डॉ. राजेश कुमार मीणा
यह जानना रोचक है कि छठी सदी में दो अवन्ति जनपद हुआ करती थी जिसमें उत्तर अवंति की राजधानी उज्जयिनी थी और दक्षिण अवंति की राजधानी महिष्मती हुआ करती थी। भण्डाकर का भी यही विचार है कि छठीं सदी ई.पू. दो अवन्ति जनपद थे। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त करने के लिए व्यापक अभियान चलाया। उन्होंने सबसे पहले शको को 57-58 ईसा पूर्व अपने क्षेत्र से बाहर निकाल दिया। मालवा का उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में आयुधजावी संघ के रूप में हुआ है। पंतजलि के महाभाष्य में भी इनका उल्लेख है। छठीं सदी ई. पू. में मालवा प्राचीन अवन्ति जनपद के रूप में जाना जाता था। इसका उल्लेख बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में यथा अंगुत्तर निकाय के महागोविन्दसूत में महिष्मती अवन्ति जनपद की राजधानी के रूप में उल्लेखित है। कालान्तर में उज्जयिनी को यह गौरव प्राप्त हुआ भण्डारकर का विचार है कि छठी सदी ई. पू. दो अवन्ति जनपद थे।
उत्तरी अवन्ति, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी और दक्षिण अवन्ति, जिसकी राजधानी महिष्मती थी। महाभारत काल में अवन्ति क्षेत्र में दो राजाओं विंध्य और अनुविंध्य का शासन रहा, जिन्होंने कौरवों की ओर से लड़े थे और प्रसिद्ध अश्वत्थामा नामक हाथी इनका ही था, जिसकी हत्या के छल से द्रोणाचार्य का वध हो गया था। इसके पश्चात् उज्जयिनी पर वितिहोत्र वंशीय रिपुजंय का शासन था। राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर अमात्य कुलिक ने उसकी हत्या कर अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति का राजा बनाया तथा प्रद्योत वंश की नींव रखी। कालान्तर में प्रद्योत चण्डप्रद्योत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बुद्ध के समकालिक चण्डप्रद्योत अवन्तिका का शासक था। प्रद्योत ने 23 वर्षों तक शासन किया प्रद्योत ने अपनी पुत्री वासक्ता का विवाह वत्स के राजा उदयन के साथ किया था।
कलान्तर में मगध के शिशुनाग ने प्रद्योतवंशीय नंदिवर्धन को पराजित कर इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर अधिकार कर मालवा क्षेत्र को मगध साम्राज्य में सम्मिलित किया।
पौराणिक काल : यह विंध्य क्षेत्र की प्रमुख जनपद अवन्ति के अधीन था, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी। यह व्यापार, कला एवं संस्कृति का प्रधान केन्द्र था। यह से तीन प्रमुख व्यापारिक मार्ग पश्चिम की ओर भड़ौच तथा सोपारा तक, दक्षिण की ओर विदर्भ तथा नासिक, उत्तर की ओर कौशल तथा श्रावस्ती के केन्द्र बिन्दु पर थी। अवन्ति के निकटवर्ती एक अन्य महत्वपूर्ण जनपद दशपुर नाम भी पौराणिक ग्रंथों में प्राप्त होता है। बाद में यही अवन्ति दशपुर क्षेत्र ‘मालवा देश’ के नाम से आभाषित किया जाने लगा।
मौर्य वंश : कौटिल्य (चाणक्य) की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य ने 324 ई. र्पू. नंदवंश के अन्तिम शासक धनानंद को पराजित कर मौर्य वंश की स्थापना की। मौर्य वंश की स्थापना भारतीय राजनीति में एक युगान्तकारी घटना मानी जाती हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अवन्ति को अपने साम्राज्य का भाग बनाया। मौर्य साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में मालवा, गुजरात तथा सौराष्ट्र तक था। चन्द्रगुप्त मौर्य के पश्चात् बिन्दुसार मौर्य वंश का शासक हुआ। बिन्दुसार ने अपने जीवनकाल में अशोक को अवन्ति का प्रान्तीय शासक नियुक्त कर दिया था। दीपवंश के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक उज्जैन का महाकुमार नियुक्त था। इस प्रकार सम्भवतः मालवा क्षेत्र भी मौर्य साम्राज्य का एक अंग रहा।
