मुंडकोपनिषद
डॉक्टर मृदुला कीर्ति भारतीय वैदिक परंपरा के माध्यम से भारत की कीर्ति को बढ़ाने की सतत साधना का नाम है। एक गृहिणी के रूप में रहकर भी वे देश की सांस्कृतिक परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने की गहरी साधना कर रही हैं। देश से बहुत दूर ऑस्ट्रेलिया में बैठकर उनका हृदय भारत के लिए काम करने के लिए धड़कता है। अपनी इसी योग्यता और व्यक्तित्व की विलक्षणता के चलते उन्होंने ईशादि नौ उपनिषदों का काव्यानुवाद किया है । आज हम उनके द्वारा मुंडकोपनिषद के किए गए काव्यानुवाद पर विचार करते हैं।
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है । इसमें ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् में पाया जाता है ।
उपनिषद् बताता है कि ऋषि अंगिरा के पास एक दिन शौनक नाम के प्रसिद्ध धनाढ्य व्यक्ति उपस्थित हुए । उन्होंने अंगिरा से जो प्रश्न पूछा, वही इस उपनिषद् की विषय वस्तु बन गया । उन्होंने पूछा –
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ मुण्डक० १।१।३ ॥
“हे भगवन् ! किसको जान लेने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है (जो सब कुछ इस संसार में है और जो नहीं भी है) ?”
ऋषि ने बड़ा गहरा प्रश्न किया। इस प्रश्न को सुनकर ही लगता है कि उन दोनों की आत्मा कितनी ऊंची थी ? जिन्होंने इस संवाद को आरंभ किया।
डॉक्टर कीर्ति ने इस प्रश्न को अपने काव्यानुवाद के माध्यम से इस प्रकार प्रस्तुत किया है :-
विख्यात कि शौनक मुनि ऋषि कुल अधिष्ठाता जो थे ।
ऋषि अंगिरा के पास आए प्रश्न कुछ मन को मथे। अति विनत हो पूछा कि भगवन तत्व कौन सा है महे।
जिसे जानकर हो विज्ञ सब कुछ तत्व वह कृपया कहें।
इस पर अंगिरा ने शौनक से कहा, “ दो विद्याएं जानने योग्य हैं जिन्हें कि ब्रह्मविदों ने बताया है – एक परा, दूसरी अपरा । उनमें से अपरा (निम्न स्तर की) विद्या वह है जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष में निबद्ध है । परा (ऊंचे स्तर की) विद्या वह है जिससे अक्षर परमात्मा तत्त्वशः जाना जाता है ।”
भारतीय दर्शन और वैदिक ज्ञान विज्ञान में अपनी विद्वता की पूर्णता को प्रकट करते हुए डॉक्टर कीर्ति ने इस बात को इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है :-
अर्थ ब्रह्म ज्ञाता दृढ़ता से निश्चय से कहते सार हैं, यह परा अपरा दो ही विद्याएं हैं ज्ञान अपार है। मानव को यही ज्ञान दो जो श्रेय और ज्ञातव्य है, शौनक मुनि से अंगिरा ऋषि ने कहा, श्रोतव्य है।
बात को और भी स्पष्टता देते हुए उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि :-
उन दोनों में से साम, यजु, ऋग्अथर्व वेद हैं,
छंद, ज्योतिष ,व्याकरण निरुक्त वेद के भेद हैं। वह परा विद्या वेद की जिससे कि ब्रह्म का ज्ञान हो, वेदांगों वेदों के ज्ञान से मानव महिम हो महान हो।
इस उपनिषद् में अग्नि की लपटों को उनके गुणों के आधार पर अलग-अलग ढंग से परिभाषित और विभक्त किया गया है । इस विभाजन पर अच्छे अच्छे विद्वान ऋषि की विद्वता के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं। उपनिषद में कहा गया है कि –
काली कराली मनोजवा च
सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा ।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी
लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥ १।२।४ ॥
