तुगलक वंश के अंतिम क्षणों तक सल्तनत को मिली हिंदू-चुनौती
हम भारतीयों के दुर्भाग्य का सबसे दु:खद पहलू यह है कि हमारे देश का प्रचलित इतिहास इस देश की माटी से हमें नही जोड़ता। विदेशी इतिहासकारों ने इस पावन देश की पावन माटी से किसका संबंध है, यह प्रश्न भी उलझा दिया है-ये कह कर कि यहां जो भी लोग रहते हैं वे सभी विदेशी हैं। प्रश्न को इस प्रकार उलझा देने से विदेशी षडय़ंत्रकारियों को एक लाभ अवश्य हुआ कि उनकी शिक्षा-पद्घति (अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली) के अनुसार शिक्षित हुआ भारतीय व्यक्ति अपने विषय में ही आत्महीनता से ग्रसित हो गया। जबकि सच यह है कि भारत हिंदू (आर्य) का देश है। भारत हिंदू की शरणस्थली है।
भारत की प्राचीनता का वर्णन वायु पुराण में है
हमें वायु पुराण से ज्ञात होता है कि स्वायम्भुव मनु के अधीन यह पृथ्वी समुद्र से (एटलांटिक सागर) समुद्र (पैसिफिक) तक बसी हुई थी। जिसे हम जम्बू द्वीप के नाम से पुकारा करते हैं (किसी शुभ कार्य के अवसर पर यज्ञादि कराते समय पंडित लोग जिस संकल्प मंत्र का उच्चारण करते हैं, उसमें ‘जम्बूद्वीपे’ शब्द आता है) वह यूरेशिया (यूरोप-एशिया) के लिए प्रयुक्त किया गया है।
गुरूदत्त जी अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ के पृष्ठ 120-121 पर हमें बताते हैं कि उस समय स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भूखण्ड (जम्बूद्वीप) को बसाया हुआ था।….प्रियव्रत की एक कन्या थी। उस कन्या के दस पुत्र थे। जिनके नाम थे-अग्नीन्ध्र, वपुष्मान, मेधा, मेधातिथि, विभु, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, हव्य, सवन और सर्व। इनमें से सात को सात द्वीपों के राजा (धर्म स्थापित करने वाले) नियुक्त कर दिया था। इन सात द्वीपों में से अग्नीन्ध्र को, जो प्रियव्रत का दायाद (कन्या का गोद लिया हुआ पुत्र) था, उसे जम्बूद्वीप का धर्म शासक बना दिया। उसके भी कई संतानें हुई परंतु जो सबसे बड़ा था उसका नाम नाभि था।
भारत बसाने वाला भरत कौन था?
नाभि बहुत तेजस्वी था। इसने मेरू देवी से पुत्र उत्पन्न किया। उसका नाम ऋषभ था। वह एक श्रेष्ठ राजा माना जाता था। ऋषभ का पुत्र भरत हुआ जो अपने पिता का सबसे बड़ा पुत्र था। पिता ने भरत को हिमवान (हिमालय) पर्वत से दक्षिण का वर्ष (क्षेत्र) दे दिया। भरत ने भी अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर स्वयं संन्यास ले लिया। जो देश भरत ने अपने पुत्र को दिया, वह भारतवर्ष कहलाया।’’
यह भारतवर्ष-भरत का क्षेत्र-‘भरत खण्डे’ है
यह घटना इतनी प्राचीन है कि वर्तमान विश्व के इतिहास ने अभी उस काल की कल्पना तक नही की है या उसे कल्पना जानबूझकर करने नही दी गयी है। सारे विश्व पर जब हमारा धर्म का शासन (राजा का अर्थ भी धर्म-नैतिक और मानवीय नियमों का व्यवस्थापक ही होता है) स्थापित था तो संपूर्ण भूमंडल पर आर्यों का ही वास था और आर्यों का ही राज था। इसलिए किसी देश से आकर यहां बसने का कोई प्रश्न ही नही है, ना ही कोई यहां (संपूर्ण भूमंडल को यदि आर्यावत्र्त माना जाए तो) बाहर गया। पूर्ण में से पूर्ण निकालने से भी पूर्ण पूर्ण ही रहता है, इसलिए देश में से देश में ही देश बस जाने से (संपूर्ण भूमंडल जब एक देश था) कोई बाहर-भीतर कैसे आ जा सकता है?
हमें सनातन से अवगत नही कराया गया
इस सनातन देश को सनातन सत्य से अवगत नही कराया गया। इसीलिए इसकी पृथ्वी को माता मानने, गंगा को माता मानने, गाय को माता मानने और वनस्पतियों में पीपल, तुलसी आदि को उनके दिव्य औषधीय गुणों के कारण पूजने (अधिक सम्मान देने जैसी मान्यताओं का उपहास उड़ाया गया और इस सर्वाधिक वैज्ञानिक देश को अंध विश्वासी, पाखण्डी और अज्ञानी लोगों का देश बना दिया गया, ऐसा प्रचारित किया गया)
हिन्दुओं की वीरता भी उपहास का पात्र बना दी गयी
इसी प्रकार ंिहंदुओं की वीरता भी उपहास का पात्र बना दी गयी, जो हिंदू वीर अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते मरते और कटते रहे, स्वाभाविक रूप से उनकी वीरता और स्वतंत्रता की भावना का सम्मान होना अपेक्षित था, परंतु ऐसा ना करके उन्हें संसार का निरीह प्राणी दिखाया गया। उनके विषय में इस प्रकार तथ्य स्थापित किया गया कि मानो उनसे अधिक अज्ञानी और मूर्ख जाति उस भूमंडल पर और कोई नही है। उनका मूल्य गाजर मूली से भी सस्ता हो गया। इसलिए उनके बलिदानों का कोई मूल्य नही समझा गया।
तैमूर ने भी यही किया
तैमूर आया और इस निरीह प्राणी को काटकर चला गया। मानो उसने पृथ्वी की संतान मानव जाति पर बहुत बड़ा उपकार लाखों हिंदुओं को समाप्त करके कर दिया था। हिंदुओं के प्रतिरोध को कहीं भी उल्लेखित कर यह स्पष्ट नही किया गया कि हिंदू ने विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सनातन वैदिक संस्कृति की रक्षार्थ और ‘जम्बूद्वीप व भरतखण्ड’ की वैदिक परंपराओं और वैदिक धर्म की सुरक्षार्थ कितनी वीरता का परिचय देकर अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया था?
एक लाभ यह हुआ
भारत पर तैमूर लंग के आक्रमण से एक लाभ भी हुआ। यह सर्वमान्य सत्य है कि भारत में जिस समय तैमूर एक आक्रांता के रूप में आया था तो यहां उसने हिंदू को लूटा और मुस्लिम सल्तनत को और भी अधिक दुर्बल बना दिया। यह भी सत्य है कि तैमूर का प्रतिरोध जितना हिंदू ने किया उतना कोई भी मुस्लिम शासक नही कर पाया, यद्यपि उसने मुस्लिम शासकों को (मुस्लिम नागरिकों को नही) भी अपने आक्रमण और हिंसा का लक्ष्य बनाया था। इससे भारत में मुस्लिम शासकों की शक्ति का पतन हुआ और इस्लाम का ब्रदरहुड-बिरादरीवाद-भ्रातृत्व का भी सच सबको पता चल गया। इतिहासकारों का मानना है कि तैमूर ने भारत में हिंदुओं के विनाश के लिए कोई विशेष कार्य नही किया। अपितु तत्कालीन परिस्थितियों में उसने भारत पर आक्रमण कर उत्तरी भारत की मुस्लिम सल्तनत को ही दुर्बल बनाने का काम किया, जो हिंदू राज्यों के लिए एक वरदान सिद्घ हुआ। तुगलक सुल्तानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाकर हिंदू राज्यों की स्वतंत्रता का जो बीज प्रस्फुटित हुआ था, तैमूर ने अपने आक्रमण से अनजाने में ही उसे पल्लवित, पोषित और पुष्पित हो जाने का स्वर्णिम अवसर उपलब्ध करा दिया।
(संदर्भ : सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध पृष्ठ 346)
बुझते दीपक की लौ बढ़ गयी
तैमूर लंग के आक्रमण के समय दिल्ली का तुगलक वंश अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। उसका इतना भी साहस नही रह गया था कि तैमूर या उसके सैनिकों से चूं भी कह सकता। दिल्ली का सुल्तान नासिरूद्दीन नुसरत शाह दिल्ली के सत्ता षडय़ंत्रों और इकबाल खां के विश्वास घात के कारण दिल्ली को ही छोडक़र दोआब की ओर भाग गया था। दिल्ली वीरान हुई पड़ी थी, हिंदू विहीन दिल्ली पर किसी मुस्लिम का भी अधिकार करने का साहस नही हो रहा था। तैमूर के चले जाने के पश्चात नासिरूद्दीन नुसरत शाह किसी प्रकार पुन: दिल्ली पर अपना अधिकार स्थापित करने में सफल हो गया। यद्यपि सुल्तान के लिए संकट अभी टला नही था उसे ज्ञात था कि बुलंदशहर (तत्कालीन वरन) में निवास कर रहा इकबाल खां उसके लिए कोई भी संकट खड़ा कर सकता है। इसलिए सुल्तान ने इकबाल खां को समाप्त करने के लिए शिहाब खां को बरन भेजा।
वास्तव में नासिरूद्दीन नुसरत शाह जैसे नाममात्र के सुल्तान के द्वारा दिल्ली पर पुन: अधिकार कर लेना शमशान पर अधिकार करने के समान था। इससे थोड़ी देर के लिए तुगलक वंश के बुझते हुए दीपक की लौ अवश्य ऊंची हो गयी, पर यह इतना प्रकाश उत्कीर्ण नही कर पाया कि फिर से अपने साम्राज्य को अपनी दृष्टि से एक पल के लिए देख सके।
बुलंदशहर के हिंदुओं ने मिटा दिया था शिहाब को
समकालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि जब शिहाब खां इकबाल खां को समाप्त करने के लिए बरन की ओर जा रहा था, तो मार्ग में हिंदुओं ने एक रात्रि में उस पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी और जो सेना इकबाल खां को मिटाने के लिए चली थी वह भी हिंदू वीरों की भेंट चढ़ गयी। सुल्तान तो इकबाल खां को समाप्त कराना चाहता था, परंतु इसके विपरीत उसका शिहाब खां ही अपनी सेना सहित समाप्त हो गया।
क्षेत्रीय मुस्लिमों का असहयोग
बुलंदशहर के हिंदुओं का प्रतिरोध हमें बताता है कि हिंदू उस समय प्रत्येक मुस्लिम अधिकारी शासक से दुखी था और वह इसके लिए चाहे जो कोई मुस्लिम अधिकारी उसे मिले, उसे ही समाप्त करना अपना कत्र्तव्य और राष्ट्रधर्म मानता था। इसका एक तात्कालिक कारण यह भी हो सकता है कि तैमूर के आक्रमण और अत्याचारों के समय इस देश के प्रत्येक मुसलमान ने या तो तैमूर का समर्थन किया था, या उसके आक्रमण के प्रति मौन रहे थे, क्योंकि उनके लिए यह भूमि परायी थी और यह देश भी पराया था, इसलिए यहां के निवासियों पर भी यदि किसी प्रकार का अत्याचार हो रहा था तो मुस्लिम ने यहां का निवासी होने के उपरांत भी अपने हिंदू भाईयों की सुरक्षा या उनका सहयोग करना उचित नही माना था। अत: बुलंदशहर के हिंदू वीरों की दृष्टि में शाहिब खां केवल एक मुस्लिम अधिकारी था, जिसे नष्ट करना ही उनके लिए उचित था।
राय हरसिंह पर आक्रमण
1401 ई. में इस इकबाल खां ने पुन: दिल्ली पर आक्रमण किया और वहां से सुल्तान नासिरूद्दीन मेवात की ओर भाग गया। इकबाल खां दिल्ली पर शासन करने लगा। इकबाल खां एक दुर्बल शासक था, जो नवस्थापित हिंदू राज्यों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में असफल रहा था। उसने कटेहर के हिंदू शासक राय हरसिंह पर आक्रमण किया और उसे परास्त कर अपने अधीन लाना चाहा। हरसिंह ने शत्रु का सामना करने के स्थान पर उस समय उससे समझौता कर लिया, परंतु उसके पश्चात उसने सुल्तान को कर देना बंद कर दिया, जिसके कारण सुल्तान ने कटेहर पर पुन: आक्रमण किया। कटेहर राज्य पर किये गये आक्रमण की यह घटना नवंबर 1399 ई. की है।
राय सुमेरसिंह ने किया संघर्ष
इटावा के राय सुमेरसिंह की वीरता और स्वतंत्रता प्रेमी भावना का उल्लेख हम पूर्व में भी कर चुके हैं। राय सुमेरसिंह अपने साथ जमींदारों की एक अच्छी शक्ति रखता था। हिंदू जमींदारों पर उसकी देशभक्ति और स्वतंत्रता प्रेमी भावना का प्रभाव भी अच्छा था, इसलिए जब-जब राय सुमेरसिंह को इन जमींदारों की आवश्यकता पड़ती थी-ये अपने सैन्य-बल सहित राय के साथ आ खड़े होते थे।
दिसंबर जनवरी (‘तारीखे फरिश्ता’ के अनुसार) 1400-1401 ई. में सुल्तान ने जौनपुर की ओर प्रस्थान किया। इस प्रस्थान की सूचना पाते ही राय सुमेर सिंह के कान खड़े हो गये और उसने मुस्लिम सेना से टक्कर लेने का निर्णय लिया। इकबाल की सेना जब काली नदी के तट पर पटियाली के समीप पहुंची तो इटावा के इस शेर नेे अपने कई जमींदार साथियों और उनके रणबांकुरों के साथ मिलकर सुल्तान की सेना पर आक्रमण कर दिया। सेना का मार्ग रोककर उससे युद्घ किया गया। पहले दिन का युद्घ अनिर्णीत रहा तो दूसरे दिन पुन: युद्घ आरंभ हुआ। हिंदुओं की सेना ने पर्याप्त शौर्य का प्रदर्शन किया, परंतु परास्त हो गयी। ‘तारीखे फरिश्ता’ के अनुसार इकबाल खां ने हिंदू सेना का पीछा इटावा के किले तक किया और इन हिंदुओं की निर्मम हत्या कर दी। जबकि अनेकों को बंदी बना लिया गया।
नही जीत पाया इकबाल
हिंदू सेना हार गयी परंतु जीता इकबाल खां भी नही क्योंकि उसने पराजित हिंदू सेना का पीछा किले तक किया, लेकिन किले पर अधिकार नही कर सका और कन्नौज की ओर चला गया। हिंदुओं ने प्रतिरोध किया, बलिदान दिये और पुन: अपने किले में आकर अपनी अगली योजना के लिए शक्ति संचय के कार्य में लग गये। तात्कालिक उद्देश्य मुस्लिम शक्ति को दुर्बल करना था, जिसमें हिंदू वीर सफल भी रहे।
ढुलमुल प्रतिबद्घता को हिंदू ने माना
हिंदू दीर्घकाल से उन लोगों पर विश्वास करना अपने लिए घातक मानता आया है, जिनकी प्रतिबद्घता ढुलमुल या तदर्थवादी रही। यह वर्तमान इतिहास की एक भयानक विसंगति है कि यह हमें ढुलमुल या तदर्थवादी प्रतिबद्घताओं के प्रति भी समर्पित रहने के लिए प्रेरित करता है, विवश और बाध्य करता है। जबकि हमारे मध्यकालीन इतिहास के स्वतंत्रता सैनानियों का दृष्टिकोण शुद्घ हिंदुत्व निष्ठ था और उन्होंने ढुलमुल या तदर्थवादी प्रतिबद्घता को कभी अपनी ओर से विश्वास के योग्य नही माना।
हिन्दुओं के लिए था राष्ट्र प्रथम
यही कारण है कि हमारे हिंदू वीरों की सेना में कोई सैन्य टुकड़ी ऐसी नही मिलती जो मुस्लिम सैनिकों से बनी हो। जिनका धर्मांतरण हो गया, उनका मर्मांतरण होना हमारे स्वतंत्रता सैनानियों ने स्वयं मान लिया। यद्यपि कई बार मुस्लिम सैनिकों से (नव धर्मांतरित या किसी कारण सेे भी हिंदू सेना का सहयोग कर रहे मुस्लिम सैनिक) हमने धोखा भी खाया, परंतु यह क्रम पुन: पुन: नही दोहराया गया। हमने नव धर्मांतरित मुस्लिमों को कई बार सहयोग किया और उन्होंने हमें कई बार सहयोग भी दिया। परंतु ये सब बातें हमारे तत्कालीन हिंदू वीरों की रणनीति की मुख्यधारा नही कही जा सकतीं। उन्होंने प्रतिबद्घताओं को निर्विवाद परखकर ही उनका सम्मान किया। इससे स्पष्ट है कि उनके लिए राष्ट्र प्रथम था, राष्ट्र का धर्म प्रथम था। शेष बातें उसके पश्चात आती थीं।
ग्वालियर ने नही जाने दी अपनी स्वतंत्रता
ग्वालियर ने अभी शीघ्र ही अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की थी जिसे समाप्त करने के लिए शत्रु की गिद्घ दृष्टि उस पर लगी हुई थी। इकबाल खां ने ग्वालियर को पुन: दिल्ली सल्तनत के अधीन लाने के लिए 1402 ई. में प्रयास किया। वास्तव में अपने साम्राज्य की सिमटती सीमाओं से सुल्तान भी प्रसन्न नही था, इसलिए वह भी अपने साम्राज्य को पूर्व की स्थिति में लाने हेतु प्रयासरत था, इसलिए इकबाल खां ने ग्वालियर के मस्तक को झुकाने का प्रयास किया। ग्वालियर के तोमर नरेश बीरसिंह देव ने अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्घि कर ली थी, इसलिए उसे अधिक शक्ति संपन्न न बनने देना सुल्तान और दिल्ली के लिए आवश्यक था। इतिहासकारों ने ऐसी भी शंका व्यक्त की है कि 1401 ई. में इटावा पर किये गये इकबाल खां के आक्रमण के समय राय सुमेर सिंह और अन्य हिंदू जमींदारों की संभवत: तोमरों ने भी सहायता की थी, इसलिए प्रतिशोधात्मक कार्यवाही करते हुए इकबाल खां ने ग्वालियर पर आक्रमण किया था।
वीर राजा बीरमदेव
उस समय ग्वालियर का राजा बीरमदेव था। जो कि क्षत्रियोचित गुणों से संपन्न था। जब इकबाल खां ने इस राजा बीरमदेव के दुर्ग का घेरा डाला तो राजा के क्षत्रियोचित गुणों से इकबाल खां प्रभावित हुआ। घेरा चलता रहा, परंतु मुस्लिम सेना का साहस बीरमदेव के दुर्ग पर आक्रमण करने का नही हुआ। मुस्लिम लेखकों ने इकबाल खां और बीरमदेव के मध्य किसी प्रकार के युद्घ का उल्लेख नही किया है। ऐसी परिस्थितियों में सुल्तान की सेना को ग्वालियर से लौटने के लिए क्यों विवश होना पड़ा-यह विचारणीय है। निस्सन्देह मुस्लिम सेना ने अपनी शक्ति का अनुमान कर लिया होगा कि हम शत्रु का सामना करने की स्थिति में नही हैं।
ग्वालियर पर पुन: आक्रमण
ग्वालियर से लौटी सुल्तानी सेना ने अगले वर्ष ही पुन: इस शहर पर आक्रमण कर दिया। धौलपुर में इस बार दोनों सेनाओं का संघर्ष हुआ। बीरमदेव ने इस बार खुले मैदान में इकबाल खां की चुनौती को स्वीकार किया। संघर्ष जमकर हुआ। बीरमदेव और उसकी शेष सेना धौलपुर का दुर्ग छोडक़र ग्वालियर चली आयी। बीरमदेव ने धौलपुर छोड़ते समय वहां का दुर्ग दुर्गरक्षकों को सौंप दिया था और उन दुर्गरक्षकों ने किले में मुस्लिम सेना को प्रवेश करने से रोकने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार ग्वालियर हड़पने के इकबाल खां के दोनों बार के प्रयास असफल रहे। इकबाल खां ने 1403 ई. में दूसरी बार ग्वालियर पर आक्रमण किया था।
इकबाल खां के विरूद्घ एकजुट हुई हिंदू शक्ति
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इकबाल खां ने इटावा और ग्वालियर जैसे राज्यों पर आक्रमण करके उनसे शत्रुता बढ़ा ली थी। राय सुमेर सिंह और बीरमदेव उस समय हिंदू शक्ति का नेतृत्व कर रहे थे, इसलिए इन्होंने इकबाल खां के विरूद्घ हिंदू शक्ति का धु्रवीकरण करने का प्रयास किया। जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। कई रायों ने मिलकर 1404-05 में इटावा के सुमेर सिंह की सहायता उस समय की जब इकबाल खां ने इटावा पर पुन: आक्रमण कर दिया। इन रायों ने लगभग चार माह तक इकबाल खां की सेना के घेराव का प्रतिरोध इटावा के दुर्ग के भीतर से किया। अंत में दोनों पक्षों में संधि हो गयी। यहिया का कथन है कि राय ग्वालियर ने 4 हाथी देकर संधि कर ली थी। मात्र चार हाथी लेकर ही इकबाल खां दिल्ली चला आया यह बात संदेहास्पद है। संभावना यही है कि यह बात केवल आत्मतुष्टि के लिए मुस्लिम इतिहासकारों ने लिख दी है-अन्यथा इकबाल खां को पराजित होकर या अपमानित होकर ही दिल्ली लौटना पड़ा था।
हिंदू देते रहे चुनौती
इस इस प्रकार अपमान और पराजय को झेल रहे हिंदू समाज ने निरंतर तुगलक वंश के शासन काल के अंतिम क्षणों तक अपनी चुनौती को धारदार बनाये रखा। 1414 ई. में दिल्ली में नये राजवंश ‘सैयद वंश’ की स्थापना हो गयी। अगले अंक में हम इसी वंश के शासकों के शासन काल में हिंदू प्रतिरोध और उनके स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी को प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। क्रमश: