,
क्या नियम-कानूनों से ऊपर है गांधी परिवार
ललित गर्ग
तथाकथित क्रांतिकारी विचारों का सैलाब कांग्रेस कार्यकर्त्ता एवं नेताओं में उमड़ा है पर जीने का ईनाम एवं पारदर्शिता गायब है। अपने मंचों से कांग्रेस नेताओं के प्रभावी वायदे जनता के हाथों में सपने, आदर्श थमाते रहे हैं पर जीवन का सच नहीं पकड़ा पाए।
यह विडम्बनापूर्ण घटनाक्रम है कि लगातार सत्ता का सुख भोगने एवं देश की सबसे बड़े राजनीतिक दल होने का अहंकार पालने के कारण कांग्रेस के चरित्र में जिस तरह का बदलाव देखने को मिल रहा है, कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं एवं नेताओं में ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण के स्थान पर गलत को सही ठहराने की जो होड़ मची है, अपने चरित्र पर लगे दागों को सही साबित करने के लिये जिस तरह के शक्ति-प्रदर्शन हो रहे हैं, वह राष्ट्र के लिये बड़े संकट का द्योतक है। बड़ा प्रश्न है कि प्रवर्तन निदेशालय की ओर से राहुल और सोनिया गांधी को पूछताछ के लिए तलब करने पर कांग्रेस में बौखलाहट क्यों देखने को मिल रही है?
विरोधाभासी रवैया है कांग्रेस का, उनके नेताओं और कार्यकर्त्ताओं का जो बेवजह मोदी सरकार पर निशाना साध रही है जबकि वह यह भूल रही है कि नेशनल हेराल्ड मामला अदालत में तब पहुंचा था जब संप्रग सरकार सत्ता में थी। भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस पार्टी के सर्वोच्च नेताओं पर लगे आरोपों का जबाव संवैधानिक तरीकों से दिया जाना चाहिए, न कि अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए आन्दोलनात्मक तरीकों से। देश में यह पहली बार देखने को मिल रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ तो अनेक आन्दोलन हुए है, लेकिन भ्रष्टाचार के पक्ष में यह पहला आन्दोलन है। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या हो सकती है?
राहुल गांधी इस देश के सांसद हैं, सर्वोच्च पार्टी के सर्वेसर्वा है। जब ईडी ने उन्हें तलब किया तो उन्हें ईडी अधिकारियों के सामने प्रस्तुत होकर अपना पक्ष रखना चाहिए। उसके बाद कानून अपना काम करेगा। भारत का कानून इतना मजबूत है कि यहां निर्दोष होने पर कभी दंडित नहीं किया जाता। कानूनी प्रक्रिया से जो तथ्य सामने आयेंगे, देश की जनता भी सत्य को जान सकेगी। यह वक्त कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं को अपने चरित्र पर लगे दागों को धोने एवं सत्य को प्रकट करने का अवसर है। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसने समय-समय पर संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह खड़े किये हैं और जिन्होंने लंबे समय तक देश पर राज किया, अब उनके ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं तो वो जांच एंजेसियों से डर क्यों रही हैं? क्यों संवैधानिक चुनौतियों से भाग रही है? आखिर वह क्या छिपाना चाहती हैं? जो खुद को सबसे पुराना राजनीतिक दल कहते हैं, क्या वो आज लोकतंत्र को बचाने का नहीं 2,000 करोड़ रुपए की गांधी परिवार की संपत्ति को बचाने का काम कर रहे हैं? ये सब अपने आप में प्रश्नचिन्ह खड़े करते है और लगता है कि दाल में कुछ काला है या फिर पूरी दाल ही काली है।
तथाकथित क्रांतिकारी विचारों का सैलाब कांग्रेस कार्यकर्त्ता एवं नेताओं में उमड़ा है पर जीने का ईनाम एवं पारदर्शिता गायब है। अपने मंचों से कांग्रेस नेताओं के प्रभावी वायदे जनता के हाथों में सपने, आदर्श थमाते रहे हैं पर जीवन का सच नहीं पकड़ा पाए। यह सर्वोच्च राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करते हुए सत्ता पर काबिज होती रही है, लेकिन सत्ता पर बैठते ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी रही है। सर्वोच्च राजनीति के गलियारों में भी स्वयं झूठी पड़ती रही हैं और परायों में दाग देखती रही हैं। वह झूठ को सच बनाने के दाव-पेंच खेलती रही है तो कभी झूठ का पर्दाफाश करने का साहसी नाटक रचती रही है। मगर चिंतनीय प्रश्न है कि क्या उसका यह बौद्धिक एवं राजनीतिक संघर्ष भारत के आदर्शों की साख और सुरक्षा रख सका?
नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गांधी के प्रवर्तन निदेशालय के समक्ष पेश होने के दौरान कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं ने जिस तरह दिल्ली के साथ देश के अन्य हिस्सों में सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर यह संदेश देने की कोशिश की कि उनके नेता को सताया जा रहा है, उनकों झूठे आरोपों में फंसाया जा रहा है, उससे कांग्रेस को शायद ही कुछ हासिल हो, बल्कि उनकी छवि पर संदेह एवं शंकाएं साबित होती हुई दिखाई दे रही है। लम्बे दौर से विवादों एवं संदेहों से घिरे इस मामले को लेकर उठे सवालों के जैसे जवाब कांग्रेस की ओर से दिए गए हैं, वे संतोषजनक नहीं है। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्ति वाली एसोसिएट जर्नल लिमिटेड को यंग इंडिया को बेचे जाने की प्रक्रिया उतनी न्यायसंगत नहीं जान पड़ती, जितनी कि कांग्रेस की ओर से बताई जा रही है।
आजादी की लड़ाई के दौरान अखबारों के प्रकाशन के लिए बनाई गई एसोसिएट जर्नल लिमिटेड में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूजी की भूमिका अवश्य थी, लेकिन उनका इस कंपनी पर मालिकाना हक नहीं था। इस कंपनी के शेयरधारकों में करीब पांच हजार स्वतंत्रता सेनानी शामिल थे। कांग्रेस की ओर से इस सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं दिया गया कि शेयरधारकों की अनुमति के बिना इस कंपनी का मालिकाना हक उस यंग इंडिया कंपनी को कैसे दे दिया गया, जिसमें 76 प्रतिशत हिस्सेदारी सोनिया और राहुल गांधी की है और शेष उनके करीबी नेताओं के पास। आखिर ईडी ऐसे ही संदेहों का खुलासा चाहती है, क्यों नहीं राहुल यंग इंडिया कंपनी और एसोसिएट जर्नल लिमिटेड के पार्टनरशिप पैटर्न, वित्तीय लेन-देन, प्रवर्तकों की भूमिका एवं धन के कथित हस्तांतरण के सवालों के जबाव देकर दूध का दूध पानी का पानी कर देते। कांग्रेस नेताओं को इस तथ्य को भी ओझल नहीं करना चाहिए कि इस मामले में राहुल और सोनिया गांधी जमानत पर चल रहे हैं। जो कांग्रेस नेता यह शोर मचा रहे हैं कि मोदी सरकार राहुल और सोनिया गांधी को परेशान करने के लिए केंद्रीय एजेंसी का बेजा इस्तेमाल कर रही है, उन्हें यह याद हो तो बेहतर कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट उन्हें राहत देने से इन्कार कर चुका है।
भारत के राष्ट्रचिन्ह में एक आदर्श वाक्य है- ‘सत्यमेव जयते।’ मगर सत्य की सीढ़ियों पर चढ़ते कांग्रेसी नेताओं के पैर कितने मजबूत हैं, उनमें कितना आत्मविश्वास है, उनमें कितनी पारदर्शिता एवं ईमानदारी है, इसे कौन नहीं जानता? विचारों एवं संकल्पों की अस्थिरता और अपरिपक्वता लोभ और स्वार्थ को जन्म देती है। राष्ट्र में आम नागरिक के ही नहीं, कर्णधारों के पैर भी असत्य की फिसलन भरी राह की ओर आसानी से बढ़ जाते हैं और तब हमारा यह आदर्श वाक्य मखौल बन जाता है। मखौल तब भी बन जाता है जब इसे कांग्रेसियों द्वारा भ्रष्टाचार एवं अपराधों को ढकने के लिये काम में लिया जाता है। इसलिए राजनीतिक विचारों एवं संकल्पों का विधायक बदलाव जरूरी है अन्यथा निर्माण की निर्णायक भूमिका प्रस्तुत हो नहीं सकती। बलात थोपे गये विचार और विवशता या भयवश स्वीकृत नियम-कानून फलदायी नहीं बन सकते। कानून सत्य का सबूत मांगें और गवाह झूठे लाये जायें तब निर्दोष को फांसी पर चढ़ने से कौन बचा सकता है? कैसे सत्य की प्रतिष्ठा हो सकेगी? कैसे राष्ट्रीय चरित्र बन सकेगा?
देश एवं जनता को दिशा दिखाने वाली कांग्रेस तो स्वयं भटकी है। यह भटकन ही है कि कांग्रेस नेताओं का प्रदर्शन खुलेआम देश की सर्वोच्च जांच एंजेन्सी पर दबाव डालने की रणनीति के तौर पर सामने आ रहा है। बड़ा स्पष्ट तथ्य है कि कांग्रेस पार्टी का नेशनल हेराल्ड मामला एक राजनीतिक मामला न होकर है, यह भ्रष्टाचार से जुड़ा एक कानूनी मामला है और ऐसे मामलों में धरना-प्रदर्शन की राजनीति काम नहीं करती। यदि सोनिया और राहुल गांधी को यह लगता है कि प्रवर्तन निदेशालय को उनसे किसी तरह की पूछताछ करने का अधिकार नहीं तो फिर उन्हें अपने नेताओं को सड़कों पर उतारने के बजाय अदालत जाना चाहिए था। यह कांग्रेस पार्टी का विचित्र एवं त्रासद घटनाक्रम है कि वह यह जताने की कोशिश कर रहे है कि वे नियम-कानूनों से ऊपर हैं।