी ग्वालियर पहुंच चुकी थी। 17 जून की सुबह महारानी लक्ष्मीबाई ने पुनः जंग छेड़ दी। इसी दौरान लडते-लडते अंग्रेज सैंनिकों ने पीछे से महारनी पर गोली चलायी और वीरांगना लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई।
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