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1760 से लेकर 1840 तक का समय यूरोप ,अमेरिका में औद्योगिक क्रांति के नाम रहा…. औद्योगिक क्रांति के दौरान ,पश्चात अनेक अविष्कार हुए जिन्होंने मानव जीवन, विश्व व्यवस्था को ही बदल डाला….. 19वीं शताब्दी आविष्कारों की शताब्दी रही…. बैटरी ,कैमरा माइक्रोफोन, सिलाई मशीन ,रिवाल्वर ,वाशिंग मशीन रेफ्रिजरेटर जैसे अविष्कार हुए…. इतने आविष्कारों के पश्चात भी 1879 तक आम आदमी की रातें शाह अंधेरी थी जिन्हें वंशानुगत परंपरा से वह हजारों वर्षों सदियों से जीता आ रहा था। सूर्य के प्राकृतिक प्रकाश के अलावा इंसान के पास रात्रि मे पथ प्रदर्शन के लिए केवल दीपक (ऑयल लैंप) का ही प्रकाश था….. जिसमे तेल बाती आदि के दहन से उत्पन्न 1 वाट उर्जा से केवल 0.1 ल्यूमन प्रकाश ही मिलता था। जैसे लंबाई का मात्रक मीटर ,वजन का मात्रक किलोग्राम है ऐसे ही प्रकाश का मात्रक ल्यूमेन है। लेकिन इंसान ने ठान लिया था वह अब अंधेरे पर विजय पाकर ही रहेगा 18 79 में अमेरिकी अविष्कारक उद्यमी थॉमस अल्वा एडिसन के द्वारा विद्युत बल्ब के उन्नत परिष्कृत व्यवहारिक अविष्कार के कारण घर-घर में कृत्रिम प्रकाश का सूर्य उदित हो गया। विद्युत ऊर्जा से प्रकाश उत्पन्न करने में अनेक वैज्ञानिक लगे हुए थे लेकिन उनके अविष्कार व्यवहारिक सफल नहीं हो पाए हम्फ्रे डेवी ने एडिशन के इलेक्ट्रिक बल्ब से पहले विद्युत लैंप का आविष्कार कर दिया था लेकिन वह वाणिज्यिक स्तर पर कामयाब नहीं था घरेलू प्रयोग के योग्य नहीं था आम आदमी की पहुंच से दूर था…. ठीक ऐसे ही प्रयोग जेम्स लिंडसे ने किये…. अपने पूर्ववर्ती अविष्कारको के कार्य उनकी असफलताओं से सबक लेकर एडिसन ने हजारों प्रयोग किए। एडिसन ने अनुभव किया कि यदि कांच के किसी गोले को वायु व किसी अन्य गैस से मुक्त कर उसमें किसी धातु के तार (फिलामेंन्ट) में विद्युत धारा प्रवाहित की जाए फिलामेंट तप्त होकर प्रकाश उत्पन करेगा ठीक ऐसा ही हुआ। एडिसन ने प्लेटिनम धातु से लेकर सूती धागे पर कार्बन की कोटिंग से लेकर बांस के तंतु व विभिन्न प्रकार की हजारों धातुओं के फिलामेंट पर प्रयोग किया व फिलामेंट की उम्र को कुछ घंटों से लेकर सैकड़ों घंटों पर लाकर संतुष्ट हुए….। अब मिट्टी का दीपक लालटेन जो कुछ ही घंटे प्रकाश देती थी…. उनकी अपेक्षा इलेक्ट्रिक बल्ब 1000 घंटे प्रकाश देने लगा… वह भी 1 वाट विद्युत ऊर्जा से 16 ल्यूमेन प्रकाश… प्रकाश के मामले में एक वैद्युत बल्ब सैकड़ों हजारों दीपक पर भारी पडने लगा…. लेकिन एडिशन के इलेक्ट्रिक बल्ब के साथ एक समस्या थी… इसमें इस्तेमाल की जाने वाली विद्युत ऊर्जा केवल 5 फीसदी प्रकाश में रूपांतरित होती थी…. शेष 95 प्रतिशत ऊर्जा ताप में बदल जाती थी नतीजा यह वातावरण में ताप की वृद्धि करता था। साथ ही यह वातावरण में कुछ मात्रा में CO2 गैस भी उत्सर्जित करता था…. स्वभाव से जिज्ञासु इंसान कहां रुकने वाला था इसके विकल्प पर बात होने लगी 1960 आते-आते…. विकल्प की खोज पूरी हुई CFL( क्लोरो फ्लोरोसेन्ट ट्यूब) के माध्यम से जिन्होंने एडिशन के इलेक्ट्रिक बल्ब का स्थान ले लिया…. जो हमारे और आपके घरों में कुछ साल पहले तक दिखाई देती थी…. जिनका स्थान एलईडी बल्ब ने छीना। सीएफएल ट्यूब में फिलामेंट के स्थान पर कैथोड का इस्तेमाल किया जाता है मरकरी जैसे एलिमेंट व ऑर्गन जैसी अक्रिय गैस को को ट्यूब के अंदर बंद कर विद्युत धारा प्रवाहित की जाती थी मुक्त इलेक्ट्रॉन मरकरी एलिमेंट को वेपराइज कर मरकरी गैस ,मुक्त इलेक्ट्रॉन ट्यूब की अंदरूनी सतह पर विशेष प्रतिदीप्तिशील पाउडर की कोटिंग के साथ प्रतिक्रिया कर प्रकाश उत्पन्न करता है…. cfl ट्यूब ने इलेक्ट्रिक बल्ब को चलन से बाहर कर दिया। सीएफएल ट्यूब में 1 वाट विद्युत ऊर्जा से 70 ल्यूमेन इंसानों को प्रकाश मिलने लगा 4 गुना अधिक बल्ब के मुकाबले। वही जहा बल्ब में 95 फीसदी ऊर्जा ताप के रूप में उड़न छू हो जाती थी । वही सीएफएल ट्यूब के मामले में अनुसंधानकर्ता अनुपात को 70 फ़ीसदी पर ले आये अर्थात सीएफएल, इलेक्ट्रिक बल्ब की अपेक्षा अधिक एफिशिएंट थी लेकिन पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित हुई इसमें इस्तेमाल की जाने वाली मरकरी जैसा विषाक्त रसायन पर्यावरण प्रदूषण का कारक बना। इसका प्रकाश सुखद नहीं था सर दर्द बेचैनी उत्पन्न करने लगा अमेरिका में अनेक अनुसंधान हुए। भविष्य दर्शी अनुसंधानकर्ता 1970 से ही इसके विकल्प पर कार्य करने लगे थे….. दरअसल 1960 में ही इलेक्ट्रिक बल्ब सीएफएल की पद्धति के ठीक विपरीत सेमीकंडक्टर से प्रकाश उत्पन्न करने पर अनुसंधान हो गया था…..। इलेक्ट्रॉन जैसे पार्टिकल की खोज के पश्चात रोबर्ट बियर्ड ,गैरी पिटमेन ने 1961 मे रेड एलइडी का आविष्कार किया वैनेडियम जैसी धातुओं के अर्ध चालकों का इस्तेमाल कर जिनसे ठंडा प्रकाश प्राप्त होता व ऊर्जा की खपत नाम मात्र को होती थी… लेकिन सूर्य के प्रकाश मैं सात रंगों का समावेश होता है ठीक ऐसे पहले रेड एलईडी प्रकाश का आविष्कार हुआ हरा पीला प्रकाश उत्पन्न करने वाले एलईडी खोजे गए लेकिन मानव घरेलू उपयोग के लिए व्यावहारिक सफेद प्रकाश कैसे उत्पन्न हो यह 40 वर्षों तक समस्या बनी रही। लेकिन चाहे समाज व्यवस्था हो या पारिवारिक व्यवस्था चाहे विज्ञान जगत कोई ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान ना हो यह समस्या दूर हुई 1991 में जापानी वैज्ञानिक सोजी नाकामुरा की नीली एलईडी की खोज के पश्चात…. जिसके लिए उन्हें भौतिकी का नोबेल भी मिला .।अन्य रंगों की एलईडी जो पहले खोजी जा चुकी थी उनको मिलाकर सफेद led प्रकाश उत्पन्न किया गया जो अधिक ठंडा चमकीला था , अविष्कार हो गया 21वीं सदी के प्रथम एलईडी बल्ब का…। जिसने वातावरण को ठंडक पहुंचाई क्योंकि इससे नाम मात्र का ताप उत्पन्न होता है साथ ही इसमें किसी जहरीले रसायन गैस का इस्तेमाल नहीं होता ना ही किसी जहरीली धातु का प्रयोग होता है इसमें 1 वाट विद्युत ऊर्जा से 300 वाट ल्यूमेन प्रकाश उत्पन्न होता है…..। वहीं जहां इलेक्ट्रिक बल्ब की प्रकाश आयु अर्थात एवरेज रेटेड लाइफ 1000 घंटे की सीएफएल की एवरेज रेटिड लाइफ 10000 घंटे थी वहीं आज एलईडी बल्ब की लाइफ 25000 घंटे न्यूनतम है…. यही कारण है 2 साल की रिप्लसीमेन्ट वारंटी इसके लिए मिलती है…. आज कंप्यूटर की स्क्रीन से लेकर स्मार्ट टीवी का रिमोट हो या दीवार घड़ी कार की लाइट हो या टीवी सभी में एलईडी लाइट का इस्तेमाल हो रहा है एलईडी का साम्राज्य हर जगह फैल गया है…. लाइटिंग जगत में एलईडी नई क्रांति लेकर आया है लेकिन मानव का कोई ऐसा अविष्कार नहीं जिसका कोई ना कोई दुष्ट प्रभाव ना हो एलईडी बल्ब की भी खतरनाक परिणाम सामने आ रहे हैं भौतिक पर्यावरण पर ना सही लेकिन जैविक पर्यावरण मानव व अन्य जीवो पर एलईडी का प्रकाश मनुष्य की जैविक घड़ी( बायोलॉजिकल क्लॉक) को प्रभावित करता है। इसके कारण अब रात अंधेरी नहीं रही है ऐसे में निशाचर जीवों को परेशानी होती है बहुत से शरीर क्रिया विज्ञान से जुड़े इसके दुष्प्रभाव सामने आ रहे हैं अनिद्रा अवसाद खराब पाचन आदि आदि।आखिर यह प्राकृतिक प्रकाश नहीं है भले ही इसके कारण ऊर्जा की बचत हो रही हो लेकिन यह भी समस्या है। नवीन प्रदूषण ‘प्रकाश प्रदूषण’ ने जन्म ले लिया है दूरदर्शी आविष्कारक इसे समस्या मानकर अंदर खाने इसका विकल्प तलाश रहे हैं देखते हैं किस देश, आविष्कारक को सफलता मिलती है। दीपक से लेकर एलईडी तक की यह है यात्रा हजारों आविष्कारको की मेहनत और समर्पण पर फलीभूत हुई है….. अकेला इंसान कुछ भी नहीं कर सकता… आखिर मिट्टी का दीपक भी एक यंत्र है वह भी प्रथम आविष्कार था जिसने हजारों नहीं लाखों वर्षों तक मनुष्य का पथ प्रदर्शन किया….।
वैसे भी सनातन वैदिक संस्कृति में भौतिक प्रकाश को नहीं आध्यात्मिक प्रकाश को महत्व दिया गया है वैदिक संस्कृति अग्नि प्रकाश रूपी ज्ञान को ही सच्चा पथ प्रदर्शक मानती है जिसका स्रोत परमात्मा है । जो अजर अमर अविनाशी निराकार सर्वशक्तिमान है ।हमारे पूर्वज सूर्य के प्रकाश में जीवन व्यतीत करते थे प्राकृतिक घड़ी के साथ अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करके रखते थे नतीजा वह हम से अधिक आरोग्यवान ,मेधावी थे। उन्होंने रात्रि को रात्रि ही रहने दिया। रात्रि देवी में वह निद्रा देवी का भली-भांति सत्कार सेवन करते थे।
उन्होंने अपनी जीवन यात्रा दीपक की रोशनी के सहारे पूरी कर दी ज्ञान की अनुपम संपदा वह भी अपने वंशजों के लिए ग्रंथ लेखन कर छोड़ कर गए….. आखिर यूरोप अमेरिका में प्रथम ज्ञान रूपी प्रकाश दीपक का उजाला हुआ था तब जाकर वह बल्ब जैसे भौतिक अविष्कार कर पाए… और ज्ञान का यह प्रकाश पूर्व से ही पश्चिम में गया था आखरी ज्ञान के प्रथम सूर्य का उदय भारत में ही हुआ था जिसकी प्रथम किरण अग्नि वायु आदित्य जैसे ऋषि के अंतः करण में पड़ी अर्थात वेदों का उजाला हुआ वेदों में अग्नि व प्रकाश विद्या भरी पड़ी है सूर्य व नक्षत्र लोको के प्रकाश पर गहन गंभीर विवेचन वैदिक वांग्मय में मिलता है, कोई खोज कर लाभ उठाने वाला चाहिए।
आर्य सागर खारी ✍✍✍✍