जो व्यक्ति पहले दिन से ही ‘मुकम्मल आजादी’ की बात करता आ रहा था और जिसका दृष्टिकोण भारतभक्ति न होकर निजी स्वार्थ और अपने दीन की खिदमत करना रहा हो, उससे यह कैसे अपेक्षा की जा सकती थी कि वह कश्मीर में शांति बहाली के लिए काम करेगा ? उसने बड़ी चालाकी से अपने मित्र नेहरू को तैयार किया और कश्मीर में शेष भारत का कोई हस्तक्षेप न हो इस बात को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान स्थापित कराने में सफलता प्राप्त की। उसका अंतिम लक्ष्य ‘मुकम्मल आजादी’ प्राप्त करना था और उस दिशा में वह बड़ी सावधानी से किंतु तेजी के साथ बढ़ता जा रहा था।
वास्तव में शेख अब्दुल्लाह उस समय पहले से ही भ्रमित भारतीय नेतृत्व की भ्रम की अवस्था का लाभ उठा रहा था। उसने अपने मित्र नेहरू पर ‘काला जादू’ (अर्थात अपनी कुटिलता के कुचक्र में नेहरू को फंसा लिया था) फेर दिया था और नेहरु उस ‘काले जादू’ से बाहर निकलने को तैयार नहीं थे। उस ‘काले जादू’ का ही प्रभाव था कि नेहरू देखकर भी कुछ नहीं देख पा रहे थे। उसके लिए यह सुखद और बहुत ही मनोरंजक संयोग बन गया था कि अंग्रेज भी उसके साथ थे और कांग्रेस व उसकी पहली सरकार भी उसकी मनोवांछा को पूर्ण करने में सहयोगी हो रही थी । इसके अतिरिक्त अभी हाल ही में बना नया देश पाकिस्तान भी उसको भारत के विरुद्ध उकसाने की कार्यवाही कर रहा था। ये सारी परिस्थितियां शेख अब्दुल्लाह के अनुकूल थीं । जिसका वह अधिक से अधिक लाभ उठा लेना चाहता था। इन परिस्थितियों के पार उसे अपनी ‘मुकम्मल आजादी’ खड़ी दिखाई दे रही थी।
नेहरू को समझना चाहिए था ….
नेहरू ने जब देश का सांप्रदायिक आधार पर देश का बंटवारा स्वीकार किया था तो उन्हें उसी समय यह समझ लेना चाहिए था कि अब शेष भारत में सांप्रदायिक आधार पर किसी का तुष्टीकरण नहीं किया जाएगा । किसी भी क्षेत्र विशेष को या राज्य या प्रांत को किसी संप्रदाय के आधार पर उसी संप्रदाय के लोगों को सौंपा नहीं जाएगा। तत्कालीन नेतृत्व को इस बात के लिए संकल्पित होना चाहिए था कि भारत के सभी प्राकृतिक संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार भारत के मूल निवासियों अर्थात आर्य वैदिक हिंदुओं का है। यह बात स्पष्ट रूप से नेतृत्व को स्वीकार करनी चाहिए थी कि जो लोग इस देश को अपना मानते हैं और इसके लिए मरने जीने की सौगंध खाते हैं, वही इस देश के सच्चे नागरिक हो सकते हैं । उन्हें इस्लाम को मानने वाले लोगों के भयानक दृष्टिकोण और उद्देश्यों को भी समझना चाहिए था।
इस दृष्टिकोण से देशहित में ऐसे प्रबंध किए जाते जिससे भविष्य में कोई भी संप्रदाय सांप्रदायिक आधार पर देश का विभाजन करने के लिए फिर अपने आपको बलशाली ना बना सके। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि नेहरू जी ने ऐसा न करके धारा 370 को चोरी से भारतीय संविधान में स्थापित करवाकर कश्मीर में अलगाववादी शक्तियों को अपना सहयोग और समर्थन दिया। जिसके घातक परिणाम वहां के हिंदू समाज को भुगतने पड़े।
ऐसा नहीं था कि नेहरू को उस समय समझाने वाले लोग नहीं थे। उन्हें सावरकर जी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक और उनकी अपनी पार्टी के भी सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे कई राष्ट्रवादी नेता समझाते बताते रहे थे कि कश्मीर के विषय में उनका दृष्टिकोण सर्वथा अनुचित और अतार्किक है । जिसमें सुधार की बहुत अधिक आवश्यकता है। वे शेख अब्दुल्लाह पर अधिक विश्वास न करें। क्योंकि उसकी मानसिकता देश विरोधी है, परंतु इसके उपरांत भी नेहरू अपनी स्वेच्छाचारिता का परिचय देते रहे। उनके समर्थक चाहे उन्हें कितना ही लोकतांत्रिक कहें पर कश्मीर के संदर्भ में उनकी स्वेच्छाचारिता उन्हें एक लोकतांत्रिक नहीं बल्कि एक तानाशाह शासक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने किसी की बात को नहीं माना और अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे । जिससे देश की आत्मा रोती रही।
शेख अब्दुल्ला के अत्याचार
शेख अब्दुल्ला उस समय हिंदू जनता पर अत्याचार करने लगा था। जिसका विरोध प्रेमनाथ डोगरा जैसे देशभक्त नेता ने प्रजा परिषद नामक पार्टी बनाकर करना आरंभ किया । उनके साथ अनेक हिन्दू लोग आ जुड़े। जिन्होंने इस नए मुस्लिम शासक के शासनकाल में वैसे ही अत्याचारों का सामना किया जैसे कभी मुगलों और दूसरे मुस्लिम सुल्तानों के शासनकाल में उस समय के हिंदू समाज ने सहे थे। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार का वही क्रम दोबारा बड़ी क्रूरता व निर्मलता के साथ कश्मीर में देखा जाने लगा जो अब से पूर्व मुस्लिम शासन काल में देखा जाता था । बस, अंतर केवल इतना था कि इस बार इस प्रकार के दमन चक्र को चलाने वाला कोई विदेशी आक्रमणकारी नहीं था बल्कि उसे भारत के ही तथाकथित बेताज के बादशाह प्रधानमंत्री ने अपना समर्थन देकर हिंदुओं के प्रति स्थापित कर दिया था।
शेख अब्दुल्लाह का पुलिस प्रशासन और उसके मुस्लिम अधिकारी अपने नए शासक का वैसे ही साथ दे रहे थे जैसे कभी पूर्व में मुस्लिम शासकों के शासनकाल में उनके अधिकारी और पुलिस प्रशासन दिया करता था। उन सबका सांझा शत्रु हिन्दू था और इतिहास का यह एक अत्यंत पीड़ा दायक सत्य है कि हर काल में ही मुस्लिम प्रशासन और शासन का सांझा शत्रु हिंदू रहा है।
नेहरू को चला सत्य का पता
1953 में जब नेहरू स्वयं कश्मीर गए तो उन्होंने शेख अब्दुल्लाह के भारत विरोधी भाषणों को अपने कानों से सुना। वहां के लोगों ने जब कश्मीर के बारे में नेहरू को सच बताया तो कुछ-कुछ उनकी आंखें खुलनी आरंभ हुईं। यह एक संयोग ही था कि जिस समय नेहरू कश्मीर के दौरे पर थे उस समय नेशनल कांफ्रेंस का राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा था। उसमें भारत विरोध से भरे भाषणों को शेख अब्दुल्लाह निसंकोच देता जा रहा था। अब उसका आचरण ऐसा हो गया था कि वह भारत के प्रधानमंत्री से भी नहीं डरता था। जैसे-जैसे वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे ही उसका आत्मविश्वास बढ़ रहा था और साथ ही साथ दुस्साहस भी बढ़ता जा रहा था। अब भारतवर्ष में उसके लिए कोई चुनौती नहीं थी , इसलिए वह स्वयं एक चुनौती बन जाना चाहता था। कुल मिलाकर अब वह अपने मित्र नेहरू को भी बहुत हल्के में लेने लगा था।
