डा. राधे श्याम द्विवेदी
गोधूलि शब्द का अर्थ है – गो + धूल = अर्थात गायों के पैरों से उठने वाली धूल। पुराने समय में जब गायें जंगल से चरकर वापस आती थीं तो पता चल जाता था कि शाम होने वाली है। इसलिए इस समय विशेष को गोधूलि बेला कहने लगे। अर्थात संध्या का समय। जब गोधूली शब्द चलन में आया होगा या फिर जब यह शब्द गढ़ा गया होगा उस समय हमारे देश में सबसे अधिक पालतु पशुओं की संख्या में गाय ही होती थी। गाय ही एक मात्र ऐसा पशु था जिसे सबसे अधिक पाला जाता था और पूजा भी जाता था। विभिन्न प्रकार के साहित्य, लोक साहित्य और लोकोक्तियों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार यह माना जाता है कि प्राचीन समय में या आज भी जब खास कर हमारे गांवों में या घरों में पाली जाने वाली गायें दिनभर खेतों, खलिहानों या वनों में विचरण करने के बाद वापस अपने बसेरे की ओर आते हैं वह काल गोधूलि कहलाती है। इसलिए गोधूली यानी गायों के झूंड के चलने पर उड़ने वाली धूल या धूल के कणों के रूप में उठने वाले गुब्बारे को एक नाम दिया गया गोधूली, यानी गायों के द्वारा उड़ाई जाने वाली धूल। जबकि संस्कृत के वेला शब्द से ही हिन्दी का बेला शब्द चलन में आया है , जिसका अर्थ है बेला यानी समय, घड़ी या वक्त। इसी तरह गाय और अन्य पशु चरकर वापस अपने बसेरे की ओर आते हैं , उस काल या समय को गोधूली बेला का नाम दिया गया। यानी प्रतिदिन हर गांव या कस्बे में गायों के द्वारा जिस समय धूल का यह गुबार उठता था उसे गोधूली बेला कहा जाने लगा।
24या 48 मिनट की बेला:-
वैदिक पंचांग अनुसार स्थानीय सूर्यास्त से 12 मिनिट पूर्व एवं सूर्यास्त के 12 मिनिट पश्चात् के समय को गोधूलि काल कहा जाता है। इसका आशय यह हुआ कि सूर्यास्त के समय की 1 घड़ी अर्थात् 24 मिनट गोधूलि काल है। कुछ विद्वान इसे 2 घड़ी अर्थात् सूर्यास्त से 24 मिनट पूर्व और सूर्यास्त से 24 मिनट पश्चात् का भी मानते हैं। कहीं कहीं माना जाता है कि सूर्य ढलने के ठीक 24 मिनट पहले और सूर्य ढलने के 24 बाद तक का समय गोधूली बेला माना जाता है। यानी कुल 48 मिनट के उस समय को गोधूली बेला माना जाता है जिसमें आधा समय सूर्य अस्त से पहले और आधा समय सूर्य अस्त के बाद का आता है। इसी विशेष समय को खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में गोधूली बेला के नाम से जाना जाता है। जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में इसको सांझ की घड़ी या संध्या की घड़ी भी कहा जाता है। इस जी पश्चिम क्षितिज लोहित हो उठता है। तरु शिखाओ पर सूर्य की मंद मंद किरणे अठखेलियां करने लगती हैं।
सुबह की धूलि गोधूलि नहीं:-
प्राचीन काल से ही या आज भी जब गायों को सुबह-सुबह चरने के लिए जंगल की ओर छोड़ा जाता रहा है। उस समय धरती पर या मिट्टी पर रात की नमी का असर होता है और उस नमी के कारण मिट्टी या धूल के कण भारी होने के कारण हवा में उठ नहीं पाते, यानी रात की उस नमी के कारण हवा में धूल का गुब्बार या धूल के कण उठ नहीं पाते या उड़ नहीं पाते हैं। जबकि दिनभर की गरमी के बाद जमीन की ऊपरी सतह की नमी समाप्त हो जाती है और ऐसे में गायों के एक साथ चलने की वजह से वही धूल हवा में उड़ने लगती है।
शुभ मंगलमयी बेला :-
आज भी हमारे देश के अनेकों गावों में शाम के समय गायों के घर लौटने पर ऐसे दृश्य देखने को मिल ही जाते हैं। और इसी प्रक्रिया को या इसी विशेष समय के लिए हमारे गांवों में गोधूली बेला जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई होगी। इसी गोधूली बेला यानी गोधूली के समय को हमारे शास्त्रों में अत्यधिक शुभ माना गया है और कहा गया है कि इस मुहूर्त में किए गए कुछ कार्य अत्यंत ही शुभ और फलदायी होते हैं। इसका एक सबसे अच्छा और सटीक उदाहरण अगर देखा जाय तो आज भी विशेष रूप से हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली वैवाहिक रस्मों को इसी समय में यानी संध्या काल में ही संपन्न किया जाता है।
लग्न से संबंधित दोषों को खत्म करने की शक्ति:-
जहां एक ओर यह माना जाता है कि किसी भी शुभ कार्य के लिए शाम का समय उत्तम नहीं होता वहीं गोधुली बेला को भला शुभ क्यों माना जाता है और इस समय में शादी करना शुभ क्यों माना गया है और किस उद्देश्य से इस समय में विवाह किए जाते हैं? इस विषय पर सनातन धर्म के ज्ञाताओं का कहना है कि अगर किसी विवाह मुहूर्त में क्रूर ग्रह, युति वेद, मृत्यु बाण आदि दोषों की शुद्धि होने पर भी विवाह का शुद्ध लग्न और समय नहीं निकल पा रहा हो तो गोधूलि बेला में विवाह करवा देना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि लग्न से संबंधित सभी प्रकार के दोषों को खत्म करने की शक्ति गोधूलि बेला में है।भले ही आजकल की शहरी आबादी वाले लोगों और बच्चों के बीच गोधूली बेला एक अनजाना शब्द है और इसका कोई अर्थ भी नहीं रह गया है और गायों के द्वारा उड़ाई जाने वाली धूल के गुबार से शहरी लोगों का कोई लेना-देना ना हो या ऐसी धूल और मिट्टी से एलर्जी होती है या गंवारों वाली संस्कृति लगती हो, लेकिन प्राचिन समय में तो यह प्रतिदिन का उत्सव और शुद्धता का प्रतिक मानी जाती थी।
“गोधूल बेला ” पर छंद :-
पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी ‘ मोहन’ ने गोधूल बेला का एक मनोहारी चित्रण राष्ट्रपति पदक से सम्मानित स्मृति शेष डा. मुनि लाल उपाध्याय “सरस” प्रणीत “बस्ती के छंद कार” नामक शोध प्रबंध में इस प्रकार किया है–
धेनुए सुहाती हरी भूमि पर जुगाली किये,
मोहन बनाली बीच चिड़ियों का शोर है।
अम्बर घनाली घूमै जल को संजोये हुए,
पूछ को उठाये धरा नाच रहा मोर है।
सुरभि लुटाती घूमराजि है सुहाती यहां,
वेणु भी बजाती बंसवारी पोर पोर है।
गूंजता प्रणव छंद छंद क्षिति छोरन लौ,
स्नेह को लुटाता यहां नित सांझ भोर है ।।
“धूल भरे लाल हैं” समस्या पूर्ति:-
गोधूल पर आधारित “धूल भरे लाल हैं।” की एक समस्या पूर्ति की लाइन बस्ती जिला परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय श्री धनुषधारी पाण्डेय ने मेरे पितामह पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी ‘मोहन’ को दिया था जिसे बहुत कम समय में पंडित जी ने
कुछ इस प्रकार पूरा किया था —
एक सखी कहती है सुनो ओ राधा जी,
श्याम की मनोहर छवि कैसे मृद गाल हैं।
गोप संग धेनुवे चराय रहे यमुना तट ,
परत दर परत धूल मुख लाल लाल है।
हाथ में लें वंशी बजाकर सुनाई रहें ,
झूमती हैं गायें मद मस्त उनके लाल है।
खेल रहे गोकुल में गोप और गोपी संग ,
गौवै के धूल से धूल भरे लाल हैं।।