स्वामी ओमानन्द सरस्वती
पं. जगतराम का जन्म हरयाणा जिला होशियारपुर के नगमापरू नाम के कस्बे में हुआ। आप सदैव प्रसन्नवदन और मस्त रहते थे। मैट्रिक पास करके दयानन्द कालेज लाहौर में प्रविष्ट हुए , किन्तु परीक्षा देने से पूर्व आप उच्च शिक्षा प्राप्त करने के विचार से अमेरिका पहुंच गए। वहां पहुंचने पर देशभक्त ला० हरदयाल से आपकी भेंट हो गई। दोनों के हृदय में देशभक्ति की आग पहले ही विद्यमान थी। दोनों के मिलते ही और गुल खिल गया। दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया और दोनों मिलकर व्याख्यान तथा लेख द्वारा प्रचार करने लगे। अमेरिका में निवास करने वाले भारतीयों में देशभक्ति की आग लगा दी। कुछ दिन पश्चात् पं० जगत राम जी की यह धारणा हो गई कि भारत की सेवा में रहकर अच्छी हो सकती है। इसी विचार से वे अमेरिका से अपने देश – बन्धुनों से विदाई लेकर भारत को चल दिए।
भारत में आकर अपने विचार के कुछ युवकों का सङ्गठन बनाया और कार्य प्रारम्भ कर दिया। सन् १९१४ में पुलिस ने लाहौर षड्यन्त्र का केस पंजाब के अनेक नवयुवकों पर चलाया , इनमें पं० जगतराम भी थे। एक दिन पेशावर जाते हुए रावलपिण्डी में गिरफ्तार कर लिए गए। आप पर हत्या आदि का अभियोग चलाकर अदालत ने आपको फांसी का दण्ड दिया। आपने हंसते – हंसते फांसी का दण्ड सुना। इस समय एक बड़ी कारुणिक घटना घटी। इनके पिता और पत्नी दोनों दुःखी होकर अन्तिम भेंट करने जेल में आये। पण्डित जी जेल में भी बड़े प्रसन्न रहते थे। अपने पिता जी को देखकर बोले – पिता जी क्या आप मुझ से प्रसन्न हैं ? पिता जी की प्रांखों से अश्रुधारा बह निकली और कहने लगे – ” पुत्र ! कल तुम फांसी के तख्ते पर लटकने जाते हो । मेरी आशाओं पर वज्रप्रहार होने वाला है। मेरा सर्वस्व लुट रहा है और तुम मुझ से ऐसा प्रश्न कर रहे हो।
” पं. जगतराम ने उसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक कहा ” क्या आपने गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों की बलिदान की कथा नहीं पढ़ी ? ऐसे वीरों के लिये क्या आपके मुख से वाह ! वाह ! नहीं निकलता ? फिर आप आज रो क्यों रहे हैं ? यह वही नाटक तो है जो आपके ही घर खेला जा रहा है। इस पर तो आपको प्रसन्न होना चाहिए। मैं अपना यौवन मातृभूमि के चरणों पर अर्पण करने जा रहा हूं। क्या यह आपके लिये प्रसन्नता की बात नहीं है ? ” यह बातें सुनकर उनके पिता जी मौनभाव से पुत्र के मुख की ओर देखते रहे। वृद्ध पिता के अत्यन्त आग्रह करने पर पंडित जी ने हाईकोर्ट में अपील की। अपील में फांसी का दण्ड कालापानी के रूप में बदल दिया। पंडित जी की हजारों रुपये की सम्पत्ति जब्त कर ली गई। परिवार वालों को कहीं खड़े होने को स्थान नहीं था। पंडित जी का स्वास्थ्य सर्वथा नष्ट हो रहा था।
आपकी चिकित्सा के लिए डा० अन्सारी , डॉ. खानचन्द्रदेव और डॉ. गोपीचन्द आदि को गुजरात के जेलखाने तक जाना पड़ा। रोग से छुटकारा पाने पर अधिकारियों की कृपादृष्टि आप पर हुई और कई वर्षों तक लगातार जेल की अन्धेरी कोठरी में ‘ डण्डे गारद ‘ में रखे गये। यहां तक कि छः वर्ष तक दीपक का प्रकाश भी देखने को नहीं मिला। सात वर्षों तक पहनने को जुता नहीं मिला , जिससे बिवाई फटने से आपको असह्य पीड़ा सहनी पड़ी। इस प्रकार से नाना कष्ट आपको सहने पड़े । किन्तु इन भयङ्कर कष्टों का पंडित जी के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इन कण्टों को अपना तप समझकर पंडित जी मस्त रहते थे। ज्यों – ज्यों आपको कष्ट दिये गये त्यों – त्यों आपका तपोबल बढ़ता गया। जिस जेलखाने में आप आते उसी के कैदी पंडित जी की ओर खिंचे चले आते थे।
पंडित जी के व्यक्तित्व में महान आकर्षण था। सभी कैदी आपके शिष्य बन जाते थे। आपके जीवन और उपदेशों का प्रभाव ऐसा पड़ता था कि कैदियों के जीवन में परिवर्तन होकर धार्मिकता आती थी। पंडित जी कैदियों के चरित्र को सुधारने का सदैव यत्न करते थे। जो उनको सदाचार का महत्त्व समझाया करते थे। जो कैदी रोगी हो जाते थे उनकी आप बडी लगन से सेवा किया करते। पीछे तो आपके इस व्यवहार से जेल के अधिकारी भी सदैव आप से प्रसन्न रहते थे।
यह गुण उनमें आर्यसमाज की कृपा से आये थे। यह दयानन्द कालिज के छात्र रह चुके थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के उपदेशों का आपके मानस पट पर गहरा प्रभाव पड़ा था। स्वामी विवेकानन्द ओर रामतीर्थ में भी आप श्रद्धा रखते थे। किन्तु आर्यसमाज की शिक्षा ने आपकी काया पलट दी थी। इसी कारण आपका चरित्र बड़ा उच्च और व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था। आप में प्रचार और सेवा की लगन थी। आप मनुष्यमात्र से प्रेम करते थे। सब को अपने सगे भाई के समान देखते थे। आपका मानस द्वेषरहित था। पंडित जी श्रमद्भगवद्गीता से भी प्रेम रखते थे। आपने जेल में ही संस्कृत , गुरुमुखी और हिन्दी भाषा का अभ्यास किया था।
आप इन भाषाओं में सुन्दर गद्य और पद्य लिख लेते थे। आप अपने उपदेशों में गीता के उद्धरणों का प्रयोग किया करते थे। गुजरात जेल में खान अब्दुल गफ्फार खां , डा० अन्सारी साहब , मौलवी मुफती किफायत , उल्ला साहब , खानचन्द्रदेव , डा. गोपीचन्द जी और चौधरी कृष्ण गोपाल आदि विद्वान आपका गीतोपदेश सुनकर मुग्ध हो जाते थे। अब्दुल गफ्फार खां साहब तो आपकी गीता की व्याख्या पर इतने मुग्ध रहते थे कि प्रतिदिन एक घण्टा आप से गीता की व्याख्या सुना करते थे। आज आप जीवित हैं वा नहीं यह कोई नहीं जानता। उधर पंजाब में भयंङ्कर हत्याकाण्ड हो जाने से बहुत प्रयत्न करने पर भी उनका पता नहीं चला। पंडित जी की एक कविता जो अधूरी है , दी जाती है। उनका “ खाको ” उपनाम तखुलुस था।
गर मैं कहूं तो क्या कहूं कुदरत के खेल को।
हैरत से तकती है मुझे दीवार जेल की।।
हम जिन्दगी से तंग हैं तिस पर भी आशना
कहते हैं और देखियेगा धार तेल की।
जकड़े गये हैं किस तरह हम गम में क्या कहें ,
बल खा के हम पे चढ़ गया , मानिन्द बेल की ।। ‘
खाकी ‘ को रिहाई तु दोनों जहां से दे।
आ ऐ आञ्जल तू फांद के दीवार जेल की।।