नई पार्टी : विचारशून्यता की चुनौती
जनता परिवार की छह पार्टियाँ अब एक-दूसरे में विलय होगी और देश में एक नई पार्टी का जन्म होगा। इन पार्टियों के कुछ नेता अपने आप में इतने बडे हैं कि वे प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं। उनमें से कई इतने वरिष्ठ है कि वे प्रांतीय पार्टी नेता होते हुए भी अखिल भारतीय नेता हैं। देश के सबसे बड़े प्रान्तों के इन नेताओं का एकजुट होना अपने आप में बड़ी घटना है। ये नेता और ये पार्टियाँ मिलकर देश की ज्यादातर जनता का प्रतिनिधत्व कर सकती हैं। इसमें जरा भी शक नहीं है कि यह नई पार्टी भाजपा सरकार के लिए भारी चुनौती बन सकती है।
लेकिन मूल प्रश्न यह है कि यह नई पार्टी क्यों बन रही है? इसके पीछे मूल प्रेरणा क्या है? क्या इस पार्टी का जन्म किसी आंदोलन के गर्भ से हो रहा है? क्या कोई शक्तिशाली विचार इन सब नेताओं को साथ आने के लिए प्रेरित कर रहा है? इनका कहना है कि इस नई पार्टी के नाम में समाजवादी शब्द जरूर आएगा। तो क्या हम मान लें कि समाजवाद का विचार ही इन सबको नई पार्टी बनाने की ओर ठेल रहा है। मैं पूछता हूँ कि समाजवाद लाने के लिए ये पार्टीयां क्या कर रही हैं? डा लोहिया,जयप्रकाश,आचार्य नरेन्द्रदेव और अशोक मेहता के किन विचारों को ये पार्टीयाँ कार्यरूप में परिणित कर रही है? क्या इन्होंने‘सप्तक्रांति’ की दिशा में कोई कदम बढ़ाया? मान लें कि इनकी प्रांतीय सरकारों के पास उन कार्यक्रमों को लागू करने के लिए कानूनी ताकत नहीं है लेकिन जन आन्दोलन चलाने से उन्हें किसने रोका है? क्या देश में कहीं जात तोड़ो और अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन चल रहा है? क्या कहीं भारत-पाक एका,दाम बांधो, नर-नारी समता, विश्व सरकार आदि आंदोलन चल रहे हैं? क्या तथाकथित समाजवादी नेताओं और अन्य नेताओं में आपको कोई फर्क मालूम पड़ता है सिर्फ नाम पट अलग-अलग है। सारी दुकानों में माल वही है।
यदि इस नई पार्टी का लक्ष्य सिर्फ सत्ता है तो भी यह भाजपा और कांग्रेस को अच्छी टक्कर देगी,क्योंकि ये दोनों पार्टियाँ भी विचारशून्य हो चुकी हैं। इन दोनों पार्टीयों का नेतत्व भी गोते खा रहा है। भारत की जनता जिन्दा कौम है। लोहिया का वह वाक्य याद आ रहा है कि जिन्दा कौमें पाँच साल इन्तजार नहीं करती! अगले चुनाव के पहले ही देश में बड़ी उथल-पुथल मच सकती है। ऐसे विकट समय में यह नई पार्टी यदि लोहिया के अब जो भी विचार प्रासंगिंक है, उन्हें लेकर आगे बढ़े तो भारतीय राजनीति की विचारशून्यता को समाप्त कर सकती है और भारत को एक समातामूलक, संपन्न और शक्तिमंत देश बना सकती है। जरा ध्यान दें, भाजपा के अध्यक्ष ने भी ‘गाँधी, लोहिया, दीनदयाल,’ को बेंगलूरू अधिवेशन के पहले एक साथ रखकर याद किया है।