अशोक ने यहाँ लगभग 11 वर्षों तक शासन किया। बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक मौर्य साम्राज्य का राजा बना। मौर्य साम्राज्य पाटलिपुत्र, तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसकी, गिरनार तथा सुवर्णगिरी प्रान्तों में विभक्त था। अशोक सम्राट के काल में ही उज्जयिनी में सांस्कृतिक गतिविधियाँ प्रारम्भ हुई। अशोक के बाद मौर्य वंश का अन्त होने लगा। कालान्तर में अन्तिम मौर्य नरेश वृहद्रव्य की हत्या कर उसका सेनाध्यक्ष पुष्यमित्र ने मगध में शुंगसत्ता स्थापित की।
शक-सातवाहन काल : उत्तर भारत में मगध सत्ता के क्षीण होने पर दक्षिण भारत के सातवाहन शासकों ने उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया तथा सातवाहन शासक वाशिष्ठीपुत्र आनंद का सांची महास्तूप के दक्षिण तोरणद्वार से प्राप्त अभिलेख प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध में मालवा पर तथा सातकर्णी के सिक्कों में अग्रभाग पर हाथी और उज्जैन चिन्ह बने हैं। ब्राम्हीलिपि में ‘सातकर्णिस लिखा है तथा पृष्ठ भाग पर ब्रज और कल्पवृक्ष है। इसके अलावा श्रीसातकर्णी, यज्ञश्री सातकर्णी शासकों के सिक्के मिले हैं। उपरोक्त साक्ष्य सातवाहनों द्वारा मालवा पर आधिपत्य को प्रदर्शित करते हैं।
विक्रमादित्य काल : विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्त करने के लिए व्यापक अभियान चलाया। उन्होंने सबसे पहले शको को 57-58 ईसा पूर्व अपने क्षेत्र से बाहर निकाल दिया। इसी की याद में उन्होंने विक्रम युग की शुरूआत करके अपने राज्य का विस्तार किया। प्रथम सदी ईस्वीं में पश्चिमी शक क्षत्रपों ने सम्पूर्ण मालवा पर अधिकार किया और लगभग 300 वर्षों तक शासन किया। मालवा पर इनके आधिपत्य का ज्ञान नासिक, जुन्नार कार्ले के नहपान एवं दमाद उरावदत्त अथवा ऋषभदत्त के अभिलेखों से प्राप्त होता है। लगभग 124-25 ई. में सातवाहन राजा ने गौतमीपुत्र सातकर्णी ने नहपान को परास्त कर अपने साम्राज्य की सीमा को मालवा तक विस्तृत किया था। बाद में कर्दमक वंश के चष्टन और पौत्र रूद्रदामन ने अपने छीने गये प्रदेशों को पुनः प्राप्त कर लिया। रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से स्पष्ट होता हैं कि इस समय में आकर जनपद अवन्ति (मालवा), अनूप, उपरांत, सौराष्ट्र एवं आनर्त शक साम्राज्य के भाग थे। कालान्तर में शक-छत्रप में पुनः शक-सातवाहन संघर्ष हुआ।
शक शासक रूद्रदामन ने सातवाहन शासक शातकर्णी को परास्त कर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी पुत्री का विवाह वासिष्ठी पुत्र शातकर्णी से सम्पन्न कराया। रूद्रदामन के उपरान्त शक शासकों की अभीर, मालवा, नाग आदि के साथ संघर्ष में शकों की शक्ति क्षीण हुई। चौथी सदी ईस्वीं में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों को समूल नष्ट कर ‘शकारि’ उपाधि धारण की।
गुप्त काल :प्रयाग प्रशस्ति के साक्ष्य के अनुसार गुप्त वंश के प्रथम दो नरेश महाराज श्री गुप्त तथा महाराजा श्री घटोत्कच थे और तीसरा महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त था। प्रथम दो किसी के अधीन सामंत थे, जबकि चन्द्रगुप्त प्रथम स्वाधीन शासक था। वर्ण व्यवस्था में भी गुप्तों की स्थिति में उनकी जाति को लेकर अनेक अवधारणाएँ हैं। ऐलेन के अनुसार- ‘गुप्त सम्राट शूद्र थे।’ पी.एल. गुप्त ने गुप्त सम्राट को वैश्य माना है तथा मीराणी आदि विद्वानों ने विष्णु पुराण का उदाहरण दिया हैं। गुप्त सम्राटों को क्षत्रिय कहने वाले विद्वानों में गौरीशंकर ओझा हैं और डॉ. श्रीराम गोयल के अनुसार गुप्त सम्राट ब्राह्मण थे। 376 ई. में समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय सिंहासन पर बैठा। शीघ्र ही उसने पश्चिम की ओर दृष्टि डाली और शक सम्राट रूद्रसिंह तृतीय को परास्त कर अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया जो अरब सागर तक फैल गया। इस प्रकार 300 वर्षों से भी अधिक विदेशी शासन का अन्त हुआ। उदयगिरि गुफा के शिलालेख तथा सांची के शिलालेख से चन्द्रगुप्त द्वितीय की मालवा प्रान्त में दीर्घकालीन प्रभुत्व की पुष्टि होती हैं।
शक विजय के उपलक्ष्य में गुप्त सम्राट द्वारा जारी की गई चाँदी तथा ताँबे की मुद्राऐं प्राप्त होती हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय सम्पूर्ण पृथ्वी की विजय करते हुए मालवा आये थे तथा साम्राज्य विस्तार हेतु वाकाटकों एवं अन्य राज्यों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। विद्वानों का मत है कि उज्जयिनी के विक्रमादित्य के काल में अवन्ति जनपद समृद्ध देश के रूप में पल्लवित हुआ।
कालिदास ने अवन्ति को स्वर्ग भूमि माना है। मन्दसौर के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र कुमारगुप्त भी मालवा का शासक रहा। कुमारगुप्त के पश्चात् स्कन्धगुप्त गुप्त वंश का शासक हुआ। उसके काल में भी मालवा गुप्त साम्राज्य का भाग रहा, परन्तु गुप्त साम्राज्य का धीरे-धीरे ह्रास होने लगा और अधीनस्थ सामन्त स्वतंत्रता स्थापित करने लगे। इस समय पश्चिम मालवा में औलिकार वंश की सत्ता स्थापित हुई। प्रथम स्वतंत्र शासक नरवर्मन था। दशपुर अभिलेख उसे स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता देता है। गंगधार अभिलेख नरवर्मन को स्वतंत्र शासक के रूप में सूचित करता है, परन्तु बंधुवर्मा का मंदसौर अभिलेख पुनः गुप्त शासक कुमारगुप्त की अधीनता स्वीकारने की ओर संकेत करता है। औलिकार वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक यशोधर्मन (विष्णुवर्द्धन) हुआ। यशोवर्मन की सबसे बड़ी उपलब्धि हूणों को परास्त कर दशपुर को पुनः प्रतिष्ठित करना थी।
इस प्रकार मालवा पर क्रमशः वाकाटकों और परवर्ती गुप्त नरेशों के क्षणिक प्रभुत्व के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, परन्तु राजनीतिक दृष्टि से यह उथल-पुथल का युग कहा जा सकता हैे। कालान्तर में वल्लभी के राजा शीलादित्य प्रथम ने महासेन गुप्त से मालवा का राज्य छीन लिया, जिसकी पुष्टि चीनी यात्री ह्वेनसांग के कथन से होती हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण मालवा 690 ईस्वीं में एक शक्तिशाली राज्य के रूप में विद्यमान रहा था।
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