शेख अब्दुल्लाह उस समय खुलकर खेल रहा था और भारत विरोध में जितना बोल सकता था उतना बोलने में भी उसे कोई संकोच नहीं हो रहा था। ऐसी स्थिति को देखकर नेहरू को थोड़ा सा झटका लगा। उन्हें लगा कि वह सचमुच गलती कर रहे थे। बताया जाता है कि उस समय नेहरू ने शेख अब्दुल्लाह और उसकी पार्टी के लोगों को अपने आवास पर विशेष बातचीत के लिए आमंत्रित किया। इस बातचीत में नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को राष्ट्रवादी सोच को प्रकट करने वाले आचरण को अपनाने का परामर्श दिया। जिसे शेख अब्दुल्ला ने मानने से इनकार कर दिया। उस समय नेहरू को गुप्तचर सेवा के निदेशक जी0के0 हांडू और गृह मंत्री कैलाश नाथ काटजू ने शेख के कई ऐसे गुप्त दस्तावेज दिखाए जिनसे उसकी देश विरोधी मानसिकता प्रकट होती थी। इन दस्तावेजों को देखकर नेहरू के होश उड़ गए। तब उन्होंने शेख अब्दुल्ला को कहा था कि – ‘शेख साहब ! अभी तक मैं तुम्हारे साथ जवाहरलाल नेहरू के नाते व्यवहार कर रहा था, लेकिन अब भारत के प्रधानमंत्री के रूप में तुम्हारे साथ पेश आऊंगा।’
मौलाना आजाद के साथ भी किया अभद्र व्यवहार
इसके पश्चात मौलाना अबुल कलाम आजाद को नेहरू ने शेख को समझाने के लिए श्रीनगर भेजा। शेख पर इस समय देश विरोध का भूत सिर पर सवार होकर नाच रहा था। उसे लगने लगा था कि जैसे बातों ही बातों में जिन्नाह ने देश का बंटवारा करके एक बड़ा भाग अपने लिए प्राप्त कर लिया था वैसे ही वह भी अब नेहरू की नाक में दम करके कश्मीर को अपने लिए प्राप्त कर सकता है। समय तेजी से गुजर रहा था, इसलिए उसे अब अपने उद्देश्य को यथाशीघ्र पूर्ण करने की शीघ्रता हो गई थी। इसलिए उसने मौलाना अबुल कलाम आजाद के परामर्श को मानने से भी इंकार कर दिया। उसने मौलाना अबुल कलाम आजाद को मुसलमानों का शत्रु व हिंदुओं का पिट्ठू कहकर अपमानित किया । तब मौलाना आजाद अपना सा मुंह लेकर कश्मीर से दिल्ली के लिए लौट आए, परंतु इस बार मौलाना ने दिल्ली आकर नेहरू जी को शेख को तुरंत बर्खास्त करने का सुझाव दिया।
बहुत कुछ लुटाने के पश्चात नेहरू की आंखें खुलीं। उन्हें अब यह भली प्रकार स्पष्ट हो गया था कि शेख अब्दुल्लाह उनका, उनकी पार्टी का, उनकी सरकार का और देश का किस प्रकार मूर्ख बनाता रहा है ? उन्हें यह भी पता चल गया कि शेख अब्दुल्लाह ने किस तैयारी के साथ अपने राजनीतिक संगठन मुस्लिम कांफ्रेंस की स्थापना की थी और फिर किस प्रकार उसे एक राष्ट्रवादी संगठन दिखाने के उद्देश्य से और देश को भ्रम की स्थिति में डालने की भावना से प्रेरित होकर नेशनल कांफ्रेंस में परिवर्तित कर दिया था?
नेहरू इतनी देर बाद सावधान हुए, जबकि उन्हें कई हिंदूवादी राष्ट्रवादी नेता प्रारंभ से ही बताते समझाते आ रहे थे कि सावधान हो जाओ और शेख अब्दुल्लाह पर अधिक विश्वास मत करो। इससे पता चलता है कि नेहरू एक सजग और सावधान प्रधानमंत्री नहीं थे। ऐसा नहीं था कि नेहरू केवल शेख अब्दुल्ला के प्रति ही असावधान थे। वह चीन के प्रति भी असावधान रहे और अपनी सुरक्षा व्यवस्था के प्रति भी असावधान रहे। वह भारतीयता के प्रति भी असावधान रहे और देश की एकता और अखंडता को तार-तार करने वाली शक्तियों के प्रति भी असावधान रहे।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान
शेख अब्दुल्ला की राष्ट्रविरोधी नीतियों के चलते राष्ट्रवादी नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ‘दो निशान, दो विधान, दो प्रधान’- की कश्मीरी व्यवस्था का विरोध करते हुए कश्मीर जाने का निर्णय लिया। जिस प्रकार मुसलमानों के शासनकाल में हमारे समाज के भीतर कई हिंदू नेता समय-समय पर उठ कर हिंदुओं की सुरक्षा के लिए आगे आते रहे थे और हिंदू समाज उनका साथ देता रहा था उसी प्रकार डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ भी कश्मीर के हिंदू लोग खड़े हो गए। श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए पंडित बीरबल या उनके पूर्व के श्रीभट्ट जैसे हिंदू-हितैषी महापुरुषों की परंपरा के महापुरुषों के समान ही सम्मानित हो गए थे।
हमें इतिहास को तोड़ तोड़कर नहीं समझना चाहिए अर्थात यह भ्रान्ति नहीं पालनी चाहिए कि 1947 के बाद की कश्मीर और थी और उससे पहले कि कश्मीर कोई और थी। हमें घटनाओं को जोड़ जोड़कर देखना समझना चाहिए ।यदि इतिहास पढ़ने की इस शैली को हमने समझ लिया तो हम समझ जाएंगे कि 1947 से पहले भी जैसे कश्मीर में हिंदुओं के रक्षक के रूप में अलग-अलग समय पर नेता खड़े होते रहे थे, उसी परंपरा को 1947 के बाद डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने जीवित रखा। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर के इतिहास और कश्मीर की परिस्थितियों की उपज थे।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को बहुत ही गहरी चाल और षड्यंत्र के अंतर्गत कश्मीर की सीमा में प्रवेश करते समय कठुआ के पुलिस सुपरिटेंडेंट ने सीमा में प्रवेश नहीं करने दिया। डॉक्टर मुखर्जी ने उनके इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया तो उन्हें कश्मीर सुरक्षा विधान के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देश के लोगों के नाम अपना संदेश भेजा । उन्होंने कहा कि ‘मैं जम्मू कश्मीर में प्रवेश कर गया हूं, लेकिन एक कैदी की हैसियत से ।’ उनके इस संदेश ने पूरे देश में सनसनी फैला दी।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जिस साहस के साथ कश्मीर में प्रवेश किया था उससे कश्मीर के शेख अब्दुल्ला और नेहरू की मूर्खताओं का देश के लोगों को ज्ञान हुआ। उन्हें पता चला कि देश के भीतर ही एक देश खड़ा करने की किस प्रकार की घृणास्पद कोशिशें नेहरू और शेख करते रहे हैं ? उन्हें यह भी पता चला कि देश के भीतर ही एक देश की सीमा खड़ी कर दी गई है। जिसमें हमारा नेता भी प्रवेश करने से रोक दिया गया है, और उसे गिरफ्तार कर लिया गया है । इसका परिणाम यह हुआ कि चारों ओर से सत्याग्रहियों के जत्थे कश्मीर की ओर चल दिये और उन्होंने नेहरू शेख के द्वारा बनाई गई इस कृत्रिम दीवार को भूमिसात कर दिया।
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार करके श्रीनगर ले जाया गया था जहां वह नजरबंदी की अवस्था में गिरफ्तारी के 43 वें दिन अर्थात 23 जून की रात को बहुत ही संदिग्ध और रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत घोषित कर दिए गए।
माँ ने लिखा था नेहरू के लिए पत्र
जवाहरलाल नेहरू और शेख की जोड़ी ने डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जो कुछ भी किया उससे सारा देश आहत हुआ। देश के राष्ट्रवादियों को बहुत गहरा सदमा लगा । चारों ओर शोक की लहर दौड़ गई थी। नेहरू और शेख के प्रति लोगों में अप्रत्याशित आक्रोश था। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मां ने नेहरू के लिए एक पत्र लिखा था। उस पत्र में उनकी मां ने कहा था कि :-“…..मैं जानती हूं कि उसे वापस नहीं लाया जा सकता, किंतु मैं चाहती हूं कि भारत की जनता इस दुर्घटना के कारणों को जाने और स्वयं इस बात को पहचाने कि इस स्वतंत्र देश में इस दुर्घटना के पीछे इन कारणों में कौन सा हिस्सा तुम्हारी सरकार ने पूरा किया ? …”
इस पत्र का उत्तर देते हुए नेहरू ने कहा था :-…. ‘मैंने उन लोगों से पूछताछ की है जो वास्तविकता को जानते हैं। मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि मैं इसी सच्चे और स्पष्ट निर्णय पर हूं कि इस घटना में कोई रहस्य नहीं।”
इस पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माताजी श्रीमती योगमाया देवी ने फिर लिखा :- ”मैं तुम्हारी सफाई नहीं चाहती, जांच चाहती हूं। तुम्हारी दलीलें थोथी हैं और तुम सत्य का सामना करने से डरते हो। याद रखो तुम्हें जनता और ईश्वर के सामने जवाब देना होगा। मैं मेरे पुत्र की हत्या के लिए कश्मीर सरकार को ही जिम्मेदार समझती हूं और उस पर आरोप लगाती हूं कि उसने ही मेरे पुत्र की जान ली है। मैं तुम्हारी सरकार पर भी यह आरोप लगाती हूं कि मामले को छिपाने और उसमें सांठगांठ करने का यत्न किया गया।”
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या के पश्चात नेहरू भीतर से हिल गए थे। जनता जनार्दन ने जिस प्रकार नेहरू के विरोध में आकर आवाज बुलंद की थी उसकी नेहरू ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। क्योंकि उससे पहले नेहरू एक स्वेच्छाचारी शासक जैसा आचरण कर रहे थे। उन्हें नहीं लगता था कि उन्हें रोकने वाला कोई है। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान ने उन्हें रोक दिया। उन्हें लगा कि एक जीवित व्यक्ति चाहे उसके लिए चुनौती बना या ना बना पर उसकी मृत्यु अवश्य ही उसके लिए डरावनी चुनौती बन चुकी थी। उन्होंने आंदोलन को स्थगित करने की अपील की। प्रेमनाथ डोगरा ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान के 13 दिन पश्चात आंदोलन को स्थगित कर दिया। नेहरू सब कुछ समझ गए थे। इसलिए उन्हें अपने मित्र शेख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त कर उसे गिरफ्तार करना पड़ा। प्रजा परिषद के लोगों से नेहरू ने बातचीत भी की । अभी तक वह जिस प्रकार से अब्दुल्लाह पर अंधविश्वास करते रहे थे, उसके लिए उन्होंने खेद भी व्यक्त किया। कश्मीर की संविधान सभा ने एक प्रस्ताव भारत और कश्मीर को भारत में विलीन करने की घोषणा की। 14 मई 1954 को भारत के राष्ट्रपति ने एक विशेष आज्ञा निकालकर कश्मीर संविधान सभा के उस प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगाई।
नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके बख्शी गुलाम मुहम्मद को कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया । उस समय शेख अब्दुल्लाह के समर्थकों ने कश्मीर में दंगों की आग लगा दी थी। जिसे बख्शी गुलाम मुहम्मद ने अपनी दृढ़ता के साथ नियंत्रित कर लिया था। बख्शी ने शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी को भी उचित बताया था। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि देश के हितों के साथ विश्वासघात होने वाला था। शेख अब्दुल्लाह की मुकम्मल आजादी का नारा बड़ा खतरनाक था। एक साम्राज्यवादी शक्ति के अंतर्गत स्वतंत्र कश्मीर भारत तथा पाकिस्तान दोनों की जनता के लिए गंभीर खतरा होगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत