जब महाराजा हरि सिंह को अपमानित करके नेहरू और शेख अब्दुल्लाह ने उन्हें मुंबई निर्वासन पर भेज दिया तब अब्दुल्लाह ने भारत के संविधान में सबसे विवादित धारा 370 को स्थापित करने के लिए अपने मित्र नेहरू को तैयार किया। इस धारा को भारत के संविधान में स्थापित करवाकर शेख अब्दुल्लाह इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि अब कश्मीर का कभी भी और किसी भी दृष्टिकोण से इस्लामीकरण करने से कोई रोक नहीं पायेगा। इस व्यवस्था से वह यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहता था कि जो हिंदू अब से पहले यहां से भगा दिए गए हैं, अब उनका पुनर्वास कश्मीर में नहीं होगा, साथ ही जो हिंदू भविष्य में यहां से भगाए जा सकेंगे उनके लिए भी धारा 370 के माध्यम से भगाने का रास्ता खुल जाएगा और फिर उन्हें भी कश्मीर में लाकर पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकेगा।
शेख अब्दुल्लाह की तैयारी
शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को भारत से सदा-सदा के लिए काटने की तैयारी बड़ी सावधानी से की थी। अपनी इसी तैयारी के दृष्टिगत उसने अपने आपको भारत के प्रधानमंत्री की शक्तियों जैसा ही एक शासनाध्यक्ष बनाने का प्रबंध किया था। यही कारण था कि स्वतंत्र भारत में एक ही देश के भीतर एक साथ दो प्रधानमंत्री बने। एक जम्मू कश्मीर का था तो दूसरा शेष हिंदुस्तान का था। इसी प्रकार दो झंडे भी एक देश में एक साथ लहराने लगे। जहां जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस का झंडा इस राज्य के स्वतंत्र झंडा के रूप में लहराने लगा,वहीं शेष हिंदुस्तान का झंडा तिरंगा था। तीसरी बात यह थी कि अब भारत में एक साथ दो संविधान भी काम करने लगे, जम्मू कश्मीर ने अपना संविधान में अलग बनाया।
सचमुच यह स्थिति बड़ी भयानक थी। यदि शेख अब्दुल्लाह की मानसिकता को समझकर इस समस्या पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि पिछले लगभग 600 वर्ष से अधिक के कालखंड में जिन हिंदुओं ने कश्मीर को देश के साथ जोड़े रखने का अप्रतिम कार्य करते हुए अपना उत्कृष्ट बलिदान दिया था, उनके बलिदानों पर पानी फेरना उसका उद्देश्य था। इसके अतिरिक्त जिन मुस्लिम शासकों ने कश्मीर को इस्लामीकरण के रंग में रंगने का हर संभव प्रयास किया था, उन गद्दारों और देश के शत्रुओं के प्रयासों को महिमामंडित करना भी उसका उद्देश्य था।
तत्कालीन नेतृत्व की दुर्बलता
दुर्भाग्य की बात यह थी कि उस समय का दिल्ली का नेतृत्व आंख, कान और मुंह बंद किए बैठा था । दुर्भाग्यवश उस समय गांधी के बंदरों के हाथों में देश की बागडोर थी। जो देखकर भी कुछ देखना नहीं चाहते थे । सुनकर भी कुछ सुनना नहीं चाहते थे और बोलने की प्रबल आवश्यकता होते हुए भी बोलना नहीं चाहते थे। यह नया नेतृत्व एक न्यायाधीश की भांति मौन रहकर घटनाओं और परिस्थितियों को सुनने का प्रयास कर रहा था, पर सचमुच में न्यायाधीश नहीं था। वह एक दार्शनिक की भाँति घटनाओं और परिस्थितियों को देख रहा था और ऐसा प्रदर्शन कर रहा था कि उसके लिए हिंदू मुस्लिम बहुत छोटी चीज होकर रह गई थी, पर सच यह था कि यह नेतृत्व एक दार्शनिक भी नहीं था। वह संतुलित और बहुत ही मर्यादित होकर बोलने का प्रयास कर रहा था और ऐसा संकेत दे रहा था कि जैसे वह बहुत गंभीर नेतृत्व है ,पर सच यह था कि उसकी यह गंभीरता केवल एक वर्ग विशेष के प्रति ही सीमित थी।
नेहरू ने अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह को खुश करने के लिए हर वह सुविधा उपलब्ध कराई जो वह उन परिस्थितियों में प्राप्त करना चाहता था। उस समय मेहरचंद महाजन ने सरदार वल्लभभाई पटेल को लिखा था :–
“सच पूछा जाए तो शेख अब्दुल्लाह अब सभी प्रकार से महामान्य महाराजा कश्मीर की खुली अवज्ञा कर रहा है और अपनी बढ़ती हुई सांप्रदायिक मनोवृति का पूर्ण परिचय दे रहा है। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं आपके समक्ष शेख की प्रशासनिक क्षमता, दक्षता, सांप्रदायिक मनोवृत्तियों से संबंधित घटनाओं और महामान्य महाराजा कश्मीर की खुली अवज्ञा करने वाले उन सभी मामलों का विस्तृत विवरण पेश कर सकता हूं जो वह श्रीनगर के नेशनल गार्डस की सहायता से कर रहा है। उसने यह समझ रखा है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार जो चाहे सो कर सकता है। आपका प्रत्युत्तर प्राप्त होते ही मैं शेख के पूरी तरह भ्रष्ट शासन और फासिस्टवादी कुशासन के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण आपको लिपिबद्ध करके भेजूंगा।”
डॉ राकेश कुमार आर्य