हितेश शंकर
भाजपा ने नुपूर शर्मा का निलंबन और नवीन जिंदल का निष्कासन कर ठीक नहीं किया। दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय की ओर से अतिरेकी टिप्पणियां थीं। भाजपा द्वारा कार्रवाई के बाद इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया, यह नहीं मानना चाहिए। यहां हमें देखना चाहिए कि राजनीति तो अपने तरीके से काम करती है मगर सामाजिक विमर्श कई बार छोटी-सी घटना से नई दिशा लेते हैं।
हाल में मुसलमानों के नबी पर भाजपा प्रवक्ता नुपूर शर्मा की टिप्पणी के बाद बखेड़ा खड़ा हो गया। हमें इस विवाद को कई दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। मोटे तौर पर सोशल मीडिया पर देखें तो आपको भाजपा की लानत-मलामत करने वाले लोग मिल जाएंगे जिन्हें लगता है कि इस विवाद के बाद भाजपा ने नुपूर शर्मा का निलंबन और नवीन जिंदल का निष्कासन कर ठीक नहीं किया। दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय की ओर से अतिरेकी टिप्पणियां थीं। भाजपा द्वारा कार्रवाई के बाद इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया, यह नहीं मानना चाहिए। यहां हमें देखना चाहिए कि राजनीति तो अपने तरीके से काम करती है मगर सामाजिक विमर्श कई बार छोटी-सी घटना से नई दिशा लेते हैं।
मुसलमानों का भरोसा किस पर
देखने वाली बात यह है कि मुसलमान क्या वास्तव में अपने नबी के बारे में बहुत ज्यादा संवेदनशील हैं या इस्लाम के अलंबरदार इस मुद्दे को अपनी लामबंदी, शक्ति प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल करते है? यह प्रश्न उठना इसलिए लाजिमी है क्योंकि भाजपा प्रवक्ता की बात के आधार पर संवेदनाओं का आहत होना इस दृष्टि से भी तर्कपूर्ण नहीं लगता कि आपको इसी इंटरनेट पर नबी के बारे में, कुरान के बारे में, हदीसों के बारे में तमाम ऐसी जानकारी मिल जाएगी और उसे मुस्लिम समुदाय के लोग भी साझा करते हुए मिल जाएंगे जिसे किसी और द्वारा उद्घृत करने पर वे फट पड़ते हैं।
एक पक्ष यह है कि नुपूर शर्मा जो कह रही थीं, उनके शब्द, लहजे वगैरह पर निश्चित ही मुस्लिम समाज आपत्ति दर्ज कर सकता है। परंतु यह तकनीक का दौर है और ऐसे में तुलनाओं के लिए टीवी चैनलों के मैदान में ताल ठोकते ही ऐसी हजार दबी-ढकी चीजें खुलकर सामने आएंगी जिन पर बात करने से आप सदियों कतराते रहे। यह दौर लोगों को धौंसपट्टी में लेने वाला दौर नहीं है। तकनीक हर तथ्य को बेपरदा करने का दम रखती है। यह आज का सच है और सब पर समान रूप से लागू होता है।
तीसरी बात यह है कि किसी भी मत, मजहब, पंथ, धर्म के बारे में अशालीन बात करना गलत है परंतु नुपूर-नवीन प्रकरण के संबंध में देखें तो इस मामले को जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर तक गरमाया, वे सीधे-सीधे मर्यादा लांघ गए। वे उस हद तक चले गए, जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। नुपूर के शब्द और इनके शब्दों की तुलना करें तो साफ पता चल जाएगा। इसमें मौलाना नदीम मुफ्ती, सबा नकवी और अन्य की बुद्धिजीविता का स्तर देखकर एक तीसरा प्रश्न आया जो अलग ही खतरे की ओर इंगित करता है।
उन्मादियों के हाथ रहनुमाई?
यह प्रश्न है कि मुस्लिम जमात की ठेकेदारी कहीं उन्मादियों के हाथ में तो नहीं चली गयी है। क्या सिविल सोसाइटी जैसी चीज इस्लाम के भीतर बची है जहां पर बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश हो?
यह प्रश्न करना इसलिए जरूरी हो जाता है कि जब टीवी पर बहस होती है, तब मुसलमान तैयार होकर वहां तक जाते हैं। बहस में जाने वाले हर पक्ष को पता होना चाहिए कि बहस में तर्क भी रखे जाते हैं, तथ्य भी रखे जाते हैं, परतें भी उघड़ती है। तकनीक का आगे बढ़ी है। मुस्लिम समाज को बदलते वक्त के साथ कदमताल करना भी है। किंतु क्या इस्लाम इतना परिपक्व हो पाया है कि वह सामाजिक विमर्श में अपनी जगह बना पाए?
अभी हम सोशल मीडिया विमर्श में देख रहे हैं कि जब इस्लाम के बारे में सवाल किए जाते हैं तो लोग कुरान और हदीसों से ही तथ्य सामने रखते हैं। इस समय एक बहुत बड़ा इस्लाम छोड़ो आंदोलन या ‘एक्स मुस्लिम मूवमेंट’ चल रहा है। यह भी उस उन्मादी जमात की कुंठा की वजह है जो इस्लाम के झंडाबरदार बनकर इस दौर में भी सारी चीजें अपनी मुट्ठी में ही रखना चाहते हैं। इस बहस के बाद यह मुद्दा भी उठेगा कि इस्लाम आगे की यात्रा सामाजिक विमर्शों के माध्यम से कर सकेगा या उम्मत के जोर पर समाज और देशों की बांह मरोड़ने की कुचेष्टा में अपने लिए और कड़वाहट और दिक्कतें पैदा कर बैठेगा।
यह प्रश्न इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि अगर शक्ति प्रदर्शन होता है तो उम्मत के जरिए, इस्लामी देशों के संगठनों के जरिए किसी देश की प्रभुसत्ता को हांकने का काम नहीं चल सकता और भारत के मामले में तो हरगिज नहीं चल पाएगा। अगर किसी को लगता है कि बाहरी देशों के जरिए ये दबाव बना लेंगे तो वे गलतफहमी में हैं। भारत ने एक बार नहीं 36 बार बताया है। जो न रूस के सामने झुक रहा, न अमेरिका के सामने, वह किसी इस्लामिक देश के सामने झुक सकता है, ऐसा लेशमात्र विचार भी जिनके मन में है, उन्हें आगे चलकर ठोकर लगनी ही है।
प्रश्न इस्लामिक देशों के लिए इसलिए भी है कि उम्मत की ताकत एक छलावा है जिसमें वो दुनिया को मुब्तिला रखना चाहते हैं और खुद भी गाफिल हैं। जरा देखिए, तुर्की और सऊदी अरब, ईरान और इराक, शिया और सुन्नी, पाकिस्तान में अहमदिया, ईरान में हाजरा – ये इतने रिसते हुए जख्म हैं जिससे इस्लाम खुद लहुलुहान है। अगर ये उम्मत है तो कथित ‘भाई’ एक-दूसरे के लिए अपने-अपने छुरे क्यों तेज करे बैठे हैं?
भाजपा का दूरदर्शी निर्णय
फिर बात आती है कि क्या भाजपा दबाव में थी? इसे आप कई तरीके से देख सकते हैं। आपको प्रथम दृष्टया यह लगेगा कि पार्टी ने दबाव में अपना नुकसान कर दिया है। परंतु जब आप इसका राजनीतिक आकलन करेंगे और इसकी तह में जाएंगे तो लगेगा कि ऐसा नहीं है। ये मौका था जिस पर भाजपा ने गजब की तेजी और शांतचित्तता के साथ मौके की परख का परिचय दिया है। विरोधी जिन नेताओं पर कार्रवाई से पार्टी को चोट लगने की बात कह रहे हैं, वे नुपूर और नवीन इसी पार्टी के नेता हैं जिनके साथ समाज खड़ा दिख रहा है। पार्टी के नेता बड़े हो रहे हैं तो पार्टी को चोट नहीं लगी है और खासकर तब, जब वे नेता पूरी तरह से पार्टी के साथ हैं, छिटके नहीं हैं, मनोमालिन्य नहीं हैं। जानकार मानते हैं कि इस घटनाक्रम में तथ्य और तुलना की बात करते नेता लोकप्रियता के ऐसे कई पड़ाव पार कर गए हैं जिसे पार करने में शायद उन्हें दशकों लग जाते। देखने वाली बात यह है किस मुद्दे पर जनता की सहानुभूति आखिर मिली किसे है?
जिहादी जमात के तौर पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उम्मत के भरोसे राष्ट्रीय प्रभुसत्ताओं को ढकेलना चाहते हैं? अगर वे ऐसा चाहते हैं, तो उनका यह खेल चलने वाला नहीं है। एक सभ्य समाज में विमर्श की गुंजाइश हमेशा रहती है। यदि हम सभ्य समाज में आगे बढ़ना चाहते हैं तो इस्लाम को भी विमर्श की गुंजाइश पैदा करनी होगी।
दूसरा, जनता में रोष है, मगर भाजपा के प्रति जनता के जुड़ाव को देखें तो ये पार्टी हमेशा जनता के आक्रोश को समझती, बूझती और उनकी इच्छाओं को पोसते हुए ही आगे बढ़ी है। यह पहली बार नहीं है जब लोगों ने पार्टी के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगाया। याद कीजिए, जब कश्मीर में भाजपा ने पीडीपी के साथ गठबंधन किया था, तब लोगों ने कैसे ताने, उलाहने दिए थे। लोगों ने पूछा कि क्या यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी है? क्या यह बलराज मधोक की पार्टी है? क्या यह वही पार्टी है जो कश्मीर पर एक ‘मिशन’ को लेकर चली थी? इन तानों में जो कड़वाहट थी, पार्टी ने वो कड़वाहट भी पी, सबक भी सीखे और अनुच्छेद 370 का कांटा निकालकर जनता की दशकों पुरानी अपेक्षाओं को पूरा भी किया।
तो ऐसा नहीं है कि समाज में सबका साथ, सबका विकास की बात करने वाली और ठोस वैचारिक आधार वाली पार्टी इस मुद्दे पर विचलित हो गई होगी। उसके लक्ष्य दीर्घकालिक हैं और निश्चित ही उसमें विभाजनकारी एजेंडे को परास्त करने की इच्छाशक्ति भी है। परंतु पार्टी का तरीका ‘करना ज्यादा और ढोल कम बजाना’ वाला है।
मुस्लिम समुदाय के लिए सबक
भारतीय मुसलमानों के लिए इस प्रकरण में सीखने वाली बात क्या है? भारतीय मुसलमानों को यह समझना होगा कि सभी की आस्थाएं महत्वपूर्ण हैं। परंतु अगर आप दूसरे के लिए गुंजाइश नहीं रखेंगे तो आपके लिए भी गुंजाइश कम होती जाएगी। दरअसल, भारतीय समाज में कटुता का नवीनतम उभार जाकिर नाइक के व्याख्यानों से शुरू होता है। जाकिर नाइक ने 20 वर्ष पहले व्याख्यान देना शुरू किया था। सबसे पहले सार्वजनिक कार्यक्रमों में दो पंथों की तुलना करना और दूसरे को, हिन्दुओं को लांछित करने का काम जाकिर नाइक जैसे लोग कर रहे थे जिससे समाज धीरे-धीरे उबलना शुरू हुआ। बांग्लादेश में आतंकियों की प्रेरणा जाकिर नाइक है। जुलाई 2016 में ढाका के होली आर्टिसन बेकरी कैफे पर हुए आतंकी हमले में शामिल दो आतंकी उससे प्रेरित थे। यानी जाकिर एक तरफ हिन्दुओं को लांछित कर रहे थे,
समाज को उकसा रहे थे, दूसरी तरफ उन्मादियों के मन में जहर भरने का काम कर रहे थे और आतंकियों की प्रेरणा बने हुए थे। जाकिर जैसे उन्मादियों और उनके पिछलग्गू जमातियों ने मस्जिदों के मिम्बरों पर चाहे जितने कब्जे किए हों किंतु समाज में इस्लाम की क्या छवि बनाई है! मुसलमानों को सोचना होगा कि क्या इन तत्वों ने पूरी बिरादरी के साथ, उसकी छवि के साथ न्याय किया है? क्योंकि आज जाकिर नाइक जैसे भगोड़े, इस्लाम के लिए बारूदी सामाजिक स्थितियां बना गए हैं।
गौर कीजिए, ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग को ड्रिल करने की कोशिश से पहले देश के कई राज्यों में रामनवमी जुलूसों पर हमला हुआ। मंदिरों पर हमले की घटनाएं लगातार सामने आई थीं। बीते साल दुर्गा पूजा के दौरान और इस मार्च में बांग्लादेश के ढाका में इस्कॉन मंदिर पर हमला हुआ। बीते समय में गोरखपुर में गोरक्षनाथ पीठ पर हमला हुआ। जम्मू एवं कश्मीर में लक्ष्मी नारायण मंदिर, नाग वासुकी मंदिर पर हमला हुआ। पाकिस्तान के कराची, लाहौर में लगातार हिंदू मंदिरों पर हमले की खबरें आई हैं।
इन घटनाओं से लगता है कि सामाजिक संवेदनशीलता का ग्राफ मुस्लिम समाज में बड़ी तेजी से गिरा है और इस्लाम के बारे में बारीक से बारीक जानकारी सार्वजनिक मीडिया पर बड़ी तेजी से छन कर आ रही है। लोगों में विमर्श बढ़ रहा है। लोग तथ्य रखने लगे हैं। इसलिए इन चीजों को बड़े आराम से संभालने की जरूरत है। ऐसे में जो इस्लाम के अलंबरदार हैं, उन्हें फैसला करना होगा कि वे एक राजनीतिक तौर पर बढ़ना चाह रहे हैं, जिहादी जमात के तौर पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उम्मत के भरोसे राष्ट्रीय प्रभुसत्ताओं को ढकेलना चाहते हैं? अगर वे ऐसा चाहते हैं, तो उनका यह खेल चलने वाला नहीं है। एक सभ्य समाज में विमर्श की गुंजाइश हमेशा रहती है। यदि हम सभ्य समाज में आगे बढ़ना चाहते हैं तो इस्लाम को भी विमर्श की गुंजाइश पैदा करनी होगी।