अग्नि की जिह्वारूपी, लपलपाती हुई सात लपटें बताई गई हैं – काली (रंगहीन), कराली (अति उग्र), मनोजवा (स्फूर्ति वाली), सुलोहिता (लाल रंग वाली), सुधूम्रवर्णा (धुंए के रंग वाली), स्फुलिंगिनी (अंगारों वाली) और विश्वरुची देवी (सब ओर से प्रकाशित) ।
इस पर डॉ कीर्ति अपनी विद्वता की कीर्ति को बिखेरते हुए लिखती हैं कि :-
काली कराली अग्नि चंचल उग्र अति सुलोहिता, चिंगारीमय सुधूम्र वर्णा दीप्तिमय मन मोहिता।
यह विश्व रुचि स्फुलिंगिनी जिव्हाऐं अग्नि की सप्त हैं,
ग्राह्य आहुति जबकि अग्नि लपलपाती तप्त है।
आगे ऋषि कहते हैं –
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।
अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो
यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥ ३।१।५ ॥
वह परमात्मा सत्य से, तप से, सम्यक् ज्ञान से और नित्य ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है । जो यति, निरन्तर यत्न करते हुए, दोषों से रहित हो जाते हैं, वे उसको अपने शरीर के अन्दर (बुद्धि में) शुभ्र ज्योति के रूप में देखते हैं ।
डॉक्टर कीर्ति इसका अनुवाद करते हुए लिखती हैं कि :-
परब्रह्म अंतःकरण स्थित शुचि शुभ्र ज्योतिर्मय प्रभो,
मित सत्य भाषण ब्रह्मचर्य विज्ञान तप से ही विभो।
है प्राप्त केवल तत्व सम्यक ज्ञान से निर्दोष को, ,बहु यतनशील ही पा सकेंगे सत्य ब्रह्मा विशेष को।
इसके आगे भी मुंडक उपनिषद् के ऋषि ने बड़ी पते की बात कही है। इसे स्वतंत्र भारत की सरकार ने अपने लिए आदर्श वाक्य के रूप में भी स्वीकार किया। स्वतंत्रता से पूर्व इस वाक्य को पंडित मदन मोहन मालवीय ने इस रूप में स्वीकृत करने की बात कही थी। ऋषि का कहना है कि :-
सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रम्न्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥ ३।१।६ ॥
ऋषि ने बताया कि सत्य ही अन्ततः जीतता है, न कि झूठ । सत्य के पथ से देवों के पथ का विस्तार होता है, जिस को पार करके ऋषि-जन कामना-रहित होते हुए, वहां पहुंच जाते हैं जहां सत्य का परम कोष है, अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । सत्य का महत्त्व प्रायः आजकल सब भूल गए हैं, और चारों ओर झूठ फैल गया है । परन्तु जिनको अपना उद्धार इष्ट है, उन्हें झूठ को अपने जीवन से बाहर निकालना ही पड़ेगा।
डॉ मृदुल कीर्ति ने अमर कीर्ति के अपने इन शब्दों का चयन कर भारतीय संस्कृति के इस सनातन मूल्य को इस प्रकार उद्घाटित किया है :-.
जय जयति शाश्वत सत्य की होती असद की जय कहां,
यही देवपथ है सत्यमय, ऋषि पूर्ण काम गमन जहां।
करते वहां सत्य स्वरूपी ब्रह्म रहते हैं सदा,
वे सत्यमय पथ ब्रह्म तक होते प्रशस्त हैं सर्वदा।
अपने सत्य सनातन वैदिक धर्म की सेवा के लिए समर्पित डॉ मृदुल कीर्ति का यह साहित्य निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत ही कारगर होगा। वह जिस प्रकार मोमबत्ती की भांति तपकर अपने आपको मां भारती की साधना के लिए समर्पित कर रही हैं उनका यह शाश्वत चिंतन और तपोभाव भारत के लिए दूरगामी परिणाम देने वाला होगा। 9 उपनिषदों की सारगर्भित और हृदयग्राही व्याख्या और अनुवाद करके उन्होंने जिस कार्य को संपन्न किया है वह उनके संस्कृति प्रेम और मां भारती के प्रति समर्पण को प्रकट करता है। निश्चय ही उनका साहित्य पठनीय है ,ग्रहणीय है, नमनीय है, वंदनीय है और अभिनंदनीय